छल-कपट है जिस जग में,
अंहकार भरा है रग-रग में,
उस जगत के हर पहलू को
एक ही मापक्रम क्यों तोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
तू सच क्यों बोलता है ?
पग-पग हैं मिथ्या धोखे,
बंद पड़ चुके सत्य झरोखे,
हर इंसान को फिर भला तू
एक ही भाव क्यों मोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
तू सच क्यों बोलता है ?
निष्कलंक बन गई है दीनता,
चहु दिश फैली मूल्यहीनता,
धूमिल पड़े इस दर्पण में तू
सच्चाई क्यों टटोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
तू सच क्यों बोलता है ?
सब जी रहे यहाँ भरम में,
तजकर विश्रंभ धरम-करम में,
इस कलयुग में कटु सत्य को
सरे-आम क्यों बोलता है ?
सरे-आम क्यों बोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
तू सच क्यों बोलता है ?
बढ़िया रचना है.
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