दरिंदगी अब हर राह बिखरी।
नजर दौड़ाता हूँ जिधर भी ,
नजर दौड़ाता हूँ जिधर भी ,
अस्मत और कराह बिखरी।
चेहरे है सभी कुम्हलाये हुए,
चेहरे है सभी कुम्हलाये हुए,
व्यथा-वेदना अथाह बिखरी।
लुंठक लूट रहे है वाह वाही,
चाटुकारों की सराह बिखरी।
पैरोकारी के साम्राज्य पथ पर ,
शठ-कुटिलों की डाह बिखरी।
चाटुकारों की सराह बिखरी।
पैरोकारी के साम्राज्य पथ पर ,
शठ-कुटिलों की डाह बिखरी।
आंसू के सूखे निशान इधर भी हैं,उधर भी है
ReplyDeleteशानदार लेखन,
ReplyDeleteजारी रहिये,
बधाई !!!
उम्दा !!!!
ReplyDeleteहोती दृष्ठि-गौचर है यहाँ अब,
ReplyDeleteअस्मत और कराह बिखरी।
....बहुत सटीक कथन...बहुत मर्मस्पर्शी रचना..
क्रूर यंत्रणा ही दिखी हरतरफ,
ReplyDeleteजिधर भी ये निगाह बिखरी।
दर्द महसूस कर मेरी आह! जब दर्दनाक रही
जरा सोंचो की कैसे उसने झेला होगा
चलो ग़ालिब की गली,मै में डूब जाने को
बाद उसके होश में आने का झमेला होगा
बहुत साफ़ चित्रण ...कलम सीधे दिल पर चली ...दर्द महसूस हुआ।
मर्म को छूती है स्पष्ट ओर बेबाक रचना ...
ReplyDeleteसच को उधेड़ कर रख दिया है...
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