Wednesday, July 8, 2020

अल्हड़








सज्दा हमें मुनासिब नहीं
बताकर मैं पसंद रखुंं,
हर मुकम्मल कोशिश
यही रही अबतक
कि मुंह अपना बंद रखूं।
ये मुमकिन था कि मैं
सच बोल देता,
कभी जरा सा भी,
जो मैं मुंह खोल देता।।

1 comment:

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।