मैंने कब ये चाहा
कि मैं भी
बहुत बड़ा 'रिच' होता,
मेरी तो बस,
इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी,
कि तुझमे भी एक
ऑन-ऑफ का स्विच होता,
जिसे मैं मन माफिक
जब 'जी' में आता,
जलाता और बुझाता।
...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी, हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी, अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहन...
चाह नहीं रिच हो जाऊं
ReplyDeleteऔर सुरबाला को कार में बिठाऊं :)
वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
ReplyDeleteजब जी में आता,
ReplyDeleteजलाता बुझाता !
कुछ तो अपने
मन माफिक कर पाता !!
गजब कि पंक्तियाँ हैं ...
बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...
कभी कभी हम सभी को एक स्विच की आवश्यकता महसूस होती है....
ReplyDeleteकभी कभी हम सभी को एक स्विच की आवश्यकता महसूस होती है....
ReplyDeleteयह स्विच मिल जाये तो हमें भी बता दीजियेगा।
ReplyDeleteवाह ,स्विच टू लिव ...
ReplyDeleteकाश ऐसा संभव होता, मज़ा ही आ जाता..............
ReplyDeleteवाह वाह बेहतरीन पोस्ट !
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteसाँई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाय!
ReplyDeleteजब जी में आता,
ReplyDeleteजलाता बुझाता !
कुछ तो अपने
मन माफिक कर पाता !!
काश ऐसा हो पाता.:)
रामराम.
ऊपरवाला स्विच ओवर का ऑप्शन नहींदेता गोदियाल जी...वैसे आपकी ख्वाहिश पूरा हो एही हमरा कामना है!!
ReplyDeleteबहुत खूब । ऑन ऑफ़ का आइडिया बढ़िया है ।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार! फोटो भी गज़ब का है......
ReplyDeleteव्यंग्य: युवराज और विपक्ष का नाटक
ऐसा स्विच तो सभी ढूंढ रहे हैं......
ReplyDeleteगोदियाल जी, मिल जाये तो हमें भी बताना।
ReplyDeleteऐ जिन्दगी,
ReplyDeleteकि काश !
तुझमे भी एक
ऑन-ऑफ का स्विच होता,
जब जी में आता,
जलाता बुझाता !
कुछ तो अपने
मन माफिक कर पाता !
--साथ में एक रिवर्स फारवर्ड का गियर. :)
बस अब इसी की कसर है ...स्विच ऑन ऑफ का भी आविष्कार हो ही जायेगा
ReplyDeletesir ji, switch to aaj bhi hai, lekin kambaqt bijli aaye to sahi.
ReplyDeletegood shot