Sunday, January 31, 2010

मिथ्या ही मान लो कि भगवान सब देखता है पर .. !


और यह रही मेरी पहली टिप्पणी अलग से मेरे ही पिछले लेख पर : आज जो हम लोग आम जीवन मे मानवीय मुल्यों का इतना ह्रास देख रहे है, उसकी एक खास वजह यह भी है कि हमारे धर्मो द्वारा निर्धारित जीवन के मुल्यों का कुछ स्वार्थी और तुच्छ लोगो द्वारा अपने क्षणिक स्वार्थो के लिये इनकी अनदेखी करना, इनका उपहास उडाना, खुद को इन मुल्यों से उपर बताना, इत्यादि । इसे मैं इस उदाहरण से समझाता हूं; मान लीजिये आपके आस-पास कहीं चोरी हो गई और आप पति-पत्नी घर पर बच्चो संग उसी विषय पर चर्चा कर रहे है, तो आपके चर्चा के दो नजरिये हो सकते है। एक यह कि चोरी करना बुरी बात है, और चोर को इसका फल जरूर मिलेगा । दूसरा नजरिया यह कि अरे भाई, उसको जरुरत थी तभी तो उसने चोरी की, अगर उसका भी पेट भरा हुआ हो तो भला वह चोरी करने ही क्यो जायेगा?( इस नजरिये को मानने वाले भी तभी तक उसे मान्यता देते है जब तक वह चोर दूसरों के घर मे चोरी कर रहा होता है ,उनके घर मे नही) आप इसमे से पहले नजरिये को धार्मिक अथवा आजकल की भाषा मे साम्प्रदायिक नजरिया कह सकते है और दूसरे नजरिये को सेक्युलर नजरिया, मगर साथ ही यह भी गहन विचार कीजिये कि आपकी इस चर्चा को सुन रहे आपके बच्चो पर कौन से नजरिये का क्या असर होगा?

जब कोई भी इन्सान यहां कोई अच्छा-बुरा काम करता है तो लगभग सभी धर्मो मे यह कहा गया है कि भग्वान उसे उसका फल अवश्य देता है ! अब मान लो कि चाहे यह बात मिथ्या ही क्यों न हो, लेकिन इसका समाज पर कम से कम यह असर तो पडता था कि गलत काम करने वाले के मन मे यह भय होता था कि भग्वान उसे ऐसा करते देख रहे है, और उसे इसका दुष्परिणाम भुगतना पड सकता है, अर्थात मिथ्या पूर्ण होते हुए भी वह बात समाज के हित मे थी, लेकिन आज इन स्वार्थी तथाकथित सेक्युलरों ने तो तरह-तरह के उदाहरण पेश कर इन चोरो के मन का यह भय भी खत्म कर दिया!

लो जी, दादा-नाना का गोत्र भी स्वीडन मे पेटेंट हो गया !

आज इस दुनियां मे मौजूद हर धर्म का उद्देश्य उसे मानने वाले अनुयायियों को उनके द्वारा जीवन को जीने के अपने एक खास नजरिये के प्रति प्रेरित और सजग करना होता है। हर धर्म की जहां अपनी कुछ खास विषेशतायें होती है,वही कुछ कमियां भी है। और अक्सर देखा गया है कि यहां, हमेशा ही किसी एक धर्म की दूसरे धर्म के अनुयायियों द्वारा तरह-तरह की आलोचना की जाती रही है। लेकिन शायद इस दुनिया मे हिन्दु धर्म ही एक मात्र ऐसा धर्म है जो कि न सिर्फ़ दुनियां का सबसे पुराना धर्म है अपितु इस धर्म को, इस धर्म के ही मानने वाले तथाकथित सेक्युलरों ने समय-समय पर प्रताडित किया है। जबकि देखा जाये तो अब तक इस धर्म की अनेक मान्यताओं को भले ही परोक्ष तौर पर ही सही, मगर दुनिया के अन्य हिस्सों मे मौजूद दूसरे धर्म के अनुयायियों ने भी मान्यता दी है। यह तो आप सभी जानते है कि पूर्व मे दुनियां भर के वैज्ञानिकों ने बहुत सी ऐसी चीजों की खोज की, अनेक ऐसी बातों को अपने अलग तौर पर प्रमाणिक सिद्ध किया, जिन्हे कि हिन्दु धर्म ग्रंथ और विद्वान आदिकाल मे ही जीवन-शैली मे सम्मिलित कर चुके थे।

भले ही आज की पाश्चात्यपरस्त हमारी युवा शिक्षित पीढी बात-बात पर अपने हिन्दु धर्म की मान्यताओं और रीति-रिवाजों का मजाक उडाती हो, मगर आपको मालूम होगा कि हमारे हिन्दु धर्म की मान्यताओं मे विश्वास रखने वाले कुछ लोग आज भी अपने लड्के-लड्की का रिश्ता तलाशते वक्त लड्के और लड्की के खानदान, गोत्र इत्यादि का उनके पिछ्ली सात पुस्तों का लेखा-जोखा देखते है कि लड्के अथवा लड्की की मां-दादी किस गोत्र की थी, दादा-नाना किस गोत्र के थे, उनका खानदान और चालचलन कैसा था ? इत्यादि-इत्यादि, वह इसलिये नही कि वे अन्ध विश्वासी है, बल्कि इसलिये कि इन बातों का वैज्ञानिक प्रभाव आने वाली पीढियों पर पड्ता है। और अब तो हम-आप जैसे सेक्युलर लोग भी इस बात को मानने वाले है क्योंकि अब यह बात हमारे देश के और हिन्दु धर्म के मानने वाले वैज्ञानिको द्वारा नही वल्कि स्वीडन के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन के बाद सिद्ध कर दी है कि अगर दादा अथवा नाना का कभी हड्डियों का विकार रहा हो अथवा उनकी रीढ की हड्डी कभी किसी दुर्घट्ना की वजह से कभी टूटी हो तो उसका असर उनके पोते पर भी पड्ता है। इसीलिये हमारे यहाम वह कहावत बहुत प्रचलित है “ बाप की बिगाडी हुई पूत को भुगतनी पड्ती है। तो चलिये, आगे से ध्यान रखियेगा कि जब भी अपने बेटे-बेटी का कहीं रिश्ता करने जावो तो अपने आने वाली पुस्तों की सलामती के लिये यह भी पता कर लेना कि कभी लड्के अथवा लडकी के बाप-दादा की रीढ की हड्डी तो नही टूटी थी?

इक्कीसवीं सदी का हमारा शहरी युवा वर्ग !

आज हमारे देश के शहरी इलाके ज्यों-ज्यों तथाकथित प्रगति की ओर अग्रसर है, त्यों-त्यों इन शहरी इलाकों के वाशिन्दे नित शाररिक तौर पर क्षीणता की गर्त मे डूबे जा रहे है। इसके लिये जिम्मेदार बहुत सारे प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण विध्यमान है, जिनमे से कुछ प्रमुख है, भोग और विलासिता की वस्तुए, मनोंरजन के साधन, शहर, कस्बे और मुहल्ले मे खेलने-कूदने के लिये उचित और प्रयाप्त जगहों का न होना, बच्चे का अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक न होना, माता-पिता की लापरवाही और सरकारों की इस ओर उदासीनता ।

और कम से कम मोदी नगर के एक स्कूल मे कल की यह घटना तो यही सिद्ध करती है कि हमारी युवा पीढी शारिरिक तौर पर कितनी कमजोर है। कल मोदी नगर के टी आर एम पब्लिक स्कूल के १८ वर्षीय बारह्वीं कक्षा के एक छात्र पवनेश पंवार की शारिरिक व्यायाम की परिक्षा के दौरान चक्कर आने से दुखद मृत्यु हो गई। घटना के बाद विधार्थी का परिवार, प्रशासन और खबरिया माध्यम जितना मर्जी हो-हल्ला मचायें, स्कूल प्रशासन को जिम्मेदार ठहरायें, लेकिन हकीकत यही है कि बाहर से लम्बे-चौडे, हष्ठ-पुष्ठ दिखने वाले ये आज के मदर डेयरी और चौकलेट पोषित युवा अन्दर से कितने खोखले हैं।

मेरा यह मानना है कि कलयुग ज्यों-ज्यों अपने चरम की ओर बढ रहा है, त्यों-त्यों इस धरा पर सारी की सारी क्रियायें-प्रक्रियायें उलट-पुलट हुए जा रही है, और जिसके लिये इन्सान सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। खान-पान मे तो हमने खुद ही अपने हाथों पौष्टिकता का गला घोंट दिया है, मगर साथ ही भोग-विलासिता और मनोरंजन के साधनो ने आग मे घी का काम कर दिया है। आज भी अगर हम सडक पर किसी प्रौढ अथवा बूढे व्यक्ति को फुर्तीले अन्दाज मे चलते हुए देखते है, तो हमारे मुख से पह्ला शब्द यही निकलता है कि भाई अगले ने पुराने जमाने का माल खा रखा है। कभी हमने शायद ही इस बात पर गौर किया हो कि उस पुराने जमाने के माल मे ऐसी कौन सी चीज थी, जिसे खाकर वह इन्सान आज भी स्वस्थ है ? जबाब साधारण सा है कि उस समय मे भोजन मे पौष्टिकता होती थी।

दूसरी बात, आज का युवा अपने आन्तरिक शारिरिक विकास और मजबूती के लिये जरा भी प्रतिबद्ध नही दीखता। पहले जमाने मे घर के बडे- बुजुर्गो के मुख पर विधार्थी के लिये बस यही दो मूल मन्त्र होते थे, एक था; काक चेष्ठा, बको ध्यानम, स्वान निन्द्रा तथेवच, अल्प हारे, गृह त्यागे, विधार्थीवे पंच लक्षण, अर्थात एक सफ़ल विधार्थी वह है जिसके हाव-भाव कौवे जैसे, तीक्ष्ण ध्यान बकरी जैसा, नींद कुत्ते जैसी, खान-पान थोडा और पौष्टिक तथा अध्ययन के लिये घरेलु उपभोग और मनोरंजन की चीजों का परित्याग किये हो। और दूसरा मन्त्र होता था कि विधार्थी को रात को जल्दी सोना चाहिये और सुबह जल्दी उठ्ना चाहिये। मगर आज की हकीकत इन बातों से कोसों दूर है। मां-बाप की मेहनत तथा नम्बर दो की कमाई मे से बेटा हर घन्टे कुछ न कुछ खाये ही जा रहा है, रात को ग्यारह-बारह बजे तक टीवी पर चिपका रहता है, उसके बाद दो बजे तक वह तथाकथित पढाई करता है, और फिर सुबह अगर स्कूल जल्दी जाने की मजबूरी न हो तो दस बजे बाद मा-बाप के बार-बार उठाने पर जनाव जागते है। दो कदम अगर जाना हो, तो कार अथवा बाइक लेकर जाते है। और फिर नतीजा हमारे सामने है कि स्कूल मे व्यायाम भी नही झेल पाते, और फिर दोष स्कूल प्रशासन के सिर मढ देते है। मै यहां अपना भी एक उदाहरण देना चाहुंगा, भूतकाल मे मेरे साथ दो इतने खतरनाक ऐक्सीडेंट हुए कि मै मानता हूं कि भग्वान के आशिर्वाद के साथ-साथ मेरी शारिरिक क्षमतायें ही थी जो मैं बच गया (चुंकि मैने भी अपना बचपन का एक बडा हिस्सा गांव मे बिताया और खूब शारिरिक व्यायाम भी किये), अन्यथा मै दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरी जगह अगर कोई आज का शहरी नौजवान होता तो शायद वह उसी वक्त अल्लाह को प्यारा हो चुका होता ।

कहने का निचोड यह है कि आज हमे अगर अपनी वर्तमान युवा पीढी को भविष्य के लिये सक्षम बनाना है तो हमे इन बातों पर गौर करना ही होगा,औरसरकार तथा संचार माध्यमों को भी इसमे सकारात्मक भूमिका निभानी होगी, सिर्फ़ बच्चे पर पढाई का दबाब और स्कूल प्रशासन की खामियों का रोना रोकर हम अपने युवा वर्ग को अत्यधिक विलासी बनाकर अपने देश के लिये भविष्य मे वही मुसीबत खडी करने जा रहे है, जिससे आज अमेरिका और कुछ युरोपीय देश जूझ रहे है। आज जरुरत है, अनिवार्य रूप से इनके शारिरिक ढांचे को सक्षम बनाने के लिये हर सम्भव प्रयास करना, क्योंकि स्वस्थ शरीर मे ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है ।

Saturday, January 30, 2010

भला मानुष !

भला आदमी न कोई मुझे कह सका,
मैं भला मानुष बनकर न रह सका,
सच कहने की ऐसी मुई आदत थी
कि झूठ के जज्बातों में न बह सका।

वह जो यथार्थ से यहां बहुत दूर था,
वही सुनने को जमाने को मंजूर था,
कृत्रिम वादे ही दिलों को भिगोते है,
मुंए सच तो सारे ही कडवे होते है।

सत्य,साथ तजने को रजामंद न था,
जभी मिथ्या को न संग सह सका,
भला आदमी न कोई मुझे कह सका,
मैं भला मानुष बनकर न रह सका।

सैलाब जब दिल के समंदर का बहा,
बस, जुबाँ ने जो सच था वही कहा ,
फरेबियों के हाथों मैं जब-जब लुटा ,
तब मानस पटल पे ये तूफान उठा।

उजड़ गया सब कुछ ही 'अंधड़' में,
मगर कटु मेरा जमीर न ढह सका,
भला आदमी न कोई मुझे कह सका,
मैं भला मानुष बनकर न रह सका।  

Friday, January 29, 2010

जो कुछ गुल खिलाये थे गए साल ने !

हालत पर मेरी न दिल उनका पसीजा ,
न ही बेसब्र किया उनको व्यग्रकाल ने,
संजोए रखे है  मैंने वो वरक़ -पुंकेसर,
जो कुछ गुल खिलाये थे गए साल ने।  


शरद में थी ठिठुरी वो यादों की गठरी ,
ग्रीष्म में जलाया उसे तपस ज्वाल ने,

संजोए रखे है  मैंने वो वरक़ -पुंकेसर, 
जो कुछ गुल खिलाये थे गए साल ने।  


उन्हें झुरमुटों में मन के छुपाये रखा ,
जो उगले उनके मुँह की लय-ताल ने ,

संजोए रखे है  मैंने वो वरक़ -पुंकेसर, 
जो कुछ गुल खिलाये थे गए साल ने।  


मुग्ध हुआ था मैं कभी खुश्बुओ पर,
मुझे भी परेशां किया था कली काल ने , 

संजोए रखे है तभी वो वरक़ -पुंकेसर, 
जो कुछ गुल खिलाये थे गए साल ने।  

पप्पू कांट डांस साला !

पता नहीं हम हिन्दुस्तानी कब सुधरेंगे , सुधरेंगे भी या नहीं, कोई नहीं जानता ! क्योंकि अगर हममे सुधरने की गुंजाईश होती तो सातवी सदी से दसवी-ग्यारहवी सदी तक , जब सिकंदर, मंगोलों-मुगलों ने हमारे देश पर आक्रमण किया और छद्म तरीके अपनाकर जैचंदो से मदद ली, इस देश में मौजूद तत्कालीन मुख्यमंत्रियों को हारने के लिए, तो अगर हममे गैरत और अक्ल होती तो हमें तभी संभल जाना चाहिए था ! तब नहीं संभले थे तो जब बाबर ने आक्रमण किया तब संभल जाते, तब भी नहीं संभले थे तो जब सोलहवी- सत्रहवी सदी में ईस्ट-इंडिया कंपनी आई थी तभी संभल जाते! तब भी नहीं संभले थे तो १९४७ में जब देश का विभाजन हुआ, तभी संभल जाते! लेकिन नहीं, हमारे पास इतना सोचने के लिए वक्त कहाँ था?

देश में जो ज्वलंत मुद्दे है , महंगाई , बेरोजगारी, दरिद्रता और सबसे ऊपर नेतावो और नौकरशाहों का नित बढ़ता भ्रष्टाचार, उसके बारे में हम लोग शायद एक साथ मिलकर इतना उछलते तो क्या पता हमारी बेशर्म सरकारों को कुछ शर्म आ जाती ! आज सड़क चलते आपकी-हमारी जान हर वक्त खतरे में है, माँ-बहनों की आबरू खतरे में है, लेकिन सरकार के पास हमें सुरक्षा देने के लिए प्रयाप्त साधन नहीं है, धन की कमी है, सुरक्षाबल नहीं है, और दूसरी तरफ इन नेतावो ने अपने और अपने परिवारों की सुरक्षा के लिए तो कमांडो की लम्बी चौड़ी फौज हमारे खून पसीने की कमाई से वसूले गए टैक्स से तैयार कर ही राखी थी अब हमारे पैसे से बने गई अपनी मूर्तियों के लिए भी हमारे ही पैसे से कमांडो दस्ते बनाने जा रहे है ! और हम-आप "हम इसमें भला क्या कर सकते है" कहकर अपना पल्ला झाड रहे है, और सिर्फ तमाशा देख रहे है ! कभी आपने सोचा कि ये इस मानसिकता के गडरिये खुलें आम यह सब करने का साहस कैसे जुटा लेते है ? क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि " भेड़े प्रतिकार नहीं करती " !!!!!!!!!!

Monday, January 25, 2010

सभी मित्रो को गणतंत्र-दिवस की मंगलमय कामना !

हर नागरिक का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने देश और उसके संविधान का सम्मान करे ! लेकिन यह कितनी अजीब बात है कि जिस संविधान निर्माता को अपना आदर्श बताकर कुछ लोग, प्रधानमंत्री की कुर्सी तक को प्राप्त करने के ख्वाब देखते है, वही लोग उसी संविधान निर्माता द्वारा बनाए गए संविधान को आज अपने ठेंगे पर रखे है! खैर, सभी मित्रो को गणतंत्र दिवस की मंगलमय कामना !

Saturday, January 23, 2010

बुर्के में ही रहना है तो बेहतर है वोट मत दो - सुप्रीम कोर्ट

आइये, आज हम सब मिलकर अपने सर्वोच्च न्यायालय की इस बात के लिए जम कर तारीफ़ करे कि उन्होंने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया ! और आगे संकल्प ले कि इन पाषाण युगीन मानसिकता के लोगो को इसी तरह के सबक सिखा कर देश की मुख्य धारा में लाने के प्रयत्न करेंगे ! इन्हें जिस देश में ये रहते है, उस देश के कायदे कानूनों को मानना और उनका अनुसरण करना होगा ! कितनी हास्यास्पद बात है कि एक तरफ तो ये पाषाण युगीन मानसिकता के लोग अपने को गरीब, महंगाई का मारा हुआ, बहुसंख्यको द्वारा दबाया हुआ, कुचला हुआ और न जाने क्या क्या बताता है, और दूसरी तरफ इस तरह के कानूनी दावपेंच और देश के संविधान का मखौल उड़ाने के लिए इसके पास भरपूर पैसा और वक्त है! इस देश को अगर एकजुट रखना है तो फ्रांस की तर्ज पर कुछ ठोस कदम उठाने की आज सख्त जरुरत है ! आइये देखे कि क्या था यह विवाद और क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने ;

सुप्रीम कोर्ट ने कड़े तैवर अपनाते हुए कहा है कि जो मुस्लिम महिलाएँ मतदाता पहचान पत्र के लिए फोटो नही खिंचवाना चाहती या फिर बुर्के में फोटो खिंचवाना चाहती है वह बेहतर है कि वोट ही ना दे!

तमिलनाडु के याचिकाकर्ता एम आजम खान ने अपील की थी कि मुस्लिम महिलाओं के द्वारा मतदाता पहचान पत्र के लिए फोटो खिंचवाने के लिए बुर्का हटाना उचित नहीं है. आजम खान का कहना है कि चुनाव अधिकारियों और पोलिंग एजेंट द्वारा महिलाओं की तस्वीर देखना ठीक नही है!

याचिकाकर्ता एम आजम खान के वकील ने दलील दी कि कुरान में महिलाओं को पर्दे में रहना बताया गया है !

लेकिन यह दलील मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति दीपक वर्मा को रास नहीं आई ! उन्होने कहा कि "यदि आपकी धार्मिक भावनाएं इतनी मजबूत हैं और आप महिलाओं को जनता के सामने नहीं लाना चाहते हो तो उन्हें वोट भी मत डालने दो."सर्वोच्च न्यायालय ने उल्टे सवाल पूछा कि यदि कभी इन महिलाओं को चुनाव लड़ना पड़ा तब क्या करेंगी? तब तो इनके पोस्टर शहर भर में लगेंगे !

Thursday, January 21, 2010

एक देश के अन्दर, कई देश हैं !

बिके हुए न अगर यहाँ    ,
खादी, सफ़ेद- उजले परिवेश होते,
तो आज भला क्यों  फिर,
एक ही देश के अन्दर कई देश  होते।  

सभ्यता-संस्कृति न सिकुड़ती ,
दूर-दराज  के गाँव-द्वारे तक,
देश-प्रेम भावना न सिमटती,
'विविधता में एकता' के नारे तक।  

कुटिल राजनीति के  भेद-भाव  ,
न देते नित नये ठेस होते, 
और क्यों भला फिर आज ,
एक ही देश के अन्दर कई देश  होते। 

रग-रग में पसरा  न ,
लम्बी गुलामियत का खून  होता ,
और न ही देश -गद्दारी का,

जयचन्दो  के सिर चढ़ा जूनून होता।  

मेहनत से संजो के रखे हमने  ,
न ही अंग्रेज-
मुग़लो के अवशेष होते,
तो क्यों भला फिर आज ,
एक ही देश के अन्दर कई देश  होते। 

कॉमन

अब समझा  
कि  क्यों ,
नर-पिचाश  
इंसानो  को  खुद 
ऊपर उठाने के लिए
इतना  "Mad" है ?
क्योंकि
दोनों  का  

अपना -अपना
Hydra* - "Bad" है।



Hydra=क्रेन

Hyderabad

Wednesday, January 20, 2010

एक ख्याल ;

कितनी अजीब सी बात है कि एक तरफ जो इंसान भगवान् के अस्तित्व को सिरे से नकारता है, और उसकी शरण स्वीकार नहीं करता, दूसरी तरफ अमूमन वही इंसान अपने स्वार्थ के लिए दूसरे इंसान की गुलामी करने से जरा भी परहेज नहीं करता !
-पी.सी. गोदियाल

Monday, January 18, 2010

आज का जोक- ए.टी.एम् मशीन !

हम हिन्दुस्तानियों के लिए शायद यह खबर बहुत मामूली सी थी , इसलिए किसी ने इसे तबज्जो देना तो दूर, इस पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा !

और खबर यह थी कि देश की राजधानी से सटे ग्रेटर नोएडा में अपने देश के कुछ भूखे-नंगे, आई-सी-आई-सी-आई बैंक की ए.टी.एम् मशीन ही ले उड़े, जिसके अन्दर बताया जाता है कि ३२ लाख का कैश था ! हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा.....
हैं न जोक मजेदार ! मुझे हंसी उन भूखे-नंगो पर नहीं, वरन बहनजी और मौन सिंह जी के सुशासन पर आ रही है ! मेरा भारत महान !

Saturday, January 16, 2010

हमारे खबरिया चैनल !

आपको भी नही लगता कि ये हमारे खबरिया चैनल दिशाहीनता का शिकार हो गए है! समाचार देने से पहले ये यह नहीं सोचते कि इसका समाज पर क्या प्रभाव पडेगा ! आजकल जिस तरह से ये महाराष्ट्रा और देश के अन्य हिस्सों में कुछ छात्र-छात्रों द्वारा की गयी आत्महत्या की खबरों को बार-बार और बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे है, उसके लिए पढाई के बोझ को टारगेट बना रहे है, वह न सिर्फ निंदनीय है अपितु उससे युवा वर्ग के मस्तिष्क पर एक गहरा दुष्प्रभाव पड़ रहा है! और ऐसा लगता है कि ऐसी खबरे बार-बार, बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने से, उन्हें इसके लिए मानो उकसाया जा रहा हो! अत जनहित में लोगो से यही निवेदन करूंगा कि बच्चो के समक्ष खबरिया चैनलों को देखने से बचे !समाचारों का क्या स्तर होना चाहिए, उसके प्रचार से पहले यह जानना कि देश और जनता पर उसके क्या प्रभाव पड़ सकते है उसका आंकलन करने की किसी के पास भी कोई फुरसत नहीं है ! क्या यही चौथे खम्बे की स्वतंत्रता के मायने है ?इसके लिए सरकार कोई उपाय करेगी, मुझे तो नहीं लगता है !

Thursday, January 14, 2010

झोई-भात !

पिंटी और कृतिका की शादी को हुए अब तकरीबन तीन साल बीत चुके थे। उनके एक सालभर का बेटा भी था। दोनों के अगाध प्रेम, आपसी समझ-विश्वास और तालमेल का ही नतीजा था कि इन तीन सालो में एक बार भी दोनों में कभी ज़रा सी भी आपसी कहासुनी नहीं हुई थी। यूं तो दोनों ही ठंडे दीमाग वाले और बहुत सी चीजो में एक जैसी पसंद रखने वाले थे, और इस बात पर पिंटी बार-बार वह मुहावरा दुहराता भी रहता था कि 'राम मिलाये जोड़ी,एक अन्धा एक कोढ़ी', मगर दोनों के स्वाभाव में इतनी समानता होने के बावजूद भी दोनों ने ही एक-दूसरे से पहले ही यह स्पष्ट कर रखा था कि अगर कभी दोनों में से कोई एक भी गुस्से में हो तो दूसरा जुबान नहीं खोलेगा। बस, यही उनके सफल वैवाहिक जीवन का मूल-मन्त्र था ।

पिंटी को छोटी-छोटी बातो को भूलने की एक बीमारी सी थी । कभी ऑफिस जाने से पहले शेव करना भूल जाता तो कभी दन्त-मंजन करना । और हद तो तब हो जाती, जब कृतिका का उसके ऑफिस के लिए सजाया हुआ लंच बॉक्स वह टेबल पर ही भूल जाता । आज मकर संक्रांति और पोंगल की छुट्टी थी, मगर वह यह भी भूल गया और रोज की भांति सुबह-सबेरे बाथरूम में घुसकर नहा धो लिया, और जब बाथरूम से बाहर निकला तो उसे अचानक याद आया कि वह नहा तो लिया किन्तु दंत मंजन करना भूल गया है । फिर अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में उसने आवाज निकाली 'शिट यार', बाथरूम के एकदम सामने रसोई में मौजूद कृतिका ने यह जानते हुए भी, कि वह जरूर कुछ भूल गया होगा, उससे पुछा, अब क्या हुआ । पिंटी ने उसके सवाल का सीधा जबाब न देते हुए कहा, मैं भी न यार, एक नंबर का गधा हूँ । कृतिका तपाक से चुटकी लेते हुए बोली, चलो शुक्र है भगवान् का कि तुम्हे पता तो चला, मैं तो उसी दिन समझ गयी थी, जब शादी की बेदी में मेरे आगे पीछे रेंग रहे थे।


पिंटी उसकी बात सुन थोडा हंसा और फिर उसी अंदाज में उसकी चुटकी का जबाब देते हुए बोला , मुझे मालूम है यार कि तुम्हे अपनी नश्ल को पहचानने की पूरी महारत हासिल है । ब्रश करने के बाद जब वह फिर बाथरूम से बाहर निकला और तो बैठक में लगी दीवार घड़ी की ओर नजर दौडाते हुए बोला, कीर्ति ( वह कृतिका को इसी नाम से पुकारता था) जल्दी लगा नाश्ता यार, टाइम हो गया । कृतिका को पहले से मालूम था कि आज छुट्टी है किन्तु वह अब तक जानबूझकर चुप थी, क्योंकि अगर पिंटी को मालूम पड़ जाता कि आज पोंगल की छुट्टी है तो वह दस बजे से पहले बिस्तर से खडा नहीं उठता। कृतिका ने पूछा, कहाँ की देर हो रही है, कहाँ जावोगे? पिंटी की समझ में कृतिका के सवाल का खुद व खुद जबाब आ गया था और उसने हाथो से माथा पीटते हुए कृतिका से शिकायती लहजे में कहा, अबे यार, तूने बताया क्यों नहीं कि आज छुट्टी है । कृतिका ने चेहरे पर हंसी बिखेरते हुए उंगलियों से उसके गालो को खींचते हुए कहा, जानू, अगर बता देती तो फिर मुझे नाश्ते के लिए भी १०-११ बजे तक इन्तजार करना पड़ता न।

पिंटी यह बड़बढाते हुए कि आजकल की इन सती-सावित्रियों को तो पति की जरा सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती, नाश्ते की टेबल पर बैठ गया। कृतिका ने मूली के पराँठे बनाए थे, जो अक्सर वह छुट्टी के दिन नाश्ते में बनाती थी, पराठे और दही की कटोरी पिंटी के सामने रखते हुए उसने फिर व्यंग्य कसा, गुस्सा छोडिये और नाश्ते का लुफ्त लीजिये, मेरे सत्यवान । फिर काफी देर तक नाश्ते की टेबल पर ही उनका हंसी मजाक चलता रहा था और फिर दोनों टीवी देखने लगे थे। ग्यारह बजे के करीब कृतिका ने पिंटी से पूछा कि लंच में क्या बनाऊ ? पिंटी ने कहा, यार बहुत दिनों से कढ़ी नहीं खायी, मैं दूकान से दही लेकर आता हूँ, आज कढ़ी-चावल बनावो, हाँ कड़ी में घीया-बेसन का पकोडा डालना मत भूलना। पिंटी का इतना कहना था कि कृतिका सहसा उदास हो गयी और उसके गालो पर आंसू रेंगने लगे । पिंटी ने उसके गालो पर से आंसू फोंझते हुए पूछा कि क्या हुआ? कृतिका बिना कुछ कहे फफककर रो पडी ।

कुछ देर बाद माहौल जब शांत हुआ तो उसने पिंटी को बताया कि आज उसकी ठुलैईजा/जेठ्जा( अर्थात ताई जी) की पहली बरसी है । ठुलैईजा कृतिका को और कृतिका ठुलैईजा को बहुत प्यार करते थे। दोनों को झोई-भात (कढ़ी-चावल, कुमाऊ में कढ़ी को झोई कहा जाता है ) बहुत पसंद थी। और जब कभी भी घर में कोई स्पेशल खाना बनाने की बात चलती थी तो कृतिका की जुबान से जब कढ़ी-चावल शब्द निकलता था, तो ईजा (माँ) उसे बुरा-भला कहते हुए कहती कि यह कमवक्त तो एकदम अपनी ठुलैईजा(ताई जी) पर गयी है । इस कढ़ी शब्द पर भी घर में एक बहुत बड़ी समस्या थी। कृतिका का परिवार एक संयुक्त परिवार था, परिवार जब भी छुट्टियों में उत्तरांचल की पहाडियों में बसे कुमाऊ क्षेत्र में, अपने गाँव जाता था, तो कृतिका की माँ (ईजा) और ताई जी ( ठुलैईजा) के लिए चुलबुली कृतिका को संभालना मुश्किल हो जाता था। वह जब खाते वक्त जिद करती तो जोर-जोर से चिल्लाने लगती कि मुझे कड़ी-भात चाहिए । दरहसल कुमाऊं में कढ़ी को 'झोई' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वहाँ पर कढ़ी शब्द को एक गंदे शब्द के तौर पर देखा जाता है।

ठुलैईजा उस जमाने की पांचवी कक्षा तक पढी एक समझदार महिला थी, उनका जन्म और लालन-पालन तो गढ़वाल क्षेत्र में हुआ था, कितु उनका विवाह उनके माता-पिता ने कुमाऊ में कर दिया था। घर गाँव की भरी महफिल के बीच जब १०-१२ साल की कृतिका कढ़ी,कढ़ी चीखती तो ठुलैईजा, सिर में धोती का पल्लू खींचकर,दांतों के बाहर लम्बी जीभ निकालकर, उसे आँखे दिखाते हुए, हे पातर कहकर झट से उसका मुह दबा देती । लेकिन कृतिका को कैसे समझाए कि कड़ी शब्द को लोग यहाँ पर किस तरह लेते है, वह उसे बस इतना कहती कि 'झोई' बोल, 'झोई'!

और अब जब कृतिका को भाषा का अंतर समझ में आया तो तब तक वह बड़ी हो चुकी थी, परिवार उसकी सगाई के लिए गाँव आया हुआ था। कृतिका ने ही रसोई संभाली थी, जैबा / ठुल्बा(बड़े पापा / ताऊ) की मौत के बाद से ठुलैईजा की तबियत भी ठीक नहीं चल रही थी । अतः एक दिन जब कडाके की ठण्ड में दोपहर के वक्त भोजन में कृतिका ने कढ़ी बनायी थी तो वह एक बड़ा कटोरा कढ़ी का लेकर ठुलैईजा के कमरे में गयी थी, और सिर पर चुनरी ओढे कृतिका ने जब मुस्कुराते हुए कढ़ी का कटोरा ठुलैईजा की चारपाई के पास रखते हुए ठुलैईजा से कहा था कि :"ईजू झोई" , गरम-गरम एक कटोरी पी ले, तो ठुलैईजा ने पहली बार उसके मुह से 'झोई' शब्द सुनते हुए उसे अपने सीने से चिपका लिया था, और कहा था कि अब मेरी चेली ( बेटी ) ज्वान (बड़ी) हो गयी है ।


शादी के बाद कृतिका को पता चला था कि गाँव में कुछ समय से ईजा और ठुलैईजा के बीच तनातनी चल रही थी । ईजा बात-बात पर बीमार ठुलैईजा को ताने देती रहती थी। कृतिका ने कई बार अपने ढंग से ईजा को समझाने की कोशिश भी की थी, लेकिन ईजा ने कृतिका को यह कह कर झिड़क दिया था कि तू ठुलैईजा का ज्यादा पक्ष मत लिया कर। कृतिका यह सुनकर चुप रह गयी थी, वह उस दौरान ससुराल और मायके, दोनों तरफ से दुखी थी। ससुराल की तरफ से इसलिए कि वह गाँव की महिलावो को मुफ्त शिक्षा और सिलाई बुनाई की ट्रेनिंग देती थी और ससुराल वालो को इस बात का गम था कि वह उनके बेटे की कमाई इस तरह से उड़ा रही है। कृतिका ने ठुलैईजा को भी अपना दुखडा सुनाकर उसे भी समझाने की कोशिश की, कि वह ईजा की बातो का बुरा न माने, किन्तु ज्यादा असर नहीं हुआ ।

पिछले साल चौदह जनवरी को अचानक जब गाँव से फोन आया कि ठुलैईजा गाँव की औरतो के साथ मकर संक्रांति के दिन स्नान के लिए पास की एक नदी में गयी थी, तो पैर फिसल जाने से डूब गयी और उसकी मृत्यु हो गयी, यह खबर मिलने पर कृतिका एकदम टूटकर रह गयी थी। यह पिंटी का ही प्यार था कि धीरे-धीरे कृतिका उस सदमे को भुला सकी,जिसे लोग दुर्घटना समझ रहे थे, वह महज आत्महत्या थी, जिसे समझदार ठुलैईजा ने इस तरह से अंजाम दिया था कि ताकि लोग इसे दुर्घटना समझे। यह बात सिर्फ कृतिका को मालूम थी, क्योंकि उनकी मृत्यु के तीन दिन बाद ही कृतिका को ठुलैईजा का लिखा वह पत्र मिला था, जिसे ठुलैईजा ने पहाडी भाषा में लिखा था और लिखा था;

चेली(बेटी) ,मुझे क्षमा करना, अब और चल पाने की हिम्मत मुझमे नहीं रह गयी है, बेटी, दूसरो के प्रति उदारता का फल इंसान को अवश्य मिलता है। मैं तुझे देखती रहती थी, तुझे पढने की हमेशा कोशिश करती रहती थी । दया, करुणा, सहानुभूति तुम्हारी शक्ति है , अपने उस पक्ष को एक अभिव्यक्ति देने में कोई बुराई नहीं है, लोग यहाँ अभी इतने समझदार नहीं हुए कि इस प्रकार के भाव की सराहना कर सके, तुम अपना अच्छा काम जारी रखना।
तुम्हारी ठुलैईजा,

कृतिका नम आँखों से रसोई में इत्मीनान से चांवल-कढ़ी पका रही थी और सोच रही थी कि वह आज एक पूडी पर झोई-भात अपने छत की मुंडेर पर अपनी ठुलैईजा के लिए भी रखेगी। उसे मायके से खबर मिली थी कि ठुलैईजा की पहली बरसी पर उसके परिवार वालो ने हफ्ते भर की धार्मिक पूजा-अनुष्ठान और पूरे गाँव के लिए पितृ-भोज की व्यवस्था की थी। उसे भी परिवार वालो ने आने को आमंत्रित किया था, किन्तु वह चाहकर भी नहीं जाना चाहती थी । वह सोच रही थी कि इंसान कितना स्वार्थी और मूर्ख होता है । एक व्यक्ति को तो उसके जीते जी मार देते है और फिर दुनिया के दिखावे के लिए यह सब ढ़कोसलेबाजी करने पर उतर आते है ।


यह कहानी तब लिखी थी जब कोई पाठक नहीं था, अब कुछ लोग मेरा ब्लॉग पढ़ते है और चूँकि इस कहानी का एक हिस्सा मेरे लिए भी अहम् है इसलिए अपने सुधि पाठको के लिए यह कहानी दुबारा ब्लॉग पर डाली है ! -गोदियाल

Wednesday, January 13, 2010

अगर संविधान में ऐसा प्रावधान हो जाए तो....?

इस महान लोकतंत्र के सभी जागरूक मतदाता यह तो जानते ही होंगे कि अपने मत का प्रयोग कर, हम लोग इस देश की सत्ता का हकदार और अपना भाग्य विधाता चुनते है ! जो चुनकर जाता है वह जनता का प्रतिनिधि, जनता की आवाज , जनता का सेवक और पता नहीं क्या-क्या होता है! लेकिन अगर जनता का नुमाइंदा रहने के दौरान या फिर चुने जाने से पहले किसी आपराधिक मामले जैसे कि ह्त्या, लूट, चोरी, भ्रष्टाचार इत्यादि मामलो में, किसी न्यायलय द्वारा उसे दोषी करार दिया जाता है, और फांसी की सजा सुनाई जाती है, तो चूँकि वह किसी ख़ास इलाके की जनता द्वारा अपना प्रतिनिधि चुना गया है, अत: जो सजा उसे मिली हो, वह उन मतदाताओं को भी दी जाए जिन्होंने उसे वोट देकर जिताया, क्योंकि वह तो हर वक्त यही कह रहा होता है कि वह इस देश की जनता का प्रतिनिधि है!जब प्रतिनिधि की आवाज को जनता की आवाज तथा प्रतिनिधि की मांग जनता की मांग मानी जाती है तो प्रतिनिधि के कृत्य जनता के कृत्य क्यों नहीं माने जा सकते ?

उन मतदाताओं की पहचान करने के लिए जिन्होंने उसे वोट दिया, मतदान मशीनों पर कम्प्युटरीकृत तरीके से वोटरों की पहचान सुरक्षित रखी जा सकती है! तब कितना मजा आयेगा न, जब मान लो किसी नेता को फांसी की सजा हो जाती है ( वो बात और है कि हमारे न्यायालय नेताओ को ऐसी सजा देते नहीं ) और उसको जिन पचास हजार मतदाताओं ने वोट दिया था, उन्हें भी उसके साथ-साथ फांसी के तख्ते पर लटका दिया जा रहा हो ? शायद तभी इस देश की राजनीति और दूषित होने से बच सकती है !

अब एक सवाल: एक अर्थशास्त्री होने का खिताब कहाँ से मिलता है ? यह मैं इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि हमारी सरकारों में इतने तथाकथित अर्थशास्त्री बैठे है, और अन्य राज्यों की तो मैं नहीं जानता मगर जब से ये अरहर की दाल का रोना शुरू हुआ तब से दिल्ली सरकार अखबारों और मीडिया में मटर की दाल (जिसे कोई भी खाना पसंद नहीं करता ) खाने की लोगो को सलाह देने के लिए करोडो रूपये विज्ञापन पर खर्च कर चुकी ! अगर इस सरकारी धन को गरीब लोगो को अरहर की दाल की कीमतों में सब्सिडी के तौर पर खर्च कर लिया जाता तो इनका क्या बिगड़ जाता ?

आपके दिमाग की प्रोग्रामिंग ही गड़बड़ हो तो ...?

आप में से बहुत से लोग इस बारे में पहले से ही जानते होंगे, मगर जो इस बारे में सचमुच में नहीं जानते, उनसे मेरा आग्रह है कि यह करके देखिये आपको पता चल जाएगा ;
अभी आप टेबल के समीप कुर्सी पर बैठ अपने कंप्यूटर पर चटर-पटर कर रहे हैं न ? अब ज़रा अपनी कुर्सी को बैठे-बैठे टेबल से थोड़ा दूर खिसकाइए ! कुर्सी अथवा स्टूल पर बैठे-बैठे अपने दाहिने पैर को थोड़ा ऊपर हवा में उठाइये, अब उसे घड़ी की दिशा में गोल-गोल घुमाइए (CLOCKWISE CIRCLES) ! ऐसा करते रहिये और साथ ही दाहिने हाथ की उंगली से हवा में बार बार सिक्स(6) बनाइये ! अब देखिये कि आपका दिमाग आपके घड़ी की दिशा में गोल-गोल घूमते पैर के निर्देशों को सही तरीके से FOLLOW कर रहा है अथवा नहीं !

आप ज़रा यह करके तो देखिये, पता चल जाएगा...............हैं न प्रोग्राम्मिंग में गड़बड़ी ? :) )

Tuesday, January 12, 2010

क्या ख़ाक गंभीर लेखन-चिंतन करे ?

रातोरात अमीर बन जाने के लिए "मधु कोड़ा" प्रजाति के तमाम सफ़ेद पोश देश को बेच डालने की फिराक में है! आरक्षण और डोनेशन की कृपा से पैदा हुए इंजिनीयर ऐसे ढांचागत निर्माण खड़े कर रहे है जो बनने से पहले ही टूट जा रहे है! सड़के है नहीं और देश में नित नयी कार के मॉडल आ रहे है, घर में खाने को भले ही आटा न हो, सड़क पर चलने की जगह न मिले, लेकिन लोग घर बाहर लोन लेकर कार जरूर खडी कर रहे है! हर तरफ कुशासन, अराजकता, बेरोजगारी, महंगाई , भुखमरी, भ्रष्टाचार और ऊपर से घटती कृषी योग्य भूमि और तेजी से फैलता कंक्रीट के जंगलो का सैलाब ! किसी की कोई जबाबदेही नहीं, सब कुछ छिन्न-भिन्न!

कृषि  योग्य भूमि और खाद्यान उत्पादन निरंतर घट रहा है, बढ़ती जनसंख्या जब महंगाई से त्रस्त होकर अपनी आवाज उठाने की कोशिश करती है तो बार-बार १०% विकास दर का झुनझुना देश के प्रधानमंत्री जी लोगो के कानो में बजा डालते है ! मगर देश की यह दुर्दशा क्यों हो रही है कोई देखने वाला नहीं ! अपने देश में कारखानों को बिजली नहीं मिलती, इसलिए देश नित विदेशी सामान पर निर्भर होता जा रहा है! जहाँ देश में खाद्यान्न "आत्म निर्भरता" का श्रेय शास्त्री जी को जाता है, वहीं अब लगता है कि देश की खाद्यान्न "आयात निर्भरता" का मुकुट मनमोहन सिंह जी पहनेगे !

मेरे जैसा इंसान बस यही सोच दिल को तसल्ली देता है कि
पंछी फिर लेंगे हवाइयाँ गगन में,
फिर उडेंगी पुरवाइयाँ वन-वन में,
फूलों से लहलहाते फिर खेत होंगे, 
ख्वाइशें लेगी अंगडाइयां मन में !

मगर वह है कि उसे इन बातों पर अब ज़रा भी भरोंसा  नहीं रहा और
एक दौर था जब उनकी ख्वाइशे हम, हर हाल में पूरी करते थे,
मगर आजकल तो वो भी हमसे ज्यादा, खुदा से मांगने लगे है !

Monday, January 11, 2010

समझदार पत्नी !

एक बार एक पहाडी गाँव के नए-नए बने एक गरीब प्रधान जी के घर पर मेहमान को कुछ देर ठहरने का सौभाग्य मिला तो उनकी धर्म- पत्नी की बुद्धिमता की प्रशंसा किये बगैर नहीं रह सका ! आइये आपको भी सुनाते है ! प्रधान जी को चावल का गरम-गरम मांड पीने का शौक था! उनकी धर्मपत्नी ने चावल अभी चूल्हे में रखे ही थे कि हम यानी मेहमान टपक गए ! बाहर प्रधान जी मेहमानों के साथ गपो में व्यस्त थे ! उनकी पत्नी ने उबलते चावलों में से मांड निकाल कर एक गिलास में उनके लिए रख दिया था! लेकिन अब प्रश्न प्रधान जी की नाक का था कि कहीं मेहमानों के सामने मांड उन्हें पीने को देकर नाक न कट जाए ! लेकिन मांड भी ठंडा हो रहा था, ठन्डे मांड से प्रधान जी भी उस पर गुस्सा कर देंगे! अब क्या करे? अत: कुछ देर इन्तजार करने के बाद अन्दर किचन से उसने जोर से गाने के से अंदाज में बोला " धान सिंह का बेटा मांड सिंह , पीना है तो आओ नहीं तो शीतलपुर को जाता है" !

बस प्रधान जी समझ गए, और "आप बैठिये मैं अभी आया" कहकर मांड पीने चले गए !

Thursday, January 7, 2010

बिल्डिंग रिलेशनशिप्स !

आज भोर पर जब 
मैं घर से बाहर आया ,
तो देखा कि 

चहु ओर घना कुहरा  है छाया !

तभी मुझे नजर आया  

गली में सामने से पड़ोसी मिश्रा जी 
इधर से उधर आ रहे थे,
अपनी बिल्डिंग 
से
पड़ोसन की बिल्डिंग को लाल धागे से 
बार-बार बांधे जा रहे थे !

कौतुहलबश 

मैंने भी हिला दिए अपने लिप्स !
जबाब में वे बोले कि 

उनके राशिफल में लिखा है;
"दिस इज अ गुड डे फॉर बिल्डिंग रिलेशनशिप्स" !!.

Tuesday, January 5, 2010

मिक्स्ड राशिफल !

लेखन का कतई मूड तो नहीं था, किन्तु कल के अपने ब्लॉग पर दिए एक सुझाव पर प्राप्त टिप्पणियों से यह जानकर प्रसन्नता हुई कि हमारे अधिकाँश शीर्षस्थ ब्लॉगर मित्रो ने आंग्लभाषा को हिन्दी भाषा के एक पूरक के रूप में अपनी मान्यता दे दी है ! अत: मुझे भी एक खुरापात सूझ गई ! लीजिये अब आप ही झेलिये ;
आज अखबार में खुद का राशि भविष्यफल पढ़कर, 

खून बढ़ गया एक औंस !
चूँकि लिखा था, 

"देयर इज अ पोसिबिलिटी ऑफ़ गेटिंग अ पोजेटिव रेस्पोंस...... !!"

भविष्यफल को पढ़ते-पढ़ते 

अचानक अति उत्साहित हो गया था मै भी !
मुझे ख़याल नहीं रहा कि 

माय वाइफ इज आल्सो सिटिंग इन फ्रंट आफ मी....!!

तब ऊँचे स्वर में पढ़े गए भविष्यफल को सुनकर, 

तन गए उसके आइ ब्रू !
जब सुना उसने कि, 

अ पेंडिंग रिलेसनशिप डील विद यौर गर्ल फ्रेंड कुड कम थ्रू...!!

मगर आखिर में यह सुनकर, 

हंस पडी मुझ पर जोर से सामने बैठी स्त्रीलिंग !
जब आगे लिखा पढ़ा मैने, 

"मिक्सिंग गर्ल फ्रेंड विद फेमली टाइम विल स्पोयेल ऐवरीथिंग.....!!"

Monday, January 4, 2010

ब्लॉग,ब्लॉगर, ब्लॉगरी.... ?????

अंग्रेजो की हम हिन्दुस्तानियों पर यही तो थी सबसे बड़ी और अमिट छाप, जिसे हम अपने ऊपर से विम्बार और निरमा से रगड़-रगड़ कर धोने के बावजूद भी नहीं मिटा सके ! जब-तब इन्ही की शब्दावली के जाल में हम इसकदर उलझ जाते है कि 'ब्लॉगर' शब्द स्त्रीलिंग है अथवा पुल्लिंग, इसी बात पर एक दूसरे को धो डालने की धमकी तक दे देते है!

खैर, अफ़सोस इन मेरे जैसे नौसेखिये साहित्यकारों पर नहीं होता, अफ़सोस होता है उन अपने अनुभवी साहित्यकारों पर, उनके द्वारा बनायी गई 'अंतरजाल- मुकामों' पर, जिन्हें वे ब्लॉग के हिन्दी अर्थो में एक सही नाम भी नहीं दे पाए !

मै समझता हूँ कि ब्लॉग का सही हिन्दी रूपांतरण है "अन्तर्द्वन्द्व" ! ब्लॉग पर कोई भी लेखक अथवा रचनाकार जो अपने मन-मस्तिष्क के उदगारों अथवा उचावो को बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करता है! वह उसका "अन्तर्द्वन्द्व" (ब्लॉग) है ! इस अंतर्द्वंद्व को बाहर निकाल, अपनी लेखनी से जो उसे लेखबद्ध करता है उसे "अन्तर्द्वन्द्वकार" और जो कुछ लेखबद्ध हुआ उसे "अंतर्द्वन्द्विता " कहा जाना ही उचित होगा ! तो आइये, मैं आप सभी अंतर्द्वन्द्कार मित्रो का आह्वान करता हूँ कि इस नववर्ष में आज से ही ब्लॉग,ब्लॉगर, ब्लॉगरी के स्थान पर अन्तर्द्वन्द्व. अन्तर्द्वन्द्वकार, अंतर्द्वन्द्विता शब्दों का इस्तेमाल करना शुरू करे !

अपने सुधि पाठको और मित्रों से दो बाते और कहना चाहता हूँ, एक तो यह कि कुछ दिनों से मानसिक तौर पर अस्वस्थ चल रहा हूँ, अत: जाने अनजाने कहीं कुछ गलत कह दिया हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ ! और दूसरे यह कि नियमित लेखन को कुछ हद तक फिलहाल सीमित कर रहा हूँ, कभी फिर वसंत लौटा तो नियमित लिखना फिर से शुरू करूंगा ! साथ ही हाँ, चूँकि हमारे ब्लोग्बाणी और चिठ्ठाजगत पर पाठको की सर्वथा कमी रहती है, इसलिए मैं लेखन की क्रिया को कम करके आपके "अंतर्द्वंदों" का एक नियमित पाठक बनने की कोशिश कर रहा हूँ !
साभार,
गोदियाल

Saturday, January 2, 2010

पापों को धोने की ठान ही ली है तो ज़रा सावधानी से !

आज हरिद्वार कुम्भ के बाबत एक लम्बी-चौड़ी पोस्ट लिखी थी, लेकिन वह Google Transliteration की भेंट चढ़ गई ! अब दोबारा लिखने का मूड नहीं ! बस पाठको से संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि १३ जनवरी से शुरू हो रहे कुम्भ में जाने का प्लान अगर आप बना रहे है तो कृपया;
१. रेल से यात्रा को प्राथमिकता दे !
२.सड़क मार्ग का उपयोग करना जरूरी हो तो सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करे !
३. रात के समय सड़क मार्ग से यात्रा से परहेज करे !
४. यदि अपना वाहन ले जाना मजबूरी हो तो सिर्फ दिन में ही चले !
५. बच्चे साथ में हो तो खाने -पीने का प्रयाप्त इंतजाम अपने पास रखे !
६.अधिक सामान न ले जाये, क्योंकि वाहनों को हरिद्वार के बाहर ही रोका जा सकता है , लेकिन ऊनी वस्त्र अवश्य साथ रखे !
७. सफ़र में देर हो जाए तो हरिद्वार से पहले जो भी शहर या कस्बे पड़ते है, रात वहाँ गुजारे, क्योंकि हरिद्वार में होटलों की किल्लत रहेगी !

मेरठ बाईपास से मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे तक सड़क चौडीकरण का काम पिछले सात सालो से केंद्र सरकार, उत्तरप्रदेश सरकार और एनएचएआई की मेहरबानी से निर्माणाधीन है,(ज्यों की त्यों ) और सड़क बहुत खतरनाक है ! कहाँ घंटो जाम में फंसा रहना पड़ जाये, नहीं मालूम ! सडको पर घना कुहरा, जहां-तहां गन्ने से लदे ट्रैक्टर और बग्गियाँ, ट्रको की भारी आवाजाही, सडको पर वाहनों की संख्या में भारी वृद्धि, ऊँची-नीची सड़क, लोगो में सेन्स की कमी इत्यादि समस्याओ से जूझना पड़ सकता है , अत: वाहन गति सीमा ७०-७५ से ऊपर न बढाए ! मैं अभी पिछले हफ्ते उस मार्ग( दिल्ली-हरिद्वार) से गुजरा हूँ, इसलिए आपको अपने अनुभवों से परिचित करवा रहा हूँ !

आपकी यात्रा मंगलमय हो, यही मेरी शुभकामनाये है !

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...