Friday, June 5, 2020

अचरज।

नजर आता नहीं,
कहीं दूर तक कोई,
तिनका इक आश का,
जहां वाले, है कैसा
ये सम्मिश्रण तेरा, 
उल्लास मे हताश का।

'कोरोना' संरचना
कोई कारण तो नहीं,
मानवता के विनाश का,
'आश' की आस मे
ये कब खत्म होगा,
इंतजार इक निराश का।।

क़त्ल की ये कैसी
खौफना़क साजिश,
है जुनून कैसा 
ये सत्यानाश का,
गुफा अंधेरी,अंतहीन,
सर्वथा टेडी-मेडी,
परिणाम शिफ़र तलाश का।

ये कौन है,
आया कहाँ से भेष धरकर,
मदमास मे बदमाश का,
नजर आता नहीं,
कहीं दूर तक कोई,
तिनका इक आश का।



7 comments:

  1. सुन्दर और सामयिक प्रस्तुति

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  2. वाह!बहुत खूब !पता नहीं कौन ,कहाँ से आया ,जो सभी को इतना हैरान कर रहा है ।

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  3. इन्सानी फ़ितरत ने किसी को बख़्शा कहाँ?अति का यही परिणाम होता है.
    नियति हँसती है इन्सान रोता है.

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संशय!

इतना तो न बहक पप्पू ,  बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर, ४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,  नादानियां तेरी, कहर  बनकर।