Sunday, September 6, 2020

परिचित, आज फिर मिलने कुछ शामें आई थीं।








निकले थे दिनकर इंद्रप्रस्थ से

और सांझ उनकी गुरुग्राम गई,

गुम, कुछ वाहियात सी ख्व़ाहिशे,

आडे-तिरछे जिन्हें बुना था कभी,

चुस्त एकाकीपन की सलाइयों से,

ढूंढते हुए उन्हें इक और शाम गई।



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पद्य पर गजब का नशा था जमाने मे,

और मै व्यवस्थ रहा, गद्य सजाने मे।





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मौन-सून!

ये सच है, तुम्हारी बेरुखी हमको, मानों कुछ यूं इस कदर भा गई, सावन-भादों, ज्यूं बरसात आई,  गरजी, बरसी और बदली छा गई। मैं तो कर रहा था कबसे तुम...