पिंटी और कृतिका की शादी को हुए अब तकरीबन तीन साल बीत चुके थे। उनके एक सालभर का बेटा भी था। दोनों के अगाध प्रेम, आपसी समझ-विश्वास और तालमेल का ही नतीजा था कि इन तीन सालो में एक बार भी दोनों में कभी ज़रा सी भी आपसी कहासुनी नहीं हुई थी। यूं तो दोनों ही ठंडे दीमाग वाले और बहुत सी चीजो में एक जैसी पसंद रखने वाले थे, और इस बात पर पिंटी बार-बार वह मुहावरा दुहराता भी रहता था कि 'राम मिलाये जोड़ी,एक अन्धा एक कोढ़ी', मगर दोनों के स्वाभाव में इतनी समानता होने के बावजूद भी दोनों ने ही एक-दूसरे से पहले ही यह स्पष्ट कर रखा था कि अगर कभी दोनों में से कोई एक भी गुस्से में हो तो दूसरा जुबान नहीं खोलेगा। बस, यही उनके सफल वैवाहिक जीवन का मूल-मन्त्र था ।
पिंटी को छोटी-छोटी बातो को भूलने की एक बीमारी सी थी । कभी ऑफिस जाने से पहले शेव करना भूल जाता तो कभी दन्त-मंजन करना । और हद तो तब हो जाती, जब कृतिका का उसके ऑफिस के लिए सजाया हुआ लंच बॉक्स वह टेबल पर ही भूल जाता । आज मकर संक्रांति और पोंगल की छुट्टी थी, मगर वह यह भी भूल गया और रोज की भांति सुबह-सबेरे बाथरूम में घुसकर नहा धो लिया, और जब बाथरूम से बाहर निकला तो उसे अचानक याद आया कि वह नहा तो लिया किन्तु दंत मंजन करना भूल गया है । फिर अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में उसने आवाज निकाली 'शिट यार', बाथरूम के एकदम सामने रसोई में मौजूद कृतिका ने यह जानते हुए भी, कि वह जरूर कुछ भूल गया होगा, उससे पुछा, अब क्या हुआ । पिंटी ने उसके सवाल का सीधा जबाब न देते हुए कहा, मैं भी न यार, एक नंबर का गधा हूँ । कृतिका तपाक से चुटकी लेते हुए बोली, चलो शुक्र है भगवान् का कि तुम्हे पता तो चला, मैं तो उसी दिन समझ गयी थी, जब शादी की बेदी में मेरे आगे पीछे रेंग रहे थे।
पिंटी उसकी बात सुन थोडा हंसा और फिर उसी अंदाज में उसकी चुटकी का जबाब देते हुए बोला , मुझे मालूम है यार कि तुम्हे अपनी नश्ल को पहचानने की पूरी महारत हासिल है । ब्रश करने के बाद जब वह फिर बाथरूम से बाहर निकला और तो बैठक में लगी दीवार घड़ी की ओर नजर दौडाते हुए बोला, कीर्ति ( वह कृतिका को इसी नाम से पुकारता था) जल्दी लगा नाश्ता यार, टाइम हो गया । कृतिका को पहले से मालूम था कि आज छुट्टी है किन्तु वह अब तक जानबूझकर चुप थी, क्योंकि अगर पिंटी को मालूम पड़ जाता कि आज पोंगल की छुट्टी है तो वह दस बजे से पहले बिस्तर से खडा नहीं उठता। कृतिका ने पूछा, कहाँ की देर हो रही है, कहाँ जावोगे? पिंटी की समझ में कृतिका के सवाल का खुद व खुद जबाब आ गया था और उसने हाथो से माथा पीटते हुए कृतिका से शिकायती लहजे में कहा, अबे यार, तूने बताया क्यों नहीं कि आज छुट्टी है । कृतिका ने चेहरे पर हंसी बिखेरते हुए उंगलियों से उसके गालो को खींचते हुए कहा, जानू, अगर बता देती तो फिर मुझे नाश्ते के लिए भी १०-११ बजे तक इन्तजार करना पड़ता न।
पिंटी यह बड़बढाते हुए कि आजकल की इन सती-सावित्रियों को तो पति की जरा सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती, नाश्ते की टेबल पर बैठ गया। कृतिका ने मूली के पराँठे बनाए थे, जो अक्सर वह छुट्टी के दिन नाश्ते में बनाती थी, पराठे और दही की कटोरी पिंटी के सामने रखते हुए उसने फिर व्यंग्य कसा, गुस्सा छोडिये और नाश्ते का लुफ्त लीजिये, मेरे सत्यवान । फिर काफी देर तक नाश्ते की टेबल पर ही उनका हंसी मजाक चलता रहा था और फिर दोनों टीवी देखने लगे थे। ग्यारह बजे के करीब कृतिका ने पिंटी से पूछा कि लंच में क्या बनाऊ ? पिंटी ने कहा, यार बहुत दिनों से कढ़ी नहीं खायी, मैं दूकान से दही लेकर आता हूँ, आज कढ़ी-चावल बनावो, हाँ कड़ी में घीया-बेसन का पकोडा डालना मत भूलना। पिंटी का इतना कहना था कि कृतिका सहसा उदास हो गयी और उसके गालो पर आंसू रेंगने लगे । पिंटी ने उसके गालो पर से आंसू फोंझते हुए पूछा कि क्या हुआ? कृतिका बिना कुछ कहे फफककर रो पडी ।
कुछ देर बाद माहौल जब शांत हुआ तो उसने पिंटी को बताया कि आज उसकी ठुलैईजा/जेठ्जा( अर्थात ताई जी) की पहली बरसी है । ठुलैईजा कृतिका को और कृतिका ठुलैईजा को बहुत प्यार करते थे। दोनों को झोई-भात (कढ़ी-चावल, कुमाऊ में कढ़ी को झोई कहा जाता है ) बहुत पसंद थी। और जब कभी भी घर में कोई स्पेशल खाना बनाने की बात चलती थी तो कृतिका की जुबान से जब कढ़ी-चावल शब्द निकलता था, तो ईजा (माँ) उसे बुरा-भला कहते हुए कहती कि यह कमवक्त तो एकदम अपनी ठुलैईजा(ताई जी) पर गयी है । इस कढ़ी शब्द पर भी घर में एक बहुत बड़ी समस्या थी। कृतिका का परिवार एक संयुक्त परिवार था, परिवार जब भी छुट्टियों में उत्तरांचल की पहाडियों में बसे कुमाऊ क्षेत्र में, अपने गाँव जाता था, तो कृतिका की माँ (ईजा) और ताई जी ( ठुलैईजा) के लिए चुलबुली कृतिका को संभालना मुश्किल हो जाता था। वह जब खाते वक्त जिद करती तो जोर-जोर से चिल्लाने लगती कि मुझे कड़ी-भात चाहिए । दरहसल कुमाऊं में कढ़ी को 'झोई' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वहाँ पर कढ़ी शब्द को एक गंदे शब्द के तौर पर देखा जाता है।
ठुलैईजा उस जमाने की पांचवी कक्षा तक पढी एक समझदार महिला थी, उनका जन्म और लालन-पालन तो गढ़वाल क्षेत्र में हुआ था, कितु उनका विवाह उनके माता-पिता ने कुमाऊ में कर दिया था। घर गाँव की भरी महफिल के बीच जब १०-१२ साल की कृतिका कढ़ी,कढ़ी चीखती तो ठुलैईजा, सिर में धोती का पल्लू खींचकर,दांतों के बाहर लम्बी जीभ निकालकर, उसे आँखे दिखाते हुए, हे पातर कहकर झट से उसका मुह दबा देती । लेकिन कृतिका को कैसे समझाए कि कड़ी शब्द को लोग यहाँ पर किस तरह लेते है, वह उसे बस इतना कहती कि 'झोई' बोल, 'झोई'!
और अब जब कृतिका को भाषा का अंतर समझ में आया तो तब तक वह बड़ी हो चुकी थी, परिवार उसकी सगाई के लिए गाँव आया हुआ था। कृतिका ने ही रसोई संभाली थी, जैबा / ठुल्बा(बड़े पापा / ताऊ) की मौत के बाद से ठुलैईजा की तबियत भी ठीक नहीं चल रही थी । अतः एक दिन जब कडाके की ठण्ड में दोपहर के वक्त भोजन में कृतिका ने कढ़ी बनायी थी तो वह एक बड़ा कटोरा कढ़ी का लेकर ठुलैईजा के कमरे में गयी थी, और सिर पर चुनरी ओढे कृतिका ने जब मुस्कुराते हुए कढ़ी का कटोरा ठुलैईजा की चारपाई के पास रखते हुए ठुलैईजा से कहा था कि :"ईजू झोई" , गरम-गरम एक कटोरी पी ले, तो ठुलैईजा ने पहली बार उसके मुह से 'झोई' शब्द सुनते हुए उसे अपने सीने से चिपका लिया था, और कहा था कि अब मेरी चेली ( बेटी ) ज्वान (बड़ी) हो गयी है ।
शादी के बाद कृतिका को पता चला था कि गाँव में कुछ समय से ईजा और ठुलैईजा के बीच तनातनी चल रही थी । ईजा बात-बात पर बीमार ठुलैईजा को ताने देती रहती थी। कृतिका ने कई बार अपने ढंग से ईजा को समझाने की कोशिश भी की थी, लेकिन ईजा ने कृतिका को यह कह कर झिड़क दिया था कि तू ठुलैईजा का ज्यादा पक्ष मत लिया कर। कृतिका यह सुनकर चुप रह गयी थी, वह उस दौरान ससुराल और मायके, दोनों तरफ से दुखी थी। ससुराल की तरफ से इसलिए कि वह गाँव की महिलावो को मुफ्त शिक्षा और सिलाई बुनाई की ट्रेनिंग देती थी और ससुराल वालो को इस बात का गम था कि वह उनके बेटे की कमाई इस तरह से उड़ा रही है। कृतिका ने ठुलैईजा को भी अपना दुखडा सुनाकर उसे भी समझाने की कोशिश की, कि वह ईजा की बातो का बुरा न माने, किन्तु ज्यादा असर नहीं हुआ ।
पिछले साल चौदह जनवरी को अचानक जब गाँव से फोन आया कि ठुलैईजा गाँव की औरतो के साथ मकर संक्रांति के दिन स्नान के लिए पास की एक नदी में गयी थी, तो पैर फिसल जाने से डूब गयी और उसकी मृत्यु हो गयी, यह खबर मिलने पर कृतिका एकदम टूटकर रह गयी थी। यह पिंटी का ही प्यार था कि धीरे-धीरे कृतिका उस सदमे को भुला सकी,जिसे लोग दुर्घटना समझ रहे थे, वह महज आत्महत्या थी, जिसे समझदार ठुलैईजा ने इस तरह से अंजाम दिया था कि ताकि लोग इसे दुर्घटना समझे। यह बात सिर्फ कृतिका को मालूम थी, क्योंकि उनकी मृत्यु के तीन दिन बाद ही कृतिका को ठुलैईजा का लिखा वह पत्र मिला था, जिसे ठुलैईजा ने पहाडी भाषा में लिखा था और लिखा था;
चेली(बेटी) ,मुझे क्षमा करना, अब और चल पाने की हिम्मत मुझमे नहीं रह गयी है, बेटी, दूसरो के प्रति उदारता का फल इंसान को अवश्य मिलता है। मैं तुझे देखती रहती थी, तुझे पढने की हमेशा कोशिश करती रहती थी । दया, करुणा, सहानुभूति तुम्हारी शक्ति है , अपने उस पक्ष को एक अभिव्यक्ति देने में कोई बुराई नहीं है, लोग यहाँ अभी इतने समझदार नहीं हुए कि इस प्रकार के भाव की सराहना कर सके, तुम अपना अच्छा काम जारी रखना।
तुम्हारी ठुलैईजा,
कृतिका नम आँखों से रसोई में इत्मीनान से चांवल-कढ़ी पका रही थी और सोच रही थी कि वह आज एक पूडी पर झोई-भात अपने छत की मुंडेर पर अपनी ठुलैईजा के लिए भी रखेगी। उसे मायके से खबर मिली थी कि ठुलैईजा की पहली बरसी पर उसके परिवार वालो ने हफ्ते भर की धार्मिक पूजा-अनुष्ठान और पूरे गाँव के लिए पितृ-भोज की व्यवस्था की थी। उसे भी परिवार वालो ने आने को आमंत्रित किया था, किन्तु वह चाहकर भी नहीं जाना चाहती थी । वह सोच रही थी कि इंसान कितना स्वार्थी और मूर्ख होता है । एक व्यक्ति को तो उसके जीते जी मार देते है और फिर दुनिया के दिखावे के लिए यह सब ढ़कोसलेबाजी करने पर उतर आते है ।
यह कहानी तब लिखी थी जब कोई पाठक नहीं था, अब कुछ लोग मेरा ब्लॉग पढ़ते है और चूँकि इस कहानी का एक हिस्सा मेरे लिए भी अहम् है इसलिए अपने सुधि पाठको के लिए यह कहानी दुबारा ब्लॉग पर डाली है ! -गोदियाल
पिंटी को छोटी-छोटी बातो को भूलने की एक बीमारी सी थी । कभी ऑफिस जाने से पहले शेव करना भूल जाता तो कभी दन्त-मंजन करना । और हद तो तब हो जाती, जब कृतिका का उसके ऑफिस के लिए सजाया हुआ लंच बॉक्स वह टेबल पर ही भूल जाता । आज मकर संक्रांति और पोंगल की छुट्टी थी, मगर वह यह भी भूल गया और रोज की भांति सुबह-सबेरे बाथरूम में घुसकर नहा धो लिया, और जब बाथरूम से बाहर निकला तो उसे अचानक याद आया कि वह नहा तो लिया किन्तु दंत मंजन करना भूल गया है । फिर अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में उसने आवाज निकाली 'शिट यार', बाथरूम के एकदम सामने रसोई में मौजूद कृतिका ने यह जानते हुए भी, कि वह जरूर कुछ भूल गया होगा, उससे पुछा, अब क्या हुआ । पिंटी ने उसके सवाल का सीधा जबाब न देते हुए कहा, मैं भी न यार, एक नंबर का गधा हूँ । कृतिका तपाक से चुटकी लेते हुए बोली, चलो शुक्र है भगवान् का कि तुम्हे पता तो चला, मैं तो उसी दिन समझ गयी थी, जब शादी की बेदी में मेरे आगे पीछे रेंग रहे थे।
पिंटी उसकी बात सुन थोडा हंसा और फिर उसी अंदाज में उसकी चुटकी का जबाब देते हुए बोला , मुझे मालूम है यार कि तुम्हे अपनी नश्ल को पहचानने की पूरी महारत हासिल है । ब्रश करने के बाद जब वह फिर बाथरूम से बाहर निकला और तो बैठक में लगी दीवार घड़ी की ओर नजर दौडाते हुए बोला, कीर्ति ( वह कृतिका को इसी नाम से पुकारता था) जल्दी लगा नाश्ता यार, टाइम हो गया । कृतिका को पहले से मालूम था कि आज छुट्टी है किन्तु वह अब तक जानबूझकर चुप थी, क्योंकि अगर पिंटी को मालूम पड़ जाता कि आज पोंगल की छुट्टी है तो वह दस बजे से पहले बिस्तर से खडा नहीं उठता। कृतिका ने पूछा, कहाँ की देर हो रही है, कहाँ जावोगे? पिंटी की समझ में कृतिका के सवाल का खुद व खुद जबाब आ गया था और उसने हाथो से माथा पीटते हुए कृतिका से शिकायती लहजे में कहा, अबे यार, तूने बताया क्यों नहीं कि आज छुट्टी है । कृतिका ने चेहरे पर हंसी बिखेरते हुए उंगलियों से उसके गालो को खींचते हुए कहा, जानू, अगर बता देती तो फिर मुझे नाश्ते के लिए भी १०-११ बजे तक इन्तजार करना पड़ता न।
पिंटी यह बड़बढाते हुए कि आजकल की इन सती-सावित्रियों को तो पति की जरा सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती, नाश्ते की टेबल पर बैठ गया। कृतिका ने मूली के पराँठे बनाए थे, जो अक्सर वह छुट्टी के दिन नाश्ते में बनाती थी, पराठे और दही की कटोरी पिंटी के सामने रखते हुए उसने फिर व्यंग्य कसा, गुस्सा छोडिये और नाश्ते का लुफ्त लीजिये, मेरे सत्यवान । फिर काफी देर तक नाश्ते की टेबल पर ही उनका हंसी मजाक चलता रहा था और फिर दोनों टीवी देखने लगे थे। ग्यारह बजे के करीब कृतिका ने पिंटी से पूछा कि लंच में क्या बनाऊ ? पिंटी ने कहा, यार बहुत दिनों से कढ़ी नहीं खायी, मैं दूकान से दही लेकर आता हूँ, आज कढ़ी-चावल बनावो, हाँ कड़ी में घीया-बेसन का पकोडा डालना मत भूलना। पिंटी का इतना कहना था कि कृतिका सहसा उदास हो गयी और उसके गालो पर आंसू रेंगने लगे । पिंटी ने उसके गालो पर से आंसू फोंझते हुए पूछा कि क्या हुआ? कृतिका बिना कुछ कहे फफककर रो पडी ।
कुछ देर बाद माहौल जब शांत हुआ तो उसने पिंटी को बताया कि आज उसकी ठुलैईजा/जेठ्जा( अर्थात ताई जी) की पहली बरसी है । ठुलैईजा कृतिका को और कृतिका ठुलैईजा को बहुत प्यार करते थे। दोनों को झोई-भात (कढ़ी-चावल, कुमाऊ में कढ़ी को झोई कहा जाता है ) बहुत पसंद थी। और जब कभी भी घर में कोई स्पेशल खाना बनाने की बात चलती थी तो कृतिका की जुबान से जब कढ़ी-चावल शब्द निकलता था, तो ईजा (माँ) उसे बुरा-भला कहते हुए कहती कि यह कमवक्त तो एकदम अपनी ठुलैईजा(ताई जी) पर गयी है । इस कढ़ी शब्द पर भी घर में एक बहुत बड़ी समस्या थी। कृतिका का परिवार एक संयुक्त परिवार था, परिवार जब भी छुट्टियों में उत्तरांचल की पहाडियों में बसे कुमाऊ क्षेत्र में, अपने गाँव जाता था, तो कृतिका की माँ (ईजा) और ताई जी ( ठुलैईजा) के लिए चुलबुली कृतिका को संभालना मुश्किल हो जाता था। वह जब खाते वक्त जिद करती तो जोर-जोर से चिल्लाने लगती कि मुझे कड़ी-भात चाहिए । दरहसल कुमाऊं में कढ़ी को 'झोई' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वहाँ पर कढ़ी शब्द को एक गंदे शब्द के तौर पर देखा जाता है।
ठुलैईजा उस जमाने की पांचवी कक्षा तक पढी एक समझदार महिला थी, उनका जन्म और लालन-पालन तो गढ़वाल क्षेत्र में हुआ था, कितु उनका विवाह उनके माता-पिता ने कुमाऊ में कर दिया था। घर गाँव की भरी महफिल के बीच जब १०-१२ साल की कृतिका कढ़ी,कढ़ी चीखती तो ठुलैईजा, सिर में धोती का पल्लू खींचकर,दांतों के बाहर लम्बी जीभ निकालकर, उसे आँखे दिखाते हुए, हे पातर कहकर झट से उसका मुह दबा देती । लेकिन कृतिका को कैसे समझाए कि कड़ी शब्द को लोग यहाँ पर किस तरह लेते है, वह उसे बस इतना कहती कि 'झोई' बोल, 'झोई'!
और अब जब कृतिका को भाषा का अंतर समझ में आया तो तब तक वह बड़ी हो चुकी थी, परिवार उसकी सगाई के लिए गाँव आया हुआ था। कृतिका ने ही रसोई संभाली थी, जैबा / ठुल्बा(बड़े पापा / ताऊ) की मौत के बाद से ठुलैईजा की तबियत भी ठीक नहीं चल रही थी । अतः एक दिन जब कडाके की ठण्ड में दोपहर के वक्त भोजन में कृतिका ने कढ़ी बनायी थी तो वह एक बड़ा कटोरा कढ़ी का लेकर ठुलैईजा के कमरे में गयी थी, और सिर पर चुनरी ओढे कृतिका ने जब मुस्कुराते हुए कढ़ी का कटोरा ठुलैईजा की चारपाई के पास रखते हुए ठुलैईजा से कहा था कि :"ईजू झोई" , गरम-गरम एक कटोरी पी ले, तो ठुलैईजा ने पहली बार उसके मुह से 'झोई' शब्द सुनते हुए उसे अपने सीने से चिपका लिया था, और कहा था कि अब मेरी चेली ( बेटी ) ज्वान (बड़ी) हो गयी है ।
शादी के बाद कृतिका को पता चला था कि गाँव में कुछ समय से ईजा और ठुलैईजा के बीच तनातनी चल रही थी । ईजा बात-बात पर बीमार ठुलैईजा को ताने देती रहती थी। कृतिका ने कई बार अपने ढंग से ईजा को समझाने की कोशिश भी की थी, लेकिन ईजा ने कृतिका को यह कह कर झिड़क दिया था कि तू ठुलैईजा का ज्यादा पक्ष मत लिया कर। कृतिका यह सुनकर चुप रह गयी थी, वह उस दौरान ससुराल और मायके, दोनों तरफ से दुखी थी। ससुराल की तरफ से इसलिए कि वह गाँव की महिलावो को मुफ्त शिक्षा और सिलाई बुनाई की ट्रेनिंग देती थी और ससुराल वालो को इस बात का गम था कि वह उनके बेटे की कमाई इस तरह से उड़ा रही है। कृतिका ने ठुलैईजा को भी अपना दुखडा सुनाकर उसे भी समझाने की कोशिश की, कि वह ईजा की बातो का बुरा न माने, किन्तु ज्यादा असर नहीं हुआ ।
पिछले साल चौदह जनवरी को अचानक जब गाँव से फोन आया कि ठुलैईजा गाँव की औरतो के साथ मकर संक्रांति के दिन स्नान के लिए पास की एक नदी में गयी थी, तो पैर फिसल जाने से डूब गयी और उसकी मृत्यु हो गयी, यह खबर मिलने पर कृतिका एकदम टूटकर रह गयी थी। यह पिंटी का ही प्यार था कि धीरे-धीरे कृतिका उस सदमे को भुला सकी,जिसे लोग दुर्घटना समझ रहे थे, वह महज आत्महत्या थी, जिसे समझदार ठुलैईजा ने इस तरह से अंजाम दिया था कि ताकि लोग इसे दुर्घटना समझे। यह बात सिर्फ कृतिका को मालूम थी, क्योंकि उनकी मृत्यु के तीन दिन बाद ही कृतिका को ठुलैईजा का लिखा वह पत्र मिला था, जिसे ठुलैईजा ने पहाडी भाषा में लिखा था और लिखा था;
चेली(बेटी) ,मुझे क्षमा करना, अब और चल पाने की हिम्मत मुझमे नहीं रह गयी है, बेटी, दूसरो के प्रति उदारता का फल इंसान को अवश्य मिलता है। मैं तुझे देखती रहती थी, तुझे पढने की हमेशा कोशिश करती रहती थी । दया, करुणा, सहानुभूति तुम्हारी शक्ति है , अपने उस पक्ष को एक अभिव्यक्ति देने में कोई बुराई नहीं है, लोग यहाँ अभी इतने समझदार नहीं हुए कि इस प्रकार के भाव की सराहना कर सके, तुम अपना अच्छा काम जारी रखना।
तुम्हारी ठुलैईजा,
कृतिका नम आँखों से रसोई में इत्मीनान से चांवल-कढ़ी पका रही थी और सोच रही थी कि वह आज एक पूडी पर झोई-भात अपने छत की मुंडेर पर अपनी ठुलैईजा के लिए भी रखेगी। उसे मायके से खबर मिली थी कि ठुलैईजा की पहली बरसी पर उसके परिवार वालो ने हफ्ते भर की धार्मिक पूजा-अनुष्ठान और पूरे गाँव के लिए पितृ-भोज की व्यवस्था की थी। उसे भी परिवार वालो ने आने को आमंत्रित किया था, किन्तु वह चाहकर भी नहीं जाना चाहती थी । वह सोच रही थी कि इंसान कितना स्वार्थी और मूर्ख होता है । एक व्यक्ति को तो उसके जीते जी मार देते है और फिर दुनिया के दिखावे के लिए यह सब ढ़कोसलेबाजी करने पर उतर आते है ।
यह कहानी तब लिखी थी जब कोई पाठक नहीं था, अब कुछ लोग मेरा ब्लॉग पढ़ते है और चूँकि इस कहानी का एक हिस्सा मेरे लिए भी अहम् है इसलिए अपने सुधि पाठको के लिए यह कहानी दुबारा ब्लॉग पर डाली है ! -गोदियाल
आँखें नम कर दिए !
ReplyDeleteफॉण्ट ठीक कीजिए। क्रोम में एक पैरा छोटे फॉण्ट का दिखता है तो दूसरा बड़े फॉण्ट का ।
सुबह-सुबह आंसूओं को बागी कर दिया।
ReplyDeleteआपको संक्रांति की बहुत बहुत बधाई।
बहुत बढियां कहानी.
ReplyDeleteठुलैईजा मुझे भी बहुत चाहती थी।
ReplyDeleteकीर्ति की तरह मैं भी याद करता हुँ।
कहा गया है ना
जीयत से दगंम दंगा
मरे को पहुंचाय गंगा
जीयत को दिया ना अनाज
मरे का कर दिया भोज-काज
आभार
बहुत ही संवेदनशील कहानी ......... आँखें नाम हो गयीं .........
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण कहानी है गोदियाल जी!
ReplyDeleteइस कहानी में सब कुछ है प्यार और दुनिया की रीत बहुत खुबसूरत रचना!!!
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक कहानी है। हमारे घर में कढ़ी को पयो कहते हैं, कुछ लोग शायद पल्यो भी कहते हैं। मुझे भी पयो भात बहुत पसन्द है। शायद हर कुमाँऊनी को पसन्द होता होगा।
ReplyDeleteजेठजा, ठुल्बा, ईजा आदि शब्द पढ़कर अच्छा लगा।
हर भाषा में कुछ ऐसे शब्द होते हैं जो अपने आस पास बोले जाने वाली भाषा में किसी अन्य अर्थ में उपयोग किए जाते हैं किन्तु बच्चा बचपन से ही जा लेता है कि इनका प्रयोग अपने परिवार व गाँव में निषेध है।
घुघूती बासूती
हम इस कहानी से सबक ले सकें तो अच्छा!
ReplyDeleteaankh nam kar di aapne
ReplyDeleteek taraf ek bahut pyaar bhara parivaar aur ek taraf ye aatmhatya aur seekh
मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण कहानी लिखा है आपने!
.
ReplyDelete.
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आदरणीय गोदियाल जी,
बेहद भावपूर्ण व यथार्थ कहानी,
सभी को मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई।
एक मर्मस्पर्शी कहानी....!!
ReplyDeleteआप बहुत अच्छे कहानीकार भी हैं गोदियाल जी...सभी पाठकों ने इसका अनुमोदन भी किया है....आपकी एक और विशेषता का पता चला..
बधाई ...!!
बहुत मार्मिक कहानी है जी!
ReplyDeleteसीधे मन पर चोट करती है!
भावुक कर दिया आपने..क्या कहें सिर्फ यही कि कुछ नये शब्द भी पता चल गये लोकल भाषा के...
ReplyDeleteबेहद सटिक और भावपुर्ण मार्मिक कहानी है. अम्दर तक कचोट गई यह रचना.
ReplyDeleteरामराम.
आप की यह कहानी बहुत संवेदनशील है,लेकिन आज का सच
ReplyDeletebahut hi marmik kahani.......dil ko chhoo gayi.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कहानी ..... आभार
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है आँखें नम हो गयी आभार मकर संक्राँति की शु7भकामनायें
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी लेख ! कृतिका और पिंटी जैसे जोड़े अब सिर्फ गोदियाल साहब की कल्पना में ही होंगे, अब तो सिर्फ रिश्तों को ढोना भर रह गया है ! स्नेह और प्यार का दिखावा हर जगह मिलता है मगर स्नेह कहे नहीं !
ReplyDeleteसादर शुभकामनायें !
साढ़े आठ साल बाद एक बार फिर से यह कहानी पढी. एक बार फिर बहुत अच्छी लगी.
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