Friday, April 15, 2016

तजुर्बा

   

बेशक, तब जा के आया, यह ख़याल हमको,
जब दिल मायूस पूछ बैठा, ये सवाल हमको।


हैं कौन सी आखिर, 
हम वो काबिल चीज़ ऐसी,
करता ही गया ज़माना, जो इस्तेमाल हमको।


लाये तो हम थे किनारे,कश्ती को आँधियों से ,
किन्तु सेहरा सिर उनके चढ़ा, बबाल हमको।


ऐ जिंदगी, तूने हमें यूं सिखाया,जीने का हुनर,
'उदीयमान'* मिला उनको, और ढाल* हमको।


शिद्दत से निभाते रहे हम, किरदार जिंदगी का,
रंगमंच पर मुसन्न* चढ़ा गए, नक्काल हमको।



जाल में जालिम जमाने के, फंसते ही चले गए,
धोखे भी मिले 'परचेत', क्या बेमिसाल हमको।

उदीयमान = प्रगति 
ढाल - ढलान 
मुसंन = जबरदस्ती 


   

2 comments:

  1. वाह ... बहुत लाजवाब ...मतलब की बात कहता है हर शेर ...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।