लगता नहीं है दिल मेरा,
इन उजडी हुई दीवारों मेंं,
दम घुटता है कभी-कभी,
भीत के बंद कीवारों मेंं।
सजर खामोश,पता ना चले,
कब दिन उगे, कब ढले,
कब नमी थी, कब शुष्कता,
समीप से गुजरी बहारों मेंं।
दम घुटता है कभी-कभी,
भीत के बंद कीवारों मेंं।।
मंजर हसीं हो तो क्या सही,
दफ्ऩ दिल मे ही हैं बाते कई,
मुसाफिर बहुत हैं राह मे मगर,
बंद हैं सभी अपने दयारों मे।
दम घुटता है कभी-कभी,
भीत के बंद कीवारों मेंं।।
एक ही चमन के सभी अनजाने,
यूंही पल-पल गुजरे, गुजरे जमाने,
जाने, कब, कौन, कहां खप गया,
इस गली उस गली, पास बाजारों में।
दम घुटता है यहां हरदम,
भीत के बंद कीवारों मेंं।।
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteसार्थक रचना।
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