Friday, December 7, 2012

सिराज-उद- दौलाह और मीर कासिम की इस हार के मायने? -एक तुलनात्मक लेखा-जोखा !


क्या सचमुच अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के बैनर तले प्लासी और बक्सर का युद्ध एक बार पुन: जीत लिया है?सवाल कुछ लोगो के लिए मामूली सा, कुछ के लिए गंभीर और कुछ के लिए हास्यास्पद भी हो सकता है, किन्तु अठारह्वीं सदी (सन 1754-1764)और इक्कीसवी सदी( सन 2004-2014)  के इन दो महत्वपूर्ण युद्धों के बीच मुझे तो अनेक समानताएं नजर आ रही है। मसलन, बंगाल के नवाब अलीवर्दी खान की विधवा घसीटी बेगम और लॉर्ड क्लाईव की बढ़ती महत्वकांक्षाएं तब भी भारतीय उप-महांद्वीप  के विनाश का कारण बनी थी और शायद अब भी (??!!)  जयचंदों की मदद के सहारे तब भी बहुत से मीर जफ़र मुर्सीदाबाद की कुर्सी पर नजरें गडाए बैठे थे और आज भी बहुत हैं। राजा नाबा किशन देव जो कि ईस्ट इंडिया कम्पनी को फाइनेंस करते थे,  तब भी बहुत थे और आज भी बहुत हैं।1764 में जब बक्सर के युद्ध में मीर कासिम साह आलम  और सुजाउद दौलाह के सहयोग से अंग्रेजो को हारने की कोशिश में था तो अंग्रेजो को अवध और मद्रास से भितरघातियों का तब भी जमकर सहयोग मिला था और आज भी मिल रहा है। हाँ, तब भी कुछ बहादुर किस्म के टीपू सुलतान इस देश में मौजूद थे, और आज भे है, मगर न तबके टीपू सुल्तानों की कुछ चली और न आज चलती दिख रही है।    

आइये, अब थोड़ा नजर ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत आते वक्त की भू-राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों  और उसके बाद के कुछ ख़ास परिणामों पर भी डाल लेते है; सन 1601 में रॉयल चार्टर के तगमे तले East of the Cape of Good Hope के सपने को साकार करने के लिए इस कंपनी ने इस उप-महाद्वीप में अपना झंडा गाडा था, और शायद (इस शायद शब्द को कृपया सिर्फ आशंका के तौर पर ही देखें ) आज यह एफडीआई के तगमे तले East of the Cape of Good Hope के सपने को साकार करने जा रही है। अंग्रेजों के साथ व्यापार समझौता करने के लिए तब भी सलीम जहांगीर मौजूद थे और आज भी इनकी कमी नहीं है। अंग्रेज यहाँ घुसे इसलिए कि तब भी पश्चिम में उनके व्यापार हालात खस्ताहाल थे और आज भी हैं। तब भी इस भारत भूमि में भ्रष्टाचार अपने चरम पर था जिसकी वजह से ये अंग्रेज आसानी से यहाँ घुस गए थे, और आज हालात उससे भी बद्दतर है। तब भी बेशर्मी  की सारी हदे पार कर यहाँ के लोग सिर्फ अपने निहित स्वार्थों में उलझे हुए थे, और आज तो इन्होने बेशरमी को भी शर्मिन्दा कर दिया है।  और इसका ताजा उदाहरण है, भारतीय ओलंपिक एसोशियेशन और भारतीय मुक्केबाजी फैडरेशन का विश्व विरादरी से निलंबन। चीन तब भी प्रत्यक्ष तौर पर इस क्षेत्र में अपना दब-दबा कायम करने की फिराक में था और आज भी है, और इसका ताजा उदाहरण है, माले में भारतीय कंपनी जीएमआर का ठेका रद्द होना। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि सन 1700 में जहां विश्व के मुकाबले ब्रिटेन की जीडीपी सिर्फ 2.88 प्रतिशत थी वहीं चीन  की  जीडीपी 22.3 प्रतिशत और भारत की जीडीपी 24.4 प्रतिशत थी।  और सन 1870 तक जहां ब्रिटेन की जीडीपी में दस गुना का उछाल  आया वही  घटकर भारत की वह जीडीपी सिर्फ 12.2 प्रतिशत रह गयी थी, क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी का मकसद सिर्फ इस मुहावरे तक सीमित हो गया था कि  'a lass and a lakh a day',  परिणामत: सामने आये 34 भयंकर अकाल। इस दौरान एक सेर चावल की कीमत हुआ करती थी 170 रूपये।  उस दरमिया ज़रा वारेन हेस्टिंग की रिपोर्ट के ये अंश पढ़िए   "In 1772, Warren Hastings estimated that perhaps 10 million Bengalis had starved to death, equating to perhaps a third of the population."      

क्षमा चाहता हूँ, मैं आपको डरा नहीं रहा, हो सकता है कि मैं ही गलत हूँ, किन्तु सिर्फ आशंकाएं व्यक्त करने और सजगता बनाए रखने में हर्ज क्या है ? क्योंकि अकारण ही सही, मगर परिस्थितियां ख़ास भिन्न आज भी नहीं है।  और मैं अपने को  कबीर के समकक्ष तो नहीं रख सकता मगर कबीर की ही भांति मैं भी यही दोहा गुनगुना तो सकता हूँ कि ;
चलती चक्की देखकर दिया कबीर रोए, 
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए। 

लेकिन मेरे इस देश में ऐसे समझदारों की भी कोई कमी  नहीं है, जो तत्काल उपदेशात्मक जबाब इस तरह दे डालते है कि ;
कबीरा तेरी झोपडी गल कट्टों  के पास,
जो जैसा करे वैसा भरे, तू क्यों भला उदास। 

इसलिए बस इतना ही कहूंगा कि  हम हिन्दुस्तानियों को सोने की आदत बहुत है जभी तो चिरकाल में हमें सोने वाली चिड़िया की संज्ञा दी जाती थी। इसलिए दोस्तों, बस यही कहूंगा कि सोओ मगर जागते भी रहो !                

                      

9 comments:

  1. behtareen. gyanvardhak aur hakeekat ko bayan karti post. Thanx.

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  2. Halanki main FDI ka samarthak hoon, lekin maanta hoon ki ismein puri tarah Sajag rehne ki zarurat hai...

    Achchha alekh...

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  3. aage aage dekhiye hota h kya ...
    ek baat to tay h ki hame ab jagruk to rahna padegaa...

    ek vicharniy post :)

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  4. राजनीति‍ जब तक यूं ही डि‍क्‍टेट की जाती रहेगी, यही होगा

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  5. इस बार भरत वंशियों को जागने में लंबा समय लगने वाला है ... मजिल दूर नज़र आती है अभी ...

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  6. और यहाँ तो होमवर्क भी काफी बढ़ गया है सर! मंद मस्तिष्क इतना भार कैसे संभाल सकेगा? सोचा की पूर्व के एक लेख में टिप्पणी कुछ समय में करेंगे, दुसरे दिन आये तो लेखो के लेख छप्पर फाड़ के आपके लेखन कक्ष में पड़े हुए थे? और बाद में तो, हिस्टरी है, इतने सारे लेख, की हम तो अभी अब यहाँ से नीचे तक धीरे धीरे पढेंगे । पढ़ रहे है ।

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-12-2012) के चर्चा मंच-१०८८ (आइए कुछ बातें करें!) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

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  8. अंग्रेज़ों ने जो सांस्कृतिक और आर्थिक बाजा बजाया है, उसे इसी तरह बीच बीच में याद कर लेना चाहिये।

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  9. वाल-मार्ट के इस खुलासे से कि उसने एफ़ डी आई की लौबी पर 125 करोड़ रुपये खर्च किये, बताता है की देश को अप्रत्यक्ष तौर पर कौन चला रहा है।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।