पिछले दो दिनों में लगातार दो प्राकृतिक आपदाओं, एक उत्तराखंड और दूसरे पुणे ने लगभग १६० जिन्दगियों को पलभर में लील लिया। इसे प्राकृतिक आपदा कहने में बड़ा आसान लगता है कि जी बाढ़ आने , बादल फटने अथवा लैंडस्लाइड की वजह से ऐसा हो गया । जबकि कड़वी सच्चाई यह है कि ये मानव निर्मित आपदाए है। बादल पहले भी फटते थे, बाढ़ पहले भी आती थी और लैंडस्लाइड पहले भी होती थी, लेकिन सिर्फ कुछ ख़ास मौकों और प्रकृति के अत्यधिक बिकराल होने पर ही जन-धन की हानि होती थी। आज की तरह हर कोस पर ज़रा सा बारिश होने या बाढ़ आने से ऐसा नुकशान नहीं हुआ करता था। हम अगर इतिहास में थोड़ा सा पीछे जाएँ तो सन १९७० में बिरही नदी पर सन १८९३ में बनी विशाल झील के टूटने ने जो बिकराल रूप उत्तराखंड के चमोली से हरिद्वार तक धरा था, और भारी जन-धन की जो हानि उस जमाने में हुई थी, कल्पना करके रूह काँप जाती है कि भगवन न करे, अगर वह घटना तब न होकर आज के इस युग में घटित हुई होती तो क्या हो जाता?
यहां इसे एक उदाहरण से समझाना चाहूँगा ; पहाड़ी मार्गों पर कभी अमूमन इक्का-दुक्का वाहन घंटे भर के अंतराल से ही चलते दिखाई देते थे, अत : कहीं पर कोई लैंडस्लाइड हो भी जाती थी तो किसी राहगीर के हताहत होने की सम्भाव्यता ना के बराबर होती थी। कल्पना करो कि अगर इन सड़कों पर भी दिल्ली की सड़कों जैसा जाम लगा हो और ऊपर पहाड़ी से एक पत्थर भी खिसककर नीचे आ जाए तो होगा ?
इसमें कोई संदेह नहीं कि अनियोजित विकास और जंगलों का बड़े पैमाने पर विनाश प्रकृति के रोष के पीछे मुख्य कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण है किन्तु हमारे कुछ बुद्धिजीवी और ज्ञानी भले ही सिर्फ इसे ही एक मूल कारण माने , किन्तु अनेक सत्यों में से एक बड़ा सत्य इसके पीछे का जो है वह है ,जनसंख्या विस्फोट। The truth is that the population explosion, colossal greed of people, politicians and bureaucrats are mainly responsible for such frequent disasters .
मुझे ताज्जुब होता है कि इस कमरतोड़ महंगाई और तथाकथित सभ्य जमाने में भी बहुत से हिन्दुस्तानी परिवारों में आठ से दस बच्चों की फ़ौज एक सामान्य सी बात मानी जा रही है. जब आज जरुरत थी कि हम समझदारी और सख्ती के साथ तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करते तब हम सिर्फ अपने तुच्छ राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों में ही उलझे हुए नजर आते है। अभी ताइवान एक ताजा उदाहरण है। गैस, ईंधन पूर्ति के लिए आज हमारी लाइफ लाइन बन चुकी है, मगर यदि ताइवान के पास बहुत सी जमीन बाकी होती तो उसे शहर के बीचों बीच सड़क के नीचे से न तो गैस लाइन बिछानी पड़ती और न ही आज इतना बड़ा हादसा होता।
पता नहीं, हम इंसान कब चेतेंगे !
युग के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया है। कोई आदमी खासकर पूंजीपति और शासक अपने को कम नहीं समझ रहा है।
ReplyDeleteसच कुसूर हम इंसानों का और दोष प्रकृति .. ..सच जाने कब चेतेंगे हैं मानव ...
ReplyDeleteगहन चिंतन का विषय है यह सब ..
सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteपहाड़ों पर बढ़ती मानव और मशीन की दखल अंदाज़ी निश्चित ही पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ रही है ! इस विषय पर सम्बंधित अधिकारियों को चिंतन मनन करना होगा , वर्ना ये त्रासदियाँ होती रहेंगी !
ReplyDelete