इक्कीसवीं सदी मे भी अश्वेतों का जीने का हक,
गला दबाकर छीन लिया करता था जो कलतक,
असहिष्णुता और रंग-भेद पर ही पूरी दुनिया को,
ज्ञान बांटा करता था वो,"श्वेत वर्चस्वधारी बुडबक"।
किंतु, ऐसा वक्त का पहिया घूमा, खुल गई पोल,
सडकों पे उतरे अश्वेत,बजाके नश्लवाद का ढोल,
बिगुल बजा, अमेरिका, यूरोप से आस्ट्रेलिया तक,
अब,हटाये और गिराए जा रहे,तमाम श्वेत स्मारक।
शस्त्र-कोरोना लेकर, कुदरत ने भी डाका डाला है,
दिलों मे आग धधक रही,जहां मे भडकी ज्वाला है,
व्यर्थ हुई 'परचेत' चमक-दमक, क्षमता ऐसी मारक,
न कर्ता कोई नये विश्व-युद्ध का,और न कोई कारक।
#हरजीवनमायनेरखताहै
Every lives matter.
सार्थक और सामयिक रचना।
ReplyDeleteआभार आपका, सर।🙏
ReplyDelete