खादी, सफ़ेद- उजले परिवेश होते,
तो आज भला क्यों फिर,
एक ही देश के अन्दर कई देश होते।
सभ्यता-संस्कृति न सिकुड़ती ,
दूर-दराज के गाँव-द्वारे तक,
देश-प्रेम भावना न सिमटती,
'विविधता में एकता' के नारे तक।
कुटिल राजनीति के भेद-भाव ,
न देते नित नये ठेस होते,
और क्यों भला फिर आज ,
एक ही देश के अन्दर कई देश होते।
रग-रग में पसरा न ,
लम्बी गुलामियत का खून होता ,
और न ही देश -गद्दारी का,
जयचन्दो के सिर चढ़ा जूनून होता।
मेहनत से संजो के रखे हमने ,
न ही अंग्रेज-मुग़लो के अवशेष होते,
तो क्यों भला फिर आज ,
एक ही देश के अन्दर कई देश होते।
एक ही देश के अन्दर कई देश होते।
भाषाओं व राज्यों से आगे बढ़कर सोच बदलनी होगी अगर भारतीय बनना है तो
ReplyDeleteक्योंकि यहाँ आज कल
ReplyDeleteकिन्नरों का राज है ॥
बाबर को ये सर नवायें
पृथ्वी नज़र अंदाज़ है....
बिके हुए यहाँ सब,
ReplyDeleteखादी, सफ़ेद और उजले परिवेश हैं !
इसीलिये आज भी ,
इस एक देश के अन्दर, कई देश हैं !!
बहुत जबरदस्त गोदियाल जी, शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत सही कहा है इश देश में कई देश है !!!
ReplyDeleteएक देश में असल में भी कई देश हैं। आपकी बात बिल्कुल सही है।
ReplyDeleteयथार्थ उजागर कर दिया इस रचना से...बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteइस एक देश के अन्दर, कई देश हैं !!
ReplyDeleteजी हाँ, रोज़ एक नया समाचार आ रहा है।
बिलकुल सही फरमा रहे है आप ? आज स्थितियां ऐसी ही बन रही हैं
ReplyDeleteमेहनत से संजो के रखे अपने,
ReplyDeleteमुग़ल-अंग्रेज आंकाओ के अवशेष हैं !
इसीलिये आज भी ,
इस एक देश के अन्दर, कई देश हैं !!
आप की रचना के एक एक शब्द से सहमत हुं, बहुत सुंदर
धन्यवाद
देश-प्रेम की भावना रह गई,
ReplyDeleteविविधता में एकता के नारे तक !!
Vah...vah bahi....
Desh anek aur nara ek hai.
is desh me vividhta me ekta hai.
SACH KAHA HAI .... HAM LOGON KO APNI SOCH BADALNI HOGI NAHI TO AAPKI RACHNA SACH HO JAAYEGI ...
ReplyDeleteBAHUT DARD BHARI RACHNA HAI ... DESH MEIN BADLAAV JAROORI HAI AB ....
देश-संस्कृति सिमट गई,
ReplyDeleteदूर-दराज किसी गाँव के द्वारे तक !
देश-प्रेम की भावना रह गई,
विविधता में एकता के नारे तक !!
वर्तमान परिवेश का सुन्दर चित्रण!
क्या ही सुन्दर यथार्थ उकेरा है आपने....अनेकता में एकता यही हमारी पहचान भी है.........मगर कभी कभी यही टीस भी दे जाती है.....
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