Wednesday, December 26, 2012

अपनी शान कहते थे तुझे !

आन,बान,शान, आह बिखरी,
दरिंदगी अब हर राह बिखरी। 

नजर दौड़ाता हूँ जिधर भी ,  
अस्मत और कराह बिखरी। 



चेहरे है सभी कुम्हलाये हुए, 
व्यथा-वेदना अथाह बिखरी।   

  
लुंठक लूट रहे है वाह वाही, 

चाटुकारों की सराह बिखरी।


पैरोकारी के साम्राज्य पथ पर ,   

शठ-कुटिलों की डाह बिखरी।

7 comments:

  1. आंसू के सूखे निशान इधर भी हैं,उधर भी है

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  2. शानदार लेखन,
    जारी रहिये,
    बधाई !!!

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  3. होती दृष्ठि-गौचर है यहाँ अब,
    अस्मत और कराह बिखरी।

    ....बहुत सटीक कथन...बहुत मर्मस्पर्शी रचना..

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  4. क्रूर यंत्रणा ही दिखी हरतरफ,
    जिधर भी ये निगाह बिखरी।

    दर्द महसूस कर मेरी आह! जब दर्दनाक रही
    जरा सोंचो की कैसे उसने झेला होगा

    चलो ग़ालिब की गली,मै में डूब जाने को
    बाद उसके होश में आने का झमेला होगा

    बहुत साफ़ चित्रण ...कलम सीधे दिल पर चली ...दर्द महसूस हुआ।

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  5. मर्म को छूती है स्पष्ट ओर बेबाक रचना ...

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  6. सच को उधेड़ कर रख दिया है...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।