Saturday, January 16, 2010

हमारे खबरिया चैनल !

आपको भी नही लगता कि ये हमारे खबरिया चैनल दिशाहीनता का शिकार हो गए है! समाचार देने से पहले ये यह नहीं सोचते कि इसका समाज पर क्या प्रभाव पडेगा ! आजकल जिस तरह से ये महाराष्ट्रा और देश के अन्य हिस्सों में कुछ छात्र-छात्रों द्वारा की गयी आत्महत्या की खबरों को बार-बार और बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे है, उसके लिए पढाई के बोझ को टारगेट बना रहे है, वह न सिर्फ निंदनीय है अपितु उससे युवा वर्ग के मस्तिष्क पर एक गहरा दुष्प्रभाव पड़ रहा है! और ऐसा लगता है कि ऐसी खबरे बार-बार, बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने से, उन्हें इसके लिए मानो उकसाया जा रहा हो! अत जनहित में लोगो से यही निवेदन करूंगा कि बच्चो के समक्ष खबरिया चैनलों को देखने से बचे !समाचारों का क्या स्तर होना चाहिए, उसके प्रचार से पहले यह जानना कि देश और जनता पर उसके क्या प्रभाव पड़ सकते है उसका आंकलन करने की किसी के पास भी कोई फुरसत नहीं है ! क्या यही चौथे खम्बे की स्वतंत्रता के मायने है ?इसके लिए सरकार कोई उपाय करेगी, मुझे तो नहीं लगता है !

14 comments:

  1. क्‍या आप बताएंगे कि किस क्षेत्र में देश हित का मुद्दा बना हुआ है आज ??

    ReplyDelete
  2. बहुत बड़ा सवाल संगीता जी !

    ReplyDelete
  3. संगीता जी वाला सवाल मेरा भी है, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है, कम से कम TRP और सनसनी के भूखे भेड़ियों के पास तो बिलकुल नहीं…

    ReplyDelete
  4. सरकार कुछ करने की सोच भी नहीं सकती...हम ही पीछे पड़ जायेंगे कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है...हमें खुद ही निर्णय लेकर ऐसे चैनलों का बहिष्कार करना चाहिए...मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि,"यह copy cat syndrome है" कम से कम उनका कोई संगठन ही आवाज़ उठाये कि बार बार यही समाचार दिखलाना ठीक नहीं.

    ReplyDelete
  5. हम तो ओकता कर देखना छोड़ दिए हैं... जल्द ही मुहीम शुरू करेंगे... कमबख्त महंगाई से तो पहले निपट लें....

    ReplyDelete
  6. गोदियाल साहब, एक बात नोट कर लीजये

    आज कम से कम क्रिकेट, आपबीती (घटना कट पेस्ट वाली), और समाचार टेलीविजन पर देखना मतलब आप टाइम पास, हास्य और मनोरंजन के लिए देख रहे हैं...

    रेडियो सस्ता और काम की चीज़ है....(सही समाचार के मामले में)

    ReplyDelete
  7. आज आपने दुखते रग पर हाथ रखा है....

    "हमारे खबरिया चैनल ".. ये जिस दिन मर्यादित और जिम्मेदार हो जायेंगे समझिये तमाम समस्याओं का हल मिलने लगेगा.. इस समूह में मैं कुछ और माध्यमों को भी दोषी मानता हूँ...

    जब बच्चे और घर के अन्य सदस्य लाइब्ररी नहीं जा सकते तो क्या ये टी.वी. वाले "साहित्यिक, ऐतिहासिक, भोगोलिक और अन्य ज्ञानवर्धक विषयों को आकर्षक और रुचिकर बनाकर रोज सुबह शाम प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं...?"

    आज के समय में टेलीविजन, विभिन्न पत्र पत्रिकाएं और फिल्म-सीरियल...मेरा मतलब मीडिया ही समाज का दर्पण है और इसका ड्राईवर भी... चाहे अंधेर गर्त में ले जाए या उन्नत मार्ग पर...

    ReplyDelete
  8. desh hit , samaj hit ki baatein hum sabhi karte hain magar asal mudde ko darkinar kar dete hain.........shayad usi ka fayada media ho ya doosre rashtra ya koi aur sabhi utha rahe hain.

    ReplyDelete
  9. गोदियाल जी एक बात साफ़ कर दें तो आपका आभारी रहूँगा...पिछले १५ दिनों में अकेले मुंबई और ठाणे में २४ छात्रों ने आत्महत्या की है और ९० फीसदी छात्रों के माता पिता ने इसकी वजह पढाई का डर ही माना है...अब बताएं इसमें मीडिया कैसे उन्हें उकसा रहा है और अगर उकसा रहा है तो अन्य बड़े शहरों में जहाँ बच्चे टीवी देखते है वहां क्यों खुदकुशी नहीं हो रही है...

    ReplyDelete
  10. समस्याएँ सारे देश में हैं, महारष्ट्र से भी भयावह पर आत्महत्या महाराष्ट्र के लोग ही क्यों कर रहे हैं? पहले किसान अब छात्र ! शायद सीएसई की बात में दम था.

    ReplyDelete
  11. हमारे खबरिया चैनल जबरिया चैनल हो गए हैं

    ReplyDelete
  12. आदरणीय पाठक साहब,
    आपकी टिपण्णी एक पक्षीय है ! यह सत्य है कि अकेले महाराष्ट्र में आने विद्यार्थियों के आत्म ह्त्या करने की खबरे है , लेकिन क्या मीडिया का कर्तव्य वही पर खत्म हो जाता है जहां पर वे इन खबरों को बढ़ा चड़ा कर पेश कर देते है ? क्या उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि खबर को किस तरह पेश करे ताकि अन्य युवा उसको भावक तरीके से न ले ? महाराष्ट्रा में हाल में तो कोई नै सिक्षा पद्धति लागू नहीं हुई, वह बर्षो से है ! फिर आप बता सकते है कि यह घटनाएं हाल ही में क्यों हुई ? वास्तविकता यह है कि टीवी ने इन बच्चो के दीमाग में जहर भर दिया है ! पढने के नाम पर फिल्मी अंदाज अपनाते है और जब उन्हें हकीकत पता चलती है तो बहुत देर हो जाती है !

    ReplyDelete

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।