क्या सितम ढाये तूने,
ऐ कमबख़्त कोरोना,
जग मे जिधर नजर जाए,
है बस, तेरा ही रोना।
कभी-कभी यूं लगता है,
जिन्दगी बौरा गई है,
जीवन की हार्ड-डिस्क मे
कहीं नमी आ गई है।
ख़्वाबों की प्रोग्रामिंग
भृकुटियाँ तन रहीं हैं,
हसरतों की टेम्पररी फाइलें
भी उसमे, बहुत बन रही है।
समझ नही पा रहा, रक्खूं,
या फिर डिलीट मार दूंं,
'हैंग' ऑप्शन भी बंद है,
जो लॉकडाउन का गुस्सा उतार दूं।
है अपरिमित कशमकश,
कमबख़्त,
'जीवन फ़ोर्मैटिंग' भी तो
इत्ती आसां नही रही !!
बहुत सुन्दर और सामयिक प्रस्तुति
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