Thursday, April 28, 2016

मेरे लिए तुम....


मय-साकी-रिन्द-मयखाने में,
आधी भी तुम, पूरी भी हो,  
हो ऐसी तुम सुरा खुमारी,
'मधु' मुस्कान सुरूरी भी हो। 

मंथर गति से हलक उतरती,
नरम स्वभाव, गुरूरी भी हो.     
आब-ए-तल्ख़ होती है हाला,
तुम मद्य सरस अंगूरी भी हो। 
  
जोश नजर शबाब दमकता,  
देह-निखर, धतूरी भी हो,   
खान हो जैसे हीरे की तुम, 
सिर्फ नूर नहीं, कोहिनूरी भी हो। 
  
था जीवन नीरस तब तुम आई ,
 नहीं मांग निरा, जरूरी भी हो,     
अकेली केंद्र बिंदु ही नहीं हो,
तुम मेरे घर की धूरी भी हो।  


5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-04-2016) को "मेरा रेडियो कार्यक्रम" (चर्चा अंक-2327) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जिन्दगी के लिए ये मधु मुस्कान भी ज़रूरी है ....शुभकामनायें |

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    1. आपका आशीर्वाद, सलूजा साहब. आभार आपका !

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  3. जिन्दगी के लिए ये मधु मुस्कान भी ज़रूरी है ....शुभकामनायें |

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  4. जी बहुत जरूरी हैं ये मुस्कानें भी ...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।