Friday, June 12, 2020

वक्त का पहिया।

हम जब समाज मे किये थे प्रवेश
उस बदलते समाज की देहरी से,
तो सिर्फ़, संस्कार हमारे साथ थे,
हमारे लाख समझाने पर भी, वो
हमारा साथ छोडने का राजी न थे।

मगर, वक्त की विडम्बना तो देखिए,
जब जमाने का रंग चढा हम पर, तो
"संस" हमें दरकिनार कर गए, और 
तथाकथित हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा पर, 
"कारों" ने वर्चस्व हासिल कर लिया।। 

2 comments:

मौन-सून!

ये सच है, तुम्हारी बेरुखी हमको, मानों कुछ यूं इस कदर भा गई, सावन-भादों, ज्यूं बरसात आई,  गरजी, बरसी और बदली छा गई। मैं तो कर रहा था कबसे तुम...