Tuesday, November 27, 2012

गली से इठला के निकलती है,चांदनी भी अब तो











देखके लट-घटा माथे पे उनके,मनमोर हो गए है, 
अफ़साने मुहब्बत के इत्तफ़ाक़,घनघोर हो गए है।

कलतक खाली मकां  सा लगता था ये दिल मुआ,
 हुश्नो-आशिकी के इसपे ,अब कई फ्लोर हो गए है। 

गली से इठला के गुजरती है, चांदनी भी अब तो, 
वो क्या कि चंदा के दीवाने, कई चकोर हो गए है। 

वो क्या जाने देखने की कला, टकटकी लगाकर,  
खुद की जिन्दगी से दिलजले जो, बोर हो गए है।   

राह चलते तनिक उनसे, कभी नजर क्या चुराई,  
नजरों में ही उनकी 'परचेत',अपुन चोर हो गए है।  

14 comments:

  1. बहुत मजेदार रोचक ग़ज़ल और इस शेर के तो क्या कहने :):):)--कलतक खाली प्लाट सा लगता था जो मुआ दिल,
    उसपे हुश्नो-आशिकी के अब, कई फ्लोर हो गए है।

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  2. वाह वाह! क्या बात है!! वैसे पूर्णिमा के पावन अवसर पर हम तो कब से यह गुन गुना रहे है |

    http://www.youtube.com/watch?v=f8wai8RSkHE

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  3. ये दिल्लगी है या दिल की लगी है ...लो भी है
    बहुत बढ़िया है :-))
    शुभकामनायें!

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  4. वाह क्या बात है!

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  5. वो क्या जाने देखने की कला, टकटकी लगाकर, खुद की जिन्दगी से दिलजले जो, बोर हो गए है।
    बहुत सार्थक प्रस्तुति .aabhar

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  6. रस ले ले के पढ़ा -
    मजा आ गया भाई-

    आशिक की दिक्कत बढ़ी, फ्लोर फ्लोर पर हुश्न |
    कैसे जाऊं सब जगह, बना मुझे अब कृष्ण ||

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  7. गली से इठला के निकलती है,चांदनी भी अब तो,
    वो क्या कि चंदा के दीवाने, कई चकोर हो गए है।
    ...बहुत खूब!

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  8. वाह वाह ! क्या बात है !
    यह मूड भी खूब है. :)

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  9. क्या कहने, क्या कहने!

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  10. इस हौंसला अफ्जाई के लिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ !

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।