हो वर्चस्व की यदि अंंतहीन जंग,
उसे मरते दम तक कभी न हारो।
भद्र-प्रतिद्वंद्वी, बर्ताव हो निश्छल,
हो शत्रु कपटी, उसे छल से मारो।।
मरुधर जो उगले, नफरत का लावा,
तीव्र-प्रबल धार छोड, जल से मारो।
निष्क्रिय हो बोले जो,शटुतित धावा,
लक्ष्यसिद्ध शस्त्र साध, बल से मारो।।
विघ्न उपजाना समझो,धर्म है रिपु का,
उसका हल निकाल, उसे हल से मारो।
जिसे फर्क न महसूस हो,मनुष्यत्व का,
ऐसे अकल के मारे को,अक्ल से मारो।।
अक्षम्य है लेकर जान, उसे त्रुटि कहना,
भूल करे इरादतन बैरी तो फल से मारो।
बन जाए अगर कोई मार्ग का बाधक,
वीर-पथगामी बन 'परचेत', तल से मारो।।
बहुत सुन्दर और प्रेरक।
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