निकले थे दिनकर इंद्रप्रस्थ से
और सांझ उनकी गुरुग्राम गई,
गुम, कुछ वाहियात सी ख्व़ाहिशे,
आडे-तिरछे जिन्हें बुना था कभी,
चुस्त एकाकीपन की सलाइयों से,
ढूंढते हुए उन्हें इक और शाम गई।
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पद्य पर गजब का नशा था जमाने मे,
और मै व्यवस्थ रहा, गद्य सजाने मे।
वाह
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