Thursday, December 31, 2009

ठीक दस साल पहले मिली थी वो मुझे ! (दूसरा और अंतिम भाग)

...धीरे-धीरे शाम का धुंधलका जमीन पर पसरने लगा था, मैं फिर चलने के लिए खडा हुआ तो वह वह भी उठ खडी हो गई। अभी तक की इस मुलाक़ात से मानो किसी अधिकार पूर्ण अंदाज में जब एक बार फिर से मैंने उसे साथ चलने का इशारा किया, तो वह भी तुरंत मेरे साथ चल दी। पार्क के बाहर खडी गाडी के पास पहुँच मैंने गाडी की ड्राइविंग सीट के बगल वाली सीट के सामने का दरवाजा खोला तो वह झट से गाडी में चढ़कर सीट पर बैठ गई। और फिर मैं ड्राइव करता हुआ इंडिया गेट पहुंचा । अब तक घुप अँधेरे में पूरा इलाका डूब चुका था, मगर इंडिया गेट पर बिखरी बिजली की रोशनी से पूरा राजपथ जगमगा रहा था। एक जगह गाडी को पार्क कर हम गाडी में ही बैठे रहे। नए साल की पूर्व संध्या होने की वजह से मैंने अपने खाने-पीने का भी पहले से ही गाडी में पूरा इंतजाम रख छोड़ा था। वहाँ घूमते लोगो, ख़ासकर नए जोड़ो को निहारते और व्हिश्की के हल्के घूंटो के साथ मैं चिकन का सेवन करता और एक चिकन पीस उसकी तरफ बढ़ा देता था। वह भी बड़े चाव से आराम से बैठ कर खा रही थी, सलीके के साथ। फिर जब अचानक आकाश में कुछ आतिशबाजी दिखी, तो मैं समझ गया कि रात के बारह बज चुके है। ड्रिंक और खाने-पीने का सामान भी समाप्त हो चुका था। हमारी दिन भर की इतनी लम्बी मुलाक़ात के बावजूद भी अब तक दोनों के बीच एक भी लफ्ज का आदान-प्रदान नहीं हुआ था, बस इशारों में ही बाते हुई थी । अत: मैंने एक बार फिर से उसके सिर पर हाथ फिरते हुए कहा 'हैप्पी न्यू इयर माई डियर', अगर मैं तुम्हे 'स्वीटी' कहकर पुकारू तो तुम्हे बुरा तो नहीं लगेगा ? मेरा इतना कहना था कि उसने एक हल्की कूँ-कूँ की आवाज गले से निकाली और जोर से अपनी पूँछ हिलाते हुए, अपने दोनों अगले पंजे मेरे कंधे पर रखते हुए, दो बार भौ-भौ किया, तो मैं समझ गया कि इसे मेरे द्वारा दिया गया नाम पसंद आ गया है । बस फिर मैंने झट से गाडी स्टार्ट की और अपनी लिखी कविता की इन लाइनों को गुनगुनाता हुआ उसे अपने घर ले आया, और तबसे वह मेरे साथ है ;

कल उषा की पहली किरण पर
दिनकर उगेगा नव-बर्ष का,
उज्जवलित कण-कण तुषार का
जगत को पैगाम देगा हर्ष का !

साक्षी बनेगा रोशनी का बांकपन ,
भोर शीतल सुहाने दृष्ठि बंधन का,
मृदु विहगों का कलरव संगीत और
लय भरा जीवन सृष्ठि स्पंदन का !

अब और न व्यग्र जीवन होगा
अस्तित्व के संघर्ष का,
नव उमंग और नव तरंग संग
उदय होगा उत्कर्ष का !

हो सभी की इच्छाए पूर्ण
ऐसा उस उदित प्रभा को बनायें,
नूतन बर्ष की नव बेला पर
सभी को मेरी हार्दिक शुभकामनाये !
Wishing you & all your family members a very joyous new year-2010 !!!!

Wednesday, December 30, 2009

ठीक दस साल पहले मिली थी वो मुझे !

कब न जाने यु ही पलक झपकते दस साल गुजर गये, पता ही न चला। अचानक मुझसे मिलना और फिर कुछ ही लम्हों मे सदा के लिये मेरे साथ ही ठहर जाने का घडी भर मे लिया उसका वो फैसला आज भी वक्त बे-वक्त मुझे उन लम्हों के बारे मे सोचने पर मजबूर कर देता है। मैं समझता हूं कि इतनी जल्दी फैसला कोई भी प्राणि दो ही परिस्थितियों मे लेता है, एक तो तब जबकि उसे जो मिला है उसको पाने की उसकी चाहत बहुत पुरानी हो और अचानक वह उसे मिल जाये, दूसरा तब जबकि उसके पास और कोई विकल्प हो ही ना । मेरे हिसाब से उसके लिये भी शायद दूसरी परिस्थिति ही ज्यादा प्रबल रही होगी।

बच्चो से बेहद लगाव रखने वाली स्वीटी ने दो बार दस सालो के दर्मियां मां बनने का असफ़ल प्रयास भी किया, लेकिन उसका दुर्भाग्य कि वह मातृत्व सुख पाने से वंचित रही, पैदा होने के चंद रोज बाद ही बच्चे चल बसे। स्वभाव से बहुत सरल और एक अजनवी से भी शीघ्र घुल-मिल जाने की उसकी खूबियों ने उसे शीघ्र ही मुह्ल्ले मे भी सबकी चेहती बना दिया। मौका मिलने पर हल्के-फुल्के मजाक करने से भी नही चूकती, मसलन सर्दियो मे जब सुबह-सबेरे बिस्तर से उतरते ही पैर चप्पल अथवा स्लिपर ढूढने लगते है, तो उसे जैसे ही यह अहसास होने लगता है कि मैं पलंग से नीचे उतरने वाला हूं, तो वह तुरन्त मेरे चप्पलों को उठाकर दस कदम दूर ले जाकर रख देती है । मेरे लाख आग्रह के बावजूद भी क्या मजाल कि मै उसे चप्पल वापस जगह पर लाने के लिये मना सकू, लेकिन ज्यों ही नंगे पांव दूर पडे चप्पलों को लेने बढता हूं, वह खुद ही लाकर चप्पल मेरे पैरों के पास रख देती और फिर मेरे से आलिंगनबद्ध हो जाती है। शाम को दफ़्तर से जब घर लौटता हूं तो मेरे घर से सौ मीटर दूर गली के मोड पर मै अक्सर ही गाडी का हौर्न बजाता हू, और वह हौर्न सुनते ही तुरन्त घर के मेन गेट पर आकर खडी होकर बेसब्री से मेरा इन्तजार करने लगती है।

३१ दिसमबर, १९९९ और दिल्ली का बुद्धा गार्डन, यही तो थी वो तिथि जब मैं शरद ऋतु की एक ठंडक भरी दोपहर को अकेला गुम-सुम सा पार्क की हरी दूब मे लेटकर धूप का आनन्द लेते हुए एक मैग्जीन के पन्ने पलटे जा रहा था। वह कब न जाने मेरे एकदम समीप आकर बैठ गई, और मुझे पता भी तब चला, जब मैने कुछ आहट सुनकर मैगजीन से अपना ध्यान हटाया था। वह दीखने में एक खाते-पीते घर की लग रही थी, सुनहरा डील-डौल बदन, खिले हुए चेहरे पर तिरछी नजरों से मुझे कुछ इस तरह देख रही थी, मानो मुझसे कुछ कहना चाहती हो। मैं भी उसके मन के अन्दर के भावो को भांप चुका था। कुछ देर मैंने भी जब उसे निहारा और उसने मुझ पर से नजरे नहीं हटाई तो, मैंने अपना हाथ आगे उसकी तरफ बढ़ा दिया। अरे, यह क्या, उसने भी झट से अपना हाथ मेरे हाथ में रख दिया था। मैं उसी अध्-लेटी हुई स्थिति में घास पर खिसकता हुआ उसके करीब जा पहुचा और उसके बालो को सहलाने लगा था। बस फिर क्या था, मानो वह भी इसी वक्त की प्रतीक्षा में थी, उसने भी बैठे-बैठे अपनी गर्दन मेरे काँधे पर सटा दी और मेरे चेहरे को चूमने लगी। मैं भी अपने ओंठो को गोल-गोल घुमा कर एक हिन्दी गीत "तुम आ गए हो नूर आ गया है ...." सीटी बजाने के अंदाज में गुनगुनाता हुआ उसके सिर पर हाथ फेर उसके बालों को सहलाता चला गया था।
………॥ इस संस्मरण का दूसरा और अंतिम भाग कल॥

Tuesday, December 29, 2009

समय आ गया है कि बीजेपी के प्रति मोह को भंग किया जाए !

आज जहां एक ओर देश की अस्सी प्रतिशत से अधिक आवादी महगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से त्रस्त है, वहीं दूसरी ओर सत्ता का मजा लूट रहे लोग, सार्वजनिक धन को दोनो हाथों से समेट लेने पर आम्दा है। विकास के नाम पर जहां एक ओर सार्वजनिक धन, जो कि जनता से ही भिन्न-भिन्न टै़क्स के रूप मे वसूला जाता है, को कुछ लोगो के फ़ायदे के लिये दोनो हाथो से लुटाया जा रहा है। पहले जानबूझकर धन और संसाधनो की कमी का रोना रोकर या फिर किसी और बहाने से, किसी भी परियोजना को अधर मे लटका दिया जाता है, और फिर भ्रष्ठ तरीके अपनाने के लिये समय सीमा बांध दी जाती है। जबाबदेही नाम की तो कोई चीज देश मे रह ही नही गई है। सरकार, लोगो को लूटने के नित नये तरीके इजाद करती रहती है । यहाँ टैक्स, वहाँ टैक्स। महंगाई की इस मार में अगर कोई व्यक्ति परिवार के साथ यात्रा कर रहा है तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सड़क छाप ढाबे भी १३.५ % वेट वसूल रहे है ! यानी परिवार संग ४०० रूपये का खाना ( जिसमे कि कुछ भी नहीं मिलता ) आपने इन ढाबो में खाया तो करीब ५५ रूपये सरकार के खाते में टैक्स भी भरो । जहां एक तरफ २००५ पांच में पिछले वित् मंत्री द्वारा वेतन भोगी कर्मचारियों के जिन भत्तो को कर्मचारी की आय से अलग कर दिया गया था, उन्हें फिर से नए वितमंत्री ने पुन: पुरानी बोतल में नई शराब की माफिक परोस दिया, वह भी अप्रैल २००९ से । और तो और जो कर्मचारी टैक्स के दायरे में नहीं आते, उन्हें ई एस आई नामक झुनझुने के तहत १५०००/- रूपये मासिक वेतन तक प्राप्त करने वाले कर्मचारी को इस दायरे में लाकर कायदे से ७५०/- ( पांच प्रतिशत, और सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं ) रूपये प्रतिमाह का उस पर भी एक टैक्स के समान बोझ डाल दिया है। दूसरी तरफ जो मुख्य मुद्दे है जैसे रेल घोटाला, खाद्यान घोटाला इत्यादि उन पर कोई न तो चर्चा को ही तैयार दीखता है और न कोई जबाबदेह । कितनी हास्यास्पद बात है कि एक ही प्रधान मंत्री के दो कार्यकालों में उनके मंत्रीमंडल के दो रेल मंत्रियों में से कोई एक देश को ५० हजार करोड से अधिक के आंकड़ो के हेरफेर से गुमराह कर रहा है, और हमारे प्रधान मंत्री जी अपनी बेदाग़ सवच्छ छवि बनाए बैठे है, मानो उनकी इसमें अपनी कोई जबाबदेही ही नहीं ।

उपरोक्त बातो पर गौर करते हुए मेरा यह मानना है कि कौंग्रेस और अन्य तथाकथित सेकुलर और साम्प्रदायिक राजनैतिक दल हमेशा इसी तथ्य को आधार मानकर राजनीति करते है कि वोटर को कभी भी भरपेट मत खाने दो, और रोटी कपड़ा और मकान में ही उलझाये रखो । ताकि वह इनके कामकाज पर उंगली उठाने की फुरसत भी न प्राप्त कर सके । दूसरी तरफ जिस राजनैतिक दल को ऐसे वक्त पर एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिये थी, वह अपनी गैर -जिम्मेदाराना हरकतों से खुद ही एक हास्य का पात्र बने बैठे है। समाज के पढ़े लिखे एक विशिष्ठ वर्ग की बीजेपी से उम्मीदे थी कि ये अपनी अलग छवि बनाए रखते हुए, इस देश को सही प्रतिनिधित्व प्रदान करेंगे, मगर वक्त आने पर इन्होने भी लोगो को निराश करने और अपने मानसिक दिवालियेपन का नमूना पेश करने में कोई कसार बाकी नहीं छोडी ! अभी ताजा उदाहरण झारखंड है, जहां इन्होने सत्ता की भूख में खुद ही अपनी पोल खोल दी।

हमारे देश की राजनीति आज जिस अभद्र मोड़ पर पहुँच चुकी है, जरुरत है उसमे मूलभूत राजनैतिक सुधारो की, अन्यथा आने वाले वक्त में देश को इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। आज देश की राजनीति में सबसे पहली प्राथमिकता है , कौंग्रेस का कोई मजबूत विकल्प ढूंढना । और यह विकल्प वर्तमान में मौजूद राजनेतावो और राजनैतिक दलों में से नहीं ढूंडा जा सकता, क्योंकि एक अगर सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ । जो लोग आज वास्तव में देश की मौजूदा राजनैतिक स्थिति से चिंतित है और इनमे मूल भूत सुधार लाने के लिए अच्छे लोगो को राजनीति में प्रतिनिधित्व दिला पाने में सक्षम है, उन्हें गंभीरता से इस बारे में सोचना होगा और एक नया राजनैतिक दल कौंग्रेस के विकल्प के रूप में खडा करना होगा । और यह तभी संभव है जब हम मिलजुलकर यह सोचना बंद करे कि बीजेपी, कौंग्रेस का एक मजबूत विकल्प हो सकती है। क्योंकि बीजेपी अभी तक कहीं भी इस मुद्दे पर खरी नहीं उतरी है। और जब तक यह बीजेपी वाला मोह शिक्षित समाज में रहेगा, हम कौंग्रेस का कोई मजबूत विकल्प नहीं ढूंढ सकते ।

Thursday, December 24, 2009

आ जाओ क्रिस, अब आ भी जाओ !


जीसस  "क्रिस" यूं कब तलक तुम,
ज़रा भी टस से "मस" नहीं होगे,
गिरजे की वीरान चार दिवारी में ,
कब तक यूंही 'जस के तस' रहोगे ?

ये वो  परोपकारी वक्त  नहीं जब,
महापुरुष  लटक जाया करते थे,
अमृत सारा का सारा औरों को बाँट ,
खुद 
जहर घटक जाया करते थे।  

तुम सदियों से नीरव लटके खड़े हो,
खामोशी की भी हद होती है भई,
एक बार सूली से उतर कर तो देखो,
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई।

दौलत -सोहरत की चकाचौंध में,
सभ्यता निःवस्त्र घूम रही है,
संस्कृति बचाती लाज फिर रही,
बेशर्मी शिखर को चूम रही है।

भाई,भाई का दुश्मन बन बैठा है ,
बेटा, बाप को लूटने की ताक में है,
माँ कलयुग को कोसे जा रही है ,
बेटी घर से भागने की 
फिराक में है।

लोर्ड क्रिस,अब तुम उतर भी आओ,
पाप का अन्धेरा घनघोर छा गया है !
यह आपके लटकने का वक्त नहीं  है ,
शठों को लटकाने का वक्त आ गया है।



Merry Christmas to all Blogger friends !

Wednesday, December 23, 2009

२००९ में रचित कुछ बिखरे मोतियों के विशष्ट अंश !

यूँ तो बेवजह सुर्ख़ियों में आने का कभी शौक नहीं रहा, मगर जैसे कि शायद आप लोग भी जानते होंगे कि मेरे एक लेख की वजह से ब्लॉगजगत पर आजकल मेरी टी.आर.पी काफी ऊपर जाकर बैठी हुई है, इसलिए मैं फिलहाल कोई टुच्चा-मुच्चा लेख अथवा कविता लिखकर उसको नीचे नहीं लाना चाहता :) सन २००९ में मैं इस ब्लॉगजगत पर लगभग हर दिन उपस्थिति दर्ज करवाई , इसलिए सोचा कि चलो, जो साल जाने वाला है उसकी कुछ जो कविताये अथवा गजल मैं पढ़ पाया और मुझे अच्छी लगी, मैं यहाँ प्रस्तुत करू, ताकि अन्य ब्लॉगर मित्र जोकि उन्हें पढने से किसी वजह से वाचित रह गए हो, वे भी एक बार फिर से उन्हें पढ़ सके ! तो लीजिये प्रस्तुत है सब २००९ का काव्य लेखा-जोखा : यहाँ सिर्फ भिन्न-भिन्न रचनाकारों की मैं कविता या गजल के कुछ चुनिन्दा अंश ही प्रस्तुत कर रहा हूँ,साथ ही उस कविता या गजल का लिंक भी मैंने यहाँ पर दिया है, विस्तृत तौर पर आप उसे उस ब्लॉग पर जाकर पढ़ सकते है, और मुझे उम्मीद है कि इसपर किसी ब्लॉगरमित्र / रचनाकार को कोई आपति नहीं होगी !

शुरुआत करता हूँ आदरणीय डा० रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की इस प्यारी से गजल से, उनकी गजल फ्रेम समेत पोस्ट कर रहा हूँ ;





निर्मला कपिला जी ने गुजर रहे साल की शुरुआत में (जनवरी २००९) एक गजल लिखी थी
http://veerbahuti.blogspot.com/search/label/%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%B2?updated-max=2009-05-20T20%3A16%3A00-07%3A00&max-results=20

आज महफिल में सुनने सुनाने आयेंगे लोग
समाज के चेहरे से नकाब उठाने आयेंगे लोग

किसी की मौत पर रोना गुजरे दिनों की बात है
अब दिखावे को मातम मनाने आएंगे लोग

दोस्ती के नकाब में छुपे है आज दुश्मन
पहले जख्म देंगे, फिर सहलाने आएंगे लोग



श्री समीर लाल ’समीर’ जी को सुनिए ;
http://udantashtari.blogspot.com/2009_03_01_archive.html
झूट की बैसाखियों पे, जिन्दगी कट जायेगी
मूँग दलते छातियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.

सज गया संपर्क से तू, कितने ही सम्मान से
कागजी इन हाथियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.

है अगर बीबी खफा तो फिक्र की क्या बात है
कर भरोसा सालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.

गाड़ देना मुझको ताकि अबके मैं हीरा बनूँ,
सज के उनकी बालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी




श्याम सखा ‘श्याम’ जी की गजल
http://gazalkbahane.blogspot.com/2009/10/blog-post_27.html

नम तो होंगी आँखें मेरे दुश्मनों की भी जरूर
जग-दिखावे को ही मातम करने जब आएँगे लोग

फेंकते हैं आज पत्थर जिस पे इक दिन देखना
उसका बुत चौराहे पर खुद ही लगा जाएँगे लोग

है बड़ी बेढब रिवायत इस नगर की ‘श्याम’ जी
पहले देंगे जख्म और फिर इनको सहलाएँगे लोग




ओम आर्य जी की गजल
http://ombawra.blogspot.com/2009/06/blog-post_19.html
वहीं पे है पडा अभी तक वो जाम साकी
निकल आया तेरे मयखाने से ये बदनाम साकी

हो न जाए ये परिंदा कोई गुलाम
कहते है शहर में बिछे है पिंजड़े तमाम साकी

खुदा हाफिज करने में है न अब कोई गिला
उसकी तरफ से आ गया है मुझको पैगाम साकी




डा.चन्द्रकुमार जैन जी ने श्री ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़ल प्रस्तुत की
http://chandrakumarjain.blogspot.com/2009/09/blog-post_02

मैं पूछता रहा हर एक बंद खिड़की से
खड़ा हुआ है ये खाली मकान किसके लिए

गरीब लोग इसे ओढ़ते-बिछाते हैं
तू ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए

ऐ चश्मदीद गवाह बस यही बता मुझको
बदल रहा है तू अपना बयान किसके लिए



एम् वर्मा जी की कविता देखिये
http://ghazal-geet.blogspot.com/2009/06/blog-post_09.html

हर सुंदर फूल के नीचे कांटा क्यों है भाई?
भीड़ बहुत है पर इतना सन्नाटा क्यों है भाई?

मशक्कत की रोटी पर गिद्ध निगाहें क्यों है?
हर गरीब का ही गीला आटा क्यों है भाई?

चीज़ों की कीमत आसमान चढ़ घूर रही है
मंदी-मंदी चिल्लाते हो, घाटा क्यों है भाई?

सीधी राह पकड़कर जाते मंजिल मिल जाती
इतना मुश्किल राह मगर छांटा क्यों है भाई?



वन्दना गुप्ता जी की नज्म देखिये ;
http://vandana-zindagi.blogspot.com/2009/04/blog-post_11.html

तू कृष्ण बनकर जो आया होता
तो मुझमे ही राधा को पाया होता
कभी कृष्ण सी बंशी बजाई होती
तो मैं भी राधा सी दौड़ आई होती
फिर वहाँ न मैं होती न तू होता
कृष्ण राधा सा स्वरुप पा लिया होता



संदीप भारद्वाज जी की गजल
http://gazals4you.blogspot.com/2009/10/blog-post_8856.html
खता मेरी ही थी जो दुनिया से दिल लगा बैठा
ये कमबख्त जिन्दगी कब किसी से वफ़ा करती थी,

मैं काश ये कह सकता "मुझे याद कीजिये"
कभी मेरी याद जिनकी धड़कन हुआ करती थी,

देखो आज हम उनकी दुनिया में शामिल हे नहीं,
जिनकी दुनिया की रौनक हम से हुआ करते थी,




दिगंबर नासवा जी की ब्लॉग पर फोटो उपलब्ध नहीं
http://swapnmere.blogspot.com/2009/11/blog-post_24.html

छू लिया क्यों आसमान सड़क पर रहते हुवे
उठ रही हैं उंगलियाँ उस शख्स के उत्कर्ष पर

मर गया बेनाम ही जो उम्र भर जीता रहा
सत्य निष्ठां न्याय नियम आस्था आदर्श पर

गावं क्या खाली हुवे, ग्रहण सा लगने लगा
बाजरा, मक्की, गेहूं की बालियों के हर्ष पर



नीरज गोस्वामी जी के बेहतरीन अल्फाजो में से चंद अल्फाज
href="http://ngoswami.blogspot.com/2008/10/blog-post_14.html">

उठे सैलाब यादों का, अगर मन में कभी तेरे
दबाना मत कि उसका, आंख से झरना ज़रुरी है

तमन्ना थी गुज़र जाता,गली में यार की जीवन
हमें मालूम ही कब था यहां मरना ज़रूरी है

किसी का खौफ़ दिल पर,आजतक तारी न हो पाया
किया यूं प्यार अपनों ने, लगा डरना ज़रूरी है



सुलभ जायसवाल 'सतरंगी' जी href="http://sulabhpatra.blogspot.com/">http://sulabhpatra.blogspot.com/

लिख सजा बेगुनाह को कलम है शर्मशार
फैसले हुए हैं कागज़ कानूनी देखकर

ख्वाहिशों कि उड़ान अभी बाकी है बहुत
मियाँ घबरा गए ढलती जवानी देखकर

वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर


अदा जी
की गजल
http://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/09/blog-post_09.html
क्यूँ अश्क बहते-बहते यूँ आज थम गए हैं
इतने ग़म मिले कि, हम ग़म में रम गए हैं

तुम बोल दो हमें वो जो बोलना तुम्हें है
फूलों से मार डालो हम पत्थर से जम गए हैं

जीने का हौसला तो पहले भी 'अदा' नहीं था
मरने के हौसले भी मेरे यार कम गए हैं


पारुल जी
की कविता
http://rhythmofwords.blogspot.com/2009/07/blog-post_30.html

कुरेदती जा रही थी मिटटी
ख़ुद को पाने की भूल में ॥
कुछ भी तो हाथ न आया
जिंदगी की धूल में ॥

कुछ एहसास लपककर
गोद में सो गए थककर
और मैं जागती रही
आख़िर यूं ही फिजूल में॥


Bold


मासूम सायर जी की शायरी blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html">http://masoomshayari।blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html
ली थी चार दिन हँसी मैने जो क़र्ज़ में
चुका नही सका कभी अब तक उधार मैं

तन्हा गुज़ारनी ना पड़े उस को ज़िंदगी
रहने लगा हूं आजकल अक्सर बीमार मैं

'मासूम' देखनी थीं मुझे ऐसे भी शादियाँ
डोली में है वो और उस का कहार मैं



रविकांत पाण्डेय जी
(फोटो उपलब्ध नहीं)
http://jivanamrit.blogspot.com/2009/11/blog-post_09.html

कुछ बिक गये, कुछ एक जमाने से डर गये
जितने भी थे गवाह वो सारे मुकर गये

हमने तमाम उम्र फ़रिश्ता कहा जिन्हे
ख्वाबों के पंछियों की वो पांखें कुतर गये

दुनिया की हर बुराई थी जिनमें भरी हुई
सत्ता के शुद्ध-जल से वो पापी भी तर गये




रजिया मिर्जा जी
http://raziamirza.blogspot.com/2009/09/blog-post_2889.html

क्यों देर हुई साजन तेरे यहाँ आने में?
क्या क्या न सहा हमने अपने को मनाने में।

बाज़ारों में बिकते है, हर मोल नये रिश्ते।
कुछ वक्त लगा हमको, ये दिल को बताने में।

अय ‘राज़’ उसे छोडो क्यों उसकी फ़िकर इतनी।
अब खैर यहीं करलो, तुम उसको भुलाने में।




सदा जी की कविता
http://sadalikhna.blogspot.com/2009/09/blog-post_23.html

माँ की आँखों ने फिर एक सपना बुना
अब यह कमाने लगे तो मैं
एक चाँद सी दुल्हन ले आऊ इसके लिए
मैं डरने लगा था सपनो से
कहीं मैं एक दिन अलग न हो जाऊ माँ से
माँ की दुल्हन भी तो सपने लेकर आयेगी
अपने साजन के,
मैं किसकी आँख में बसूँगा ?



अंत में श्री योगेन्द्र मौदगिल जी की सच्ची बात सुनिए ;http://yogindermoudgil.blogspot.com/2009/08/blog-post_09.html
खुद को सबका बाप बताया, कुछ उल्लू के पट्ठों ने.
अपना परचम आप उठाया, कुछ उल्लू के पट्ठों ने।

जीते जी तो बाथरूम में रखा बंद पिताजी को,
अर्थी पर बाजा बजवाया, कुछ उल्लू के पट्ठों ने .
लंगडो को मैराथन भेजा, गूंगे भेजे युएनओ,
सूरदास को तीर थमाया कुछ उल्लू के पठ्ठो ने .
सड़के, चारा, जंगल, पार्क, आवास योजना पुल नहरे ,
खुल्लमखुल्ला देश चबाया कुछ उल्लू के पठ्ठो ने.



कोशिश बहुत की थी कि लिंक यही से काम करे परन्तु पता नहीं क्यों ACTIVE लिंक नहीं लगा ! आप लोगो से विनम्र निवेदन है कि आप यह कतई न समझे कि मैं यह कह रहा हूँ कि मैंने इस साल की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं को चुना, मैंने यहाँ पर सिर्फ उन रचनाओं के अंश प्रस्तुत किये है, जिन्हें मैं पढ़ पाया, जहां तक मैं पहुँच सका ! इसलिए बस इतना ही कहूंगा कि E&O.E.


चलते-चलते एक अपनी भी फेंकता चलूँ :

हम तो उनकी हरइक बात से इत्तेफाक रखते है,
संग अपने, अपनी  बेगुनाही की ख़ाक रखते है।   

हर लम्हा मुमकिन था, बेशर्मी की हद लांघना,

किंतु जहन में ये था कि हम इक नाक रखते है।  

हमको नहीं आता कैसे, दर्द छुपाते हैं पलकों में,

किंतु नजरों में अपनी, बला–ए–ताक  रखते है।   

तमन्ना इतनी थी, हमें सच्चा प्यार मिल जाता,

वो हरगिज ये न सोचे, इरादा नापाक रखते है।  

जी करे जब 'परचेत', लिख दे कोई नज्म, गजल,

दिल हमारा श्याम-पट्ट है, जेब में चाक रखते है। 

Saturday, December 19, 2009

'नारी' की चिंता में दुबले कुछ ब्लॉगर मित्र !

पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग जगत पर एक ख़ास बात के ऊपर नजर गडाए था ! देखना चाहता था कि अक्सर किसी एक ख़ास मुद्दे पर एक साथ लेखों की बाढ़ निकाल देने वाले हमारे ब्लॉगर बंधू-बांधव इस मामले पर कितने संजीदा है ! लेकिन यह जानकर निराशा हाथ लगी कि किसी ने भी इस और ध्यान देकर लिखना तो दूर, कहीं पर टिपण्णी करना भी मुनासिब नहीं समझा( हाँ अगर कुछ मेरी नजरो से ही छूट गया हो तो क्षमा चाहूंगा ) ! इस ब्लॉग जगत पर मैं अक्सर देखता हूँ कि महिलाओं से सम्बंधित बातो पर कुछ लोग नाहक ही दुबले हुए जाते है! साथ ही कुछ महिला ब्लोगर किसी ब्लोगर की सार्थक पहल को भी महज एक ढकोस्लाबाजी कहकर कई बार अप्रिय शब्दावली इस्तेमाल करती है! अभी हाल का एक उदहारण मैं इस तरह से देता हूँ कि इस ब्लॉग जगत के हमारे एक वरिष्ठ और सम्मानित ब्लॉगर श्री सी.एम् प्रसाद जी ने एक लेख लिखा था, 'महिला सुशिक्षित और सशक्त हो', उस लेख की कड़ी में एक महिला ब्लोगर की टिपण्णी निराशाजनक लगी ! मैं उस टिप्पणी की चर्चा यहाँ नहीं कर रहा, मगर इस लेख के माध्यम से एक छोटा सा संदेस उन लोगो तक पहुंचाना चाहता हूँ कि आपको यह समझना भी जरूरी है कि सिर्फ 'किन्तु' और 'परन्तु' को उठाकर ,अगर आप यह समझते है कि इससे किसी नारी की स्थित हमारे समाज में आपने सुधार दी, तो आप खुद ही गलतफहमी का शिकार है! जब सी-एम् प्रसाद जी इस बात पर कोई लेख लिख रहे है तो उनका आशय सिर्फ इस ब्लॉगजगत पर मौजूद महिला ब्लोगरो से नहीं, बल्कि नारी की परिभाषा के अन्दर हमारी माँ, हमारी बहन, हमारी पत्नी और हमारे रिश्तेदार भी आते है! और जब हम समग्र रूप में नारी के उत्थान की बात करते है तो उसमे वे लोग भी शामिल है! जिनके प्रतिनिधि आप नहीं है, अत: इस बात पर प्रसाद जी जैसे सीनियर सिटिजन को अगर आप अपनी नसीहते देने लगे अच्छा नहीं लगता , खैर !

जिन मुद्दों पर हम बुद्दिजीवी वर्ग को एकजुट हो अपनी लेखनी के माध्यम से अधिक से अधिक लोगो तक अपने विरोध का शब्द पहुचाना चाहिए, वहाँ उन मुद्दों पर हम ध्यान ही नहीं देते ! मै अब उस बात पर आता हूँ जिसका जिक्र मैंने शुरू में किया ! जैसा कि आप लोगो को भी विदित हो कि अभी कुछ हफ्तों पहले गोवा(पणजी) में एक रूसी युवती के साथ एक नेता द्वारा (जैसा कि आरोप लगाया गया है) जो घृणित बलात्कार की घटना को अंजाम दिया गया, वह इस देश के पर्यटन के माथे पर एक मोटा काला धब्बा है ! मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि 'इनक्रेडिबल इंडिया' का नारा देने वाले इन लोगो के पास अभी भी अगर कुछ शर्म नाम की चीज बाकी बची है तो कोशिश करे कि आगे से ऐसी घटना न हो! एक महिला की छत्रछाया में चल रही पार्टी और उसका राज-काज ही जब महिलाओं की आबरू के साथ खिलवाड़ करने पर आमदा हो तो उस देश से और क्या उम्मीद की जा सकती है ? ऊपर से इनका एक राज्यसभा सांसद, यह जानते हुए भी कि बलात्कार एक अमानवीय अपराध है, संसद के अन्दर खड़े होकर यह बयान देता है कि अगर कोई औरत किसी अजनबी से देर रात में मिलती है और उसके साथ कुछ हो जाता है तो इसे दूसरी तरह से लिया जाए !

शर्म आती है मुझे तो आपने देश के इन नेतावो पर, और तरस आता है यहाँ की उस जनता पर जो इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर संसद के सदनों में भेजती है !

लघु कब्बाली !

पता नहीं आप लोगो का मन भी ऐसा करता है अथवा नहीं, मगर मेरा कभी-कभी ये मन बड़ी अजीबोगरीब हरकते करता है ! आज सुबह से मन कर रहा था कि मैं ताली बजाऊ , रास्ते में ड्राइव करते वक्त स्टेरिंग छोड़ ताली बजाने लगता, फिर अगल-बगल झांकता, चलने वालो को देखता कि कोई मेरी हरकते तो नहीं देख रहा :) बाद में ध्यान आया कि आज हमारे मुस्लिम बंधुओ का नववर्ष है , तो सर्वप्रथम मैंने उन्हें नवबर्ष की शुभकामनाये दी और फिर सोचा कि क्योंकि अपने मुस्लिम भाई-बहन कब्बाली गाना बहुत पसंद करते है तो चलो आज एक कब्बाली ट्राई की जाए ! सुन्दर और थोड़ा लम्बी तो नहीं बन पडी मगर जो भी है, उन्हें नवबर्ष पर समर्पित कर रहा हूँ ! तो आइये आप भी ताली बजाये, मेरे संग :)

मेरी बेपनाह मुहब्बत का जानम,  ये तुमने क्या सिला दिया,

ये तुमने क्या सिला दिया,,,,ये तुमने क्या सिला दिया,,,,,,२ 
नजरों से छलकाके इश्के-जाम , घूंट जहर का पिला दिया,  

मेरी बेपनाह मुहब्बत का जानम,  ये तुमने क्या सिला दिया,

ये तुमने क्या सिला दिया,,,,ये तुमने क्या सिला दिया,,,,,,२ 
मेरे  अरमां-ए-दिल को खाक मे,  क्यों पलभर मे मिला दिया,
नजरों से छलकाके इश्क-ए-जाम, घूंट जहर का पिला दिया।  

सुनो,अरे वो दिल फेंकुओं सुनो, इश्क ज़रा संभलकर करना,
परोसा गया है क्या मयचषक में, ज़रा देख लिया करना,  

फिर ये  न कहना, किसी ने हमको  बेखबर ही  हिला दिया ,
नजरों से छलकाके इश्क-ए-जाम,घूंट जहर का पिला दिया।  
मेरी बेपनाह मुहब्बत का जानम,  ये तुमने क्या सिला दिया,
ये तुमने क्या सिला दिया,,,,ये तुमने क्या सिला दिया,,,,,,२ 

बात है शर्म की कि हम पीते है, तो पीते है किसतरह से ,

मयखाने से घर और घर से मयख़ाने ,जीते हैं किसतरह से,
जी  भरकर सिकवे  दिए किसी ने , तो किसी  ने गिला  दिया ,

नजरों से छलकाके इश्क-ए-जाम,घूंट जहर का पिला दिया। 
मेरी बेपनाह मुहब्बत का जानम,  ये तुमने क्या सिला दिया,

ये तुमने क्या सिला दिया,,,,ये तुमने क्या सिला दिया,,,,,,२ 

Friday, December 18, 2009

जीवन सच !


रहे इम्तहानों से बेखबर,
जिन्दगी की ये रहगुजर,
भटकते हुए इधर-उधर,

जिन्दगी यूँ जाती गुजर। 

तुत्ती -बोतल से होता शुरू 
मुश्किल मंजिल-ए-सफ़र,
भरती जवानी जब देह में ,

गुजरता वक्त शीतल पेय में।  

घिरती उलझनों में जवानी ,
मन खोजता  रंगीन पानी ,
पहुँचता जब अगले तल में ,
तन सिमटता शुद्ध जल में। 

कभी बोतल मुह से घटकी ,
कभी सेज  ऊपर से लटकी,
बोतल पे  ही  ख़त्म  होता ,
बोतल से शुरू  हुआ सफर।  


रहे इम्तहानों से बेखबर,
जिन्दगी की ये रहगुजर।  


Wednesday, December 16, 2009

लो फ्लोर राजनीति की तकनीकी खामियां !

यों तो अपर फ्लोर में भी सफ़र करते वक्त हमें कभी बैठने के लिए एक अदद सीट नहीं मिली, मगर इस "लो फ्लोर" राजनीति में तो मुसाफिर त्रिशंकु बनकर रह गया, न ठीक से बैठ पाता है और न ही खडा रह पाता है! वो भी क्या दिन थे, जब अपर फ्लोर में भले ही बैठने के लिए सीट न मिलती हो, मगर पिछले हिस्से में खड़े होकर, अन्य मुसाफिरों संग बतियाते हुए ऑफिस से घर और घर से ऑफिस का डेड-दो घंटे का सफ़र यूँ ही कट जाता था! खैर, आज जब हर चीज गिर रही है(महंगाई के अलावा) तो ये भी अपर फ्लोर से गिरकर लोअर फ्लोर पर आ गई ! हाँ नहीं बदला तो सिर्फ इसकी मार झेलने वाला, वह वही है !

अगर ईमानदारी और कुशलता से अपर फ्लोर वाली का संचालन ठीक से किया जाता तो सफ़र के लिए बहुत ही सुन्दर और आरामदायक व्यवस्था उसी में हो सकती थी, मगर इस देश को तो राजनीति की भ्रष्टता मार गई! एक वाकया याद आ रहा है, किसी काम से फरीदाबाद से लौट रहा था, बदरपुर के पास एक आरटीवी ड्राइवर ने गलत दिशा से गाडी को घुमाते हुए मेरी गाडी का बम्पर तोड़ डाला! ४६ डिग्री के तापमान में गुस्से में तमतमाते हुए मैंने उस आरटीवी के ड्राइवर के एक लगा दी ! पास खड़ा ट्रैफिक पुलिस का जवान भी अबतक हमारे करीब आ चुका था! मैंने उससे जब उस गाडी का चालान काटने को कहा तो उस जवान का जबाब सुनिए " आपने इसको(आर टी वी के ड्राइवर) एक लगा दी वहाँ तक ठीक है, रही बात चालान की तो आप नहीं जानते की ये गाडी किसकी है ? ये विधूड़ी की है, उसने आगे कहा! "

तो यह है हमारे इस देश की राजनीति ! जनता के खून पसीने की गाडी कमाई के टैक्स का सदुपयोग करते हुए इन्होने जब ये लो फ्लोर की राजनीति खरीदने का निर्णय लिया होगा, तब खूब फूल-प्रसाद भी निर्माता ने इनके चरणों में अर्पित किया होगा, अब हाल ये है की हर रोज कोई न कोई लो फ्लोर आग पकड़ लेती है क्योंकि उस चढ़ावे को वापस वसूलने के लिए निर्माता ने घटिया सामग्री इस्तेमाल की होगी ! तकनीकी खामियों में जहां तक मुझे लगता है इसका ऑटोमैटिक गेअर सिस्टम एक कारण हो सकता है ! क्योंकि सडको पर जिस तरह इन लो फ्लोर का संचालन ड्राइवर लोग करते है, और जाम वाली स्थिति में उसमे जल्दी-जल्दी ऑटोमैटिक गेअर का इस्तेमाल होने की वजह से और साथ में ब्रेक पर दबाब होने की वजह से इसका पिछला टायर अधिक गर्म हो जाता है, और आग पकड़ लेता है ! मेरे ख्याल से इस पर ऑटोमैटिक गेअर सिस्टम न रखके मैनुअल गेअर सिस्टम होना चाहिये !

Monday, December 14, 2009

एक ख्याल; अच्छे कर्म और ग्लोबल वार्मिंग !

आज जब ग्लोबल वार्मिंग से सम्बंधित एक लेख विस्फोट पर पढ़ा, जिसमे की आर एस एस प्रमुख श्री विष्णु भागवत के विचारों को उल्लेखित किया गया था, तो मेरे मन में भी एक ख्याल आया, जिसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ;
मेरा यह मानना है कि धर्म और कर्म एक सिक्के के दो पहलू है, और धर्म का आशय अच्छे कर्म करते हुए उच्च मर्यादाओं मे रहने से है। अगर आप भी इस बात मे विश्वास करते है और साथ ही भगवान पर भरोसा रखने वालों मे से है, तो आप लोगों को नही लगता कि इस सुपर साइंस के युग मे भी हम लोग कैसे यह सोच लेते है कि एक अकेले भगवान, चाहे वे कितने ही सर्वशक्तिमान क्यों न हो, इस पूरे विश्व को अपने ही बलबूते पर अकेले सम्भाल रहे होंगे? वह खुद ही इस धरा पर विचरण करने वाले हर एक प्राणी पर नजर रखकर उसका लेखा-जोखा करते होंगे ? वह भी तब, जब यह पूरी दुनियां ही एक से बढ्कर एक पापियों से लबालव हो। इम्पोशिबल सी बात लगती है । अगर मेरी बात सत्य है तो कल्पना कीजिये कि वे पूर्वज कितने ज्ञानी रहे होंगे, जिन्होने यह पता लगाया था कि इस दुनियां के सुचारु संचालन मे भगवान की मदद हेतु तेतीस करोड देवी-देवता भी है।

य़ों तो मै खुद भी बहुत ज्यादा धार्मिक आस्थाओं मे विस्वास रखने वाला इन्सान नही हूं, तन्त्र-मंत्र पर तो बिल्कुल भी नही। फिर भी यह जो बात मैं कह रहा हूं एवं कहने जा रहा हूं, यह मेरी एक कल्पना और ख्याल मात्र है , और उसके समर्थन मे ठोस प्रमाण मेरे पास भी मौजूद नही है। किन्तु, मेरा यह मानना है कि हमारे इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की ही भांति “ऊपर वाले” के यहां भी शीर्ष स्तर पर निसन्देह भगवान नाम के एक ही सुप्रिमो या फिर प्रधानमंत्री बैठे होंगे, मगर राज-काज को सुचारु ढंग से चलाने के लिये साथ मे बहुत सारे मंत्रीगण और व्योरोक्रेट्स भी होंगे । यहां पर जब यह बात उठी है तो यह भी कहुंगा कि बहुत सम्भव है कि जब कभी इन्हे किसी खास वजह से धरातल पर अपना भौतिक रूप धारण कर उतरना पडा होगा तो लोगो ने इन्हें देख, इन्हे एलियन अथवा दूसरे ग्रह का प्राणि कहा।

अक्सर आपने लोगों को यह कहते सुना होगा कि समय आने पर कुदरत अपना हिसाब चुकता कर देती है। जी हां, जो लोग यह बात कहते हैं, बहुत सम्भव है कि वे एकदम सही कहते हो। तो क्या है यह कुदरत? और इस कुदरत के पास वह कौन सी ऐंसी दिव्य शक्तियां हैं, जिनके बलबूते वह यह निर्धारित करती है कि किसने क्या पुण्य किये और किसने क्या पाप? जिस स्वर्ग लोक की परिकल्पना अथवा यथार्थ अविवादित रूप मे इस धरा पर मौजूद हर धर्म और उसके ग्रन्थो मे मिलता है, वह स्वर्ग है कहां ? आमतौर पर यह माना जाता है कि स्वर्ग इस अलौकिक संसार के ऊपर विध्यमान है, मगर कितने ऊपर है, यह कोई नही जानता। मेरा यह मानना है कि अगर स्वर्ग इस जग के ऊपर है, तो निश्चित रूप से इसकी सीमायें इन्सान के सिर के ऊपर से शुरु हो जाती होगी, और इस नैंसर्गिक संसार के प्राणियों की नजरों की पकड से परे, स्वर्ग की सीमा पर तैनात वे असंख्य आत्मायें और देवी-देवता गण ही वे शक्तियां होगी, जो पल-पल हमारी गतिविधियों पर नजर रखे है, जो तमाम इन्सानो के कर्मो का लेखा-जोखा तैयार कर उनपर कार्यवाही का उचित मार्ग प्रशस्थ करते होंगे । जो अच्छे और बुरे कर्म बहुत संगीन किस्म के नही होते और कार्यवाही के लिये जो इनके अधिकार क्षेत्र मे आते है, उनपर तुरन्त ही कार्यवाही सम्भव होती है , लेकिन बहुत पेचिदा और संगीन मामलों मे ऊपरी कमान से उचित कार्यवाही की संस्तुति की जाती होगी। अगर आपने कभी गौर किया हो, तो शायद यही वजह होगी कि कुछ कर्मो का फल तुरंत नजर आता है, जबकि खास किस्म के कर्मो के केस मे अक्सर इन्तजार करना पड्ता है।

यहां पर दो मजेदार बिन्दु उभरकर आते है, पहला बिन्दु यह कि भगवान मे आस्था रखने वाले बुजुर्ग लोगो के मुह से अक्सर यह बाते निकलती थी कि पुराने जमाने मे भगवान भी अपना निर्णय तुरन्त दे देते थे, मगर अब तो अन्धेर हो गई। इस बिन्दु पर मैं अपनी बात इस ढंग से पेश करुंगा कि हमें यह भी याद रखना पडेगा कि तब और अब मे आवादी मे कितना विशाल अन्तर आ चुका है, अत: कार्य बढ जाने की वजह से फैसलों मे देरी लाजमी है। हां, इतना जरूर मुझे विश्वास है कि वहां पर कोई भ्रष्टाचार और पक्षपात नही होता होगा, और न ही ऐक्शन लेने हेतु भगवान को किसी मैडम-वैडम की हरी झंडी का इन्तजार करना पड्ता होगा। दूसरा जो मजेदार बिन्दु है वह यह कि हिन्दू धर्म मे देवी-देवताओं को पूजने, उन्हे मनाने और विविध ढंग से उन्हें खुश करने की सदियों पुरानी परम्परा । इस बारे मे मैं यह कहुंगा कि अगर आप आज के इस भौतिकतावादी युग की जीवन शैली मे भ्रष्ठ तरीके अपनाने, घूस देने और दूसरी तरफ़ इन देवी-देवताओं को खुश करने की पुरानी परम्परा का तुलनात्मक अध्ययन करें, तो दो बाते यहां भी सामने आती है, एक बात यह कि तुच्छ और कमजोर किस्म के इन्सानों का अपना स्वार्थ, और दूसरी बात धर्म और अध्यात्म के बल पर उच्च कर्मो वाले इन्सान की स्वर्ग पाने की इच्छा । यहां हम यह मानकर चलते है कि तुच्छ और कमजोर किस्म का इन्सान दो भिन्न तरह के इन्सान है, तुच्छ इन्सान वह है, जो साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपनाकर क्षणिक सुख प्राप्त करता है , जबकि कमजोर इन्सान भयवश और अपनी मजबूरियों के चलते न चाहते हुए भी, जिसतरह किसी सरकारी कर्मचारी को अपना काम निकालने के लिये घूस देता है, ठीक वही बात इन्सानो द्वारा देवी-देवताओं के पूजन पर भी लागू होती है। दूसरी तरफ़ जो उच्च कर्मो को करने वाला इन्सान है, वह क्षणिक सुखों की चिन्ता किये बगैर सिर्फ़ यह सुनिश्चित करता है कि विकटतम परिस्थितियों मे भी वह अपने उच्च कर्मो को बनाये रखेगा, बिना किसी चाहत अथवा स्वार्थ के। वह देवी-देवताओ का पूजन तथा भग्वान का स्मरण भी इसी आधार पर करता है। और जिसका प्रतिफल उसे स्वत: मिलता होगा, इस दुनियां से मुक्ति के बाद, भगवान के दरवार मे एक मंत्री अथवा ब्युरोक्रेट्स के रूप मे उसकी नियुक्ति के तौर पर।

और बस, अब यहीं से शुरु होती है चिन्ता ग्लोबल वार्मिग की। उसपर अचानक हो-हल्ला भी इतना कि मानो अगली गर्मियों मे ही ग्लेशियरों के पिघलने से यह सारा जग डूब जायेगा। सरकारी और संस्थागत खर्च पर कोपेनहेगेन घूम आये, दो चार बडी-बडी बातें कर डाली, दो चार नारे, बैनर उठाकर कोपेनहेगेन की सडकों पर घूम कर लगा लिये, बस हो गई पृथ्वी ठण्डी । और ये ज्यादातर वही लोग है, जिनके पुरखों ने इस वार्मिग को बढाने मे खास रोल अदा किया और जिन्हें आज ग्लोबल वार्मिंग की चिन्ता सता रही है । क्योंकि इन्हे मालूम है कि धरा को इस ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अपना बिकराल रूप दिखाने मे अभी सौ साल लगने है और साथ ही यह भी मालूम है कि उसका अगली बार भी इसी संसार मे नम्बर लगना पक्का है, इसलिये चिन्ता मे दुबले हुए जा रहे है। तो अब इस सारी विषय-वस्तु का निचोड इसतरह से प्रस्तुत करना चांहुगा;

यह सच है कि भगवान है, और यह भी सच है कि उनका राजकाज सम्भालने हेतु करोडो देवी-देवता और असंख्य ब्योरोक्रेट्स भी मौजूद है । वहां इन्सान के हर अच्छे- बुरे कर्म का लेखा-जोखा भी होता है इमानदारी के साथ, और उसका प्रतिफल भी दिया जाता है । यह पृथ्वी नित गर्म भी हो रही है, आने वाले समय मे जलवायु परिवर्तन की वजह से इन्सानो और धरा के अन्य जीवो के समक्ष अनेकों जटिल समस्यायें आयेंगी, और जैसा कि युगो से होता चला आया है , प्राणि मात्र शनै: शनै: इन प्रभावो के अनुरूप अपने को ढाल लेगा। लेकिन सबसे भयावह होगा वह पल, जब बर्षो बाद अचानक धरा को समुद्र अपनी आगोश मे समेट लेगा । हम जो गलतियां अतीत मे कर चुके, उसका फल भी निश्चित है, अत: मेरे हिसाब से इससे बचने का बस एक ही उपाय है कि हम अपने कर्म इतने उच्च रखे कि अगले जन्म मे हमारा नम्बर स्वर्ग का आये, वापस इस धरा पर लौट आने का नही। फिर तो नो फिकर, नो टेंशन, नो ग्लोबल-व्लोबल वार्मिंग, बस मौजा ही मौजा। देर किस बात की ? बस, आज ही से शुरु हो जाये ! इस मुहीम मे मेरी भी आपको हार्दिक शुभकामनायें !

शर्मशार है लोकतंत्र !


रोज की भांति सुबह तड़के जागा और बाहर बरामदे में खडा हाथ पैर हिला-डुला रहा था कि सामने पार्क के कोने पर एक इंसानी आकृति सी दिखी! गौर से देखा तो वह अपने मोहल्ले में झाडू-पोचा करने वाली अहिल्या थी ! पार्क के कोनो में पड़े कागजो को समेट रही थी! जिस रास्ते पर सुबह अपने पालतू कुत्ते को लेकर टहलने के लिए जाता हूँ, वहीं एकदम सड़क के किनारे ही अहिल्या बाई झुग्गी डाल रहती है ! मैं जब पास से गुजरा तो वह कुछ कागज़ चूल्हे में डाल आग जलाने की कोशिश कर रही थी! मुझे देख नमस्कार बाबू जी बोली ! मैंने भी नमस्कार कहा और पूछा, ज्यादा ठण्ड हो गई है, आज सुबह-सुबह कागज समेट कर ले जा रही थी ! वह बोली , बाबूजी क्या करे, चुल्हा जलाने के लिए लकडिया ही नहीं है, और महंगाई इतनी हो गई ! फिर वह देश की एक ख़ास नेता को भद्दी गाली देने लगी ! मैंने कहा,क्या करे, इन्हें जिताते भी तो तुम्ही लोग हो ! वह बोली, नहीं बाबूजी हम तो इन्हें कभी वोट देते ही नही , क्योंकि ये जब भी आते है महंगाई बढ़ती है !

मैं आगे बढ़ा और सोचने लगा कि जब इस देश का निम्न वर्ग कहता है कि ये तो इन्हें कभी वोट देते ही नहीं, मध्यम वर्ग कहता है कि हम लोग तो पढ़े लिखे है इसलिए ऐरे-गैरे को हम वोट डालते ही नहीं! और उच्च वर्ग तो शायद ही वोट डालने निकलता हो, तो फिर वह हरामी है कौन? जो इन चोर उचक्कों को जिता कर पिछले ५०-६० सालो से इस देश का बेड़ा गरक करने पर तुला है? हिंद वासियों, उसे पहचानो और मारो उस काली भेड़ को ! अरे मोटी बुद्धि वालो, ये डंडा पकड़ कर कहा जा रहे हो ? मारने से मेरा आशय डंडे से मारना नहीं, उसको उसी शैली में मारो जिस शैली में वह अपनी गंदी तरकीबे अपनाकर पिछले बासठ साल से इस देश के हर गरीब को तिल-तिल मरने पर मजबूर कर रहे है! जागो हिंद वासियों, जागो !!
बासठ साल की आजादी के बाद, आज यह लोकतंत्र शर्मिन्दा है !
जागो हिन्दवासियों ! मानवता का खूनी दुश्मन अभी ज़िंदा है !!


खबर दैनिक हिंदुस्तान के सौजन्य से !

Friday, December 11, 2009

अंधे आगे नाच के, कला अकारथ जाए !

वतन गुलाम हुआ फिर से,कुटिलई  परिवेश का,
यही सोचता हूँ कि क्या होगा अपने इस देश का ?

फर्क  पाना मुश्किल हुआ, साधु -वद के वेश का,

यही सोचता हूँ कि क्या होगा अपने इस देश का ?

एक पटेल थे,लग्न से थी बिखरी रियासतें समेटी,
ये भी  हैं ,बांट रहे कहीं बुन्देलखन्ड,कही अमेठी !

घॊडा भाग रहा है यहां हर तरफ़, वोट की रेस का,

यही सोचता हूँ कि क्या होगा अपने इस देश का ?

मची हुई चहु दिशा में,बदइंतजामियत की  हाय ,
गिला व्यर्थ,अंधे आगे नाच,कला अकारथ जाय !   

जलाता  है खून 'परचेत’,निज शरीर अवशेष का,

यही सोचता हूँ कि क्या होगा अपने इस देश का ?

Thursday, December 10, 2009

जोकर !


वह सर्कस का जोकर,
तमाम किरदारों के मध्य,
एक अजीबो-गरीब किरदार,
मकसद सिर्फ़ और सिर्फ़
दर्शकों को हंसाना,
उनका मनोरंजन करना,
और खुद की शख्सियत
सर्कस के जानवरों से भी कम ।
जोकर जो ठहरा,
आम नजरों मे
उसकी अहमियत इतनी
कि बस उसे
एक भावना-विहीन,
नट्खट अन्दाज का
रोल अदा करने वाला,
प्राणी मात्र समझते है हम ।।

पूरे पैर पसार सोने की चाहत !

पूस की रात, दिल्ली की कुहास भरी ठण्ड, एक छोटे से सफ़र पर निकला था अमृतसर तक।  निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर कोने से सटी बेंच पर बैठ, गाडी का इन्तजार कर रहा था।  बेंच  के बगल में ही कोई मानव रुपी जीव पुरानी सी एक कम्बल ओढ़ , प्लेटफॉर्म के फर्श पर अपनी दिनभर की थकान मिटाने को व्यग्र , पैर लम्बे पसारकर  करवट बदल रहा था।  तभी कुछ दूरी से बूटो की कदमताल खामोशी को तोड़ते मेरे वाले बेंच की ओर बढ़ी , रेलवे सुरक्षा बल के जवान थे वो ।  पास से  गुजरते हुए मैं उन्हें देख  ही रहा था कि तभी अचानक मेरी ध्यान निद्रा टूटी यह देखकर कि एक जवान ने चादर  ताने उस  मानव जीव पर अपने बूट की ठोकर मारी और कड़ककर बोला, " हे बिहारी, पैर भांच के सो" !


बूट की ठोकर से और  कडकडार सुर सुनकर  वह  जीव हडबडाकर  उठ बैठा था।  एक नजर दूर जाते जवानो पर और एक नजर उसने मुझपर डाली।  यही कोई ६०-६५ साल का वृद्ध, कोई रिक्शा चालाक सा मुझे लगा।   उसने अपनी  पुरानी कम्बल फिर से अपने ऊपर  ओढ़ी और बडबडाया, "हे प्रभु ! वो दिन कब आयेगा जब मैं पूरे पैर पसार कर सो पाऊँगा,बेख़ौफ़,किसी के बूट की ठोकरों से बेखबर ?? "

Monday, December 7, 2009

सवाल हुर्रियत की भूमिका का भी है !

ऐसा होता आया था, और इस बार भी हुआ कि सरकार और नरमपंथी हुर्रियत कांफ्रेंस के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले हुर्रियत कांफ्रेंस के वरिष्ठ नेता फजल हक कुरैशी को गोलियों से छलनी कर दिया गया। ऐसा क्यों होता है कि जब-जब जम्मु-कश्मीर मे किसी राजनैतिक पहल की सम्भावना बनती है, मध्यस्थ को निशाना बना दिया जाता है? पहले भी जब गुप्त तरीके से इस तरह की बातचीत का ढोंग रचा गया, मध्यस्थ को ही निशाने पर रख कर इन्होने अपनी दूकान चालू रखने में उसका फायदा उठाया । लोग सीधे तौर पर पाकिस्तान और पाक समर्थित आतंकवादियों के सिर दोष मडकर, मामले को वहीं तक सीमित समझ लेते है। जबकि हकीकत मे इसका एक पहलू और भी है जिस पर गौर करना भी नितांत आवश्यक है। अगर गौर से हम देखे तो जो हुर्रियत कांफ्रेस के दो धडो, चरमपंथी और नरमपंथी की बात की जाती है, हकीकत मे ऐसा कुछ नही, या यूं कह लीजिये कि या तो पूरा ही धडा चरमपंथी है या फिर मौका परस्त। हमें यह समझने की कोशिश करनी होगी कि चाहे वह उदारवादी धड़े के प्रमुख मीरवाइज उमर फारुक हो अथवा कट्टरवादी गिलानी गुट , सिक्का एक ही है, और मौके के हिसाब से चलन बदलता रहता है। एक ऐसा मौका परस्त लोगो का संगठन, जिसने पिछ्ले दो दशकों से जम्मु-कश्मीर मे पाक समर्थित आतंकवाद का भरपूर फायदा उठाते हुए अपनी पांचो उंगलिया घी मे डुबो कर रखी है। अपने ही स्वार्थो की पूर्ति के लिये जब-तब लोगो की खासकर वहां के युवा वर्ग की भावनायें भड्काकर ये पाकिस्तान मे बैठे आंकाओ के जरिये खुद को कश्मीरी रह्नुमा बताकर आतंक के नाम पर अतंराष्ट्रीय स्तर पर धन उगाही करते है, और जब लगता है कि किसी वजह से उस माध्यम के जरिये धन की आपूर्ति मंद पड रही है तो इन्हे इस ओर राजनैतिक गठजोड के मार्फ़त भारत से माल ऐंठने की गुंजाइश दीखती है और इनका वह तथाकथित नरमपंथी धडा नया नाटक रच एक मध्यस्थ रूपी सोफ़्ट टारगेट खडाकर लोगो की सहानुभूति बटोरने के लिये कुछ समय बाद उस मध्यस्थ को ही बलि का बकरा बना डालते है। अगर ऐसी बात नही है तो फिर क्या वजह थी कि पिछले सारे इनके बातचीत के प्रयास एक खास स्तर के बाद विफल होते गये ? आज जरुरत है इस पहलू को भी गौर से देखने की। यह खेद की बात है कि शक्ति बरतने के बजाये हम इन मुद्दों को हलके में लेते है, और बाद में हमें असम के उग्रवादी संघठन उल्फा के स्वयंभू मुखिया के जैसी शर्ते सुनने को मिलती है !

Saturday, December 5, 2009

मानसिकता !


(चित्र नेट से साभार )
यों तो गुलामियत का डीएनए हमारी रगों में चिरकाल से रहा है, मगर मैं हम भारतियों की रगों में पूर्ण रूप से इसको विकसित करने में मैकाले को इसका काफी श्रेय देता हूँ ! भारत में इस्लामिक शासन की स्थापना के शुरूआती दौर में गुलाम बंश, खिलजी बंश, तुगलक बंश, शैय्यद बंश, लोधी बंश से फलना-फूलना शुरू हुआ यह अभिशाप सोलहवी सदी में जब इस्लामिक शासको का दमनचक्र बढना शुरू हुआ और फिर अगली सदी में इनके पतन के बाद भारत में ब्रिटिश राज स्थापित हुआ तो मैकाले के ब्रिटेश शिक्षा प्रणाली के प्रसार के बाद तो यह अपने चरम को ही छू गया ! William Carey in one of his letters, described Indian music as "disgusting Charles Grant published his "Observations" in 1797 in which he attacked almost every aspect of Indian society and religion, describing Indians as morally depraved, "lacking in truth, honesty and good faith" (p.103). British Governor General Cornwallis asserted, "Every native of Hindustan, I verily believe, is corrupt".

जहां एक ओर हममे कम आत्म सम्मान और गुलाम मानसिकता को पैदा करने में ब्रिटिश प्रणाली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जहाँ हम कुछ भारतीयों में गोरी चमड़ी आज भी एक सम्मान का विषय है , वहीं हमारे आज के काली चमड़ी वाले साहब लोग ( IAS / PCS/ Political leaders and so called elite class) भी उसी पद्धति को अपनाए हुए है, जिसे मैकाले ने ब्रिटिश स्कूलिंग सिस्टम के तहत हमें सिखाया था ! यह चित्र सिर्फ़ इस बात को दर्शाने के लिए ही लगाया गया है कि हमारा सोचने का स्तर कितना उच्च है !

जरुरत आन पडी है !

Friday, December 4, 2009

ये वोटर कब सुधरेंगे ?


इस तथ्य को जानते हुए भी कि आज के इस युग में एक अपराधी और दुराचारी को सुधारना नामुमकिन जैसी बात है, फिर भी हम लोग, यहाँ तक कि उच्च शिक्षित वर्ग के लोग भी जब देश में राजनैतिक और प्रशासनिक सुधारों की बात आती है तो पहले तो इन राजनीतिज्ञो को दो-चार गालियाँ देते है और फिर मासूमियत से कहते है कि देश के राजनीतिज्ञो को सुधारा जाए, सब अपने आप सुधर जाएगा ! कैसे सुधारा जाए इस ओर कोई ध्यान नहीं देता ! हम भूल जाते है कि इस देश में एक ख़ास किस्म का "वोटर वर्ग" भी है, जिसकी इस देश की राजनीती में एक अहम् दखल है, क्योंकि इसकी कृपा से शरीफ और ईमानदार इंसान भले ही सफल न हो, मगर कोई भी चोर उचक्का, बदमाश, कातिल, भ्रष्ट और देशद्रोही इस देश की सत्ता पर काबिज हो सकता है! अगर हम सच में देश की फिकर करते है तो आज जरुरत है इस वोटर वर्ग को सुधारने की ! क्योंकि इस वोटर वर्ग और इसके वोटबैंक की वजह से ही इस देश की आज यह राजनैतिक दुर्दशा दृष्टिगौचर है ! इस ख़ास वोटर वर्ग ने अपने तुच्छ निहित स्वार्थो के चलते कभी यह नहीं सोचा कि जिसे हम झुंडों में जाकर वोट देकर जिता रहे है, वह आगे चलकर इस देश को कहाँ ले जाएगा ?

अगर पिछले ३-४ दशको पर गौर से नजर डाले तो इस वोटर वर्ग ने सिर्फ और सिर्फ कुछ संकीर्ण मुद्दों पर ही वोट डाला और देश के व्यापक हित में कभी नहीं सोचा ! उसने कभी भी यह नहीं देखा कि जिसे वोट दिया जा रहा है क्या वह एक देश की बागडोर संभालने के सभी मानको को पूरा करता है ? क्या वह पढ़ा लिखा है, उसका चरित्र कैसा है ? उसकी पृष्ठभूमि कैसी है? बस, जिसने उसे लुभावने वादे दिए उसी को वोट दे दिया ! और नतीजा आज हम देख रहे है अपनी इस राजनीति का ! दूसरी तरफ जो शिक्षित वर्ग है, बाते तो वह बड़ी-बड़ी कर लेता है, मगर क्या वह इतना नहीं जानता कि जब कुल वोटर संख्या का मुश्किल से बीस प्रतिशत वोटर पूरी राजनीति का ही रुख बदल सकता है तो अगर देश का ४० प्रतिशत शिक्षित युवा वर्ग सोच समझ कर वोट डाले तो पूरे देश का भविष्य ही बदल सकता है! अन्य बैंको के कामकाज में बड़े-बड़े सुधारों की तो हम बात करते है पर पता नहीं इस वोटर बैंक की कार्यप्रणाली को सुधारने की बात हम कब सोच पाएंगे ?

To err is human to forgive is devine

एक बार फिर से अंग्रेजी की चार लाईने और ठेल रहा हूँ ब्लॉग पर ;
Yes, I have committed a sin,
If you think love is a crime.
I brought down the sky for you,
like a drink with a twist of lime.
Of course, It’s nobody’s fault but mine.
Now , all I can say is that
To err is human to forgive is divine.
You can just pray to a god,
please forgive him, Oh lord !
as he doesn’t know what he is doing.
What is the theme of love and wooing.
Frankly My dear, I don't give a damn,
For me, every day is a day of valentine,
That’s why I say,
To err is human to forgive is divine.


Thursday, December 3, 2009

यूनियन कार्बाइड !

वीरान हो गई वो सजीव वादियाँ  ,
रहते थे जहां इन्सान कल तक ,
घूंट जहर का  उन्हें ही  पिलाया ,
थे तुम्हारे जो कदरदान कल तक।

थम गया सब कुछ पल दो पल मे,
था  न वह सहरा  वीरान कल तक,
अब है नहीं जहां धड़कन की आहट ,
साँसों के  थे वहाँ तूफ़ान कल तक।

उन्हें मारा बेदर्दी तडफ़ाके तुमने ,
समझे थे तुमको नादान कल तक,
शरद तिमिर में  उनको ही लूटा ,
जिनके थे तुम मेहमान कल तक।

उजड़ी सी लगती है आज जो बस्ती ,
लगती नहीं थी वो बेजान कलतक,
संजोया था जो इक ख्वाबो का शहर,
लगता नही था वो शमशान कल तक।

- भोपाल गैस त्रास्दी पर इसे ३० दिसम्बर, १९८४ को लिखा था।  

फ्रांस की क्रांति जैसी क्रांति क्या इस देश मे भी….. ?



शुरु करने से पहले, संक्षेप मे आये देखें कि क्या थी फ्रांस की क्रान्ति और कैसे आई थी वह क्रांति।१७८९ -१७९९ फ्रांस के इतिहास में राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल और आमूल परिवर्तन की अवधि थी, जिसके दौरान फ्रांस की सरकारी सरंचना, जो पहले कुलीन और कैथोलिक पादरियों के लिए सामंती विशेषाधिकारों के साथ पूर्णतया राजशाही पद्धति पर आधारित थी, अब उसमें आमूल परिवर्तन हुए और यह नागरिकता और अविच्छेद्य अधिकारों के प्रबोधन सिद्धांतों पर आधारित हो गयी। आर्थिक कारकों में शामिल थे अकाल और कुपोषण, जिसके कारण रोगों और मृत्यु की सम्भावना में वृद्धि हुई, और क्रांति के ठीक पहले के महीनों में आबादी के सबसे गरीब क्षेत्रों में भुखमरी की स्थिति पैदा हो गयी। अधिक बेरोजगारी और रोटी की ऊँची कीमतों के कारण भोजन पर अधिक धन व्यय किया जाता था, और अन्य आर्थिक क्षेत्रों में धन का व्यय अल्प होता था। भ्रष्टाचार अपने चरम पर था, और यह भी एक उलेखनीय बात है की इस क्रांति को सुलगाया वहाँ की महिलाओं ने । कहा जाता है की एक बार जब तंग आकार महिलाओ ने उस होता को घेरा जिसमें शाही परिवार ठहरा था, तो जब राजकुमारी ने उनके आन्दोलन करने का कारण पूछा तो लोगो ने कहा की हम भूखे है हमें रोटी नहीं मिलती तो उसका जबाब था की अगर रोटी नहीं है तो ब्रेड क्यों नहीं खा लेते ? बस, राजकुमारी के इस कथन ने एजी में घी का कम किया और फ़्रांस जल उठा।



एक अन्य कारण यह तथ्य था कि लुईस XV ने कई युद्ध लड़े, और फ्रांस को दिवालिएपन के कगार पर ले आये, और लुईस XVI ने अमेरिकी क्रांति के दौरान उपनिवेश में रहने वाले लोगों का समर्थन किया, जिससे सरकार की अनिश्चित वित्तीय स्थिति और बदतर हो गयी। आखिरकार 9 नवंबर 1799 को (18 Brumaire of the Year VIII) नेपोलियन बोनापार्ट ने 18 ब्रुमैरे के तख्तापलट का मंचन किया जिसने वाणिज्य दूतावास की स्थापना की. इससे प्रभावी रूप से बोनापार्ट की तानाशाही को मदद मिली और अंत में (1804 में) उसे सम्राट (Empereur) बनाया गया. जो फ्रांसीसी क्रांति की रिपब्लिकन अवस्था को विशेष रूप से करीब ले आया।


आज हालात तो हमारे देश मे भी उस क्रांति के पहले के फ़्रांसिसी हालात से ज्यादा भिन्न नजर नही आते है। आज जब हमारा यह देश, जहां मंदी, महंगाई और बेरोजगारी की वजह से भुखमरी के कगार पर खडा है, जहां आज देश का गरीब तबका सौ रुपये किलो की दाल खरीदने को मजबूर है, आज जहां एक अस्सी रुपये की धिआडी कमाने वाला मजदूर अपने परिवार को दो जून की रोटी मुहैया करा पाने मे असमर्थ है, वहीं दूसरी तरफ़ महाराष्ट्रा की कौंग्रेस-एनसीपी सरकार अपने नेताऒं के युवा होनहार नौनिहालों को न सिर्फ़ अनाज से दारू बनाने के लाइसेंस बांट रही है, अपितु उन्हे अन्य सुविधायें भी सरकारी खर्च पर मुहैया करवा रही है। अब जरा सोचिये, एक तरफ़ देश की जनता के पास अपने बच्चो को भरपेट खिलाने के लिये अनाज उप्लब्ध नही है, वहीं दूसरी तरफ़ ये देश के राजनीतिज्ञ उस बहुमुल्य अनाज से दारू बनाकर मोटी रकम कमाने पर आमदा है। इनकी बला से देश और देश की गरीब जनता जाये भाड मे। हमारे इस देश के सेक्युलर मीडिया ने भले ही अपने निजी स्वार्थो के चलते इसे बडी खबर न बनाया हो लेकिन आपको शायद यह’ याद हो, कि करीब डेड साल पह्ले हमारी सरकार ने हजारों टन गेहुं आयात किया था, मगर चुंकि वह गेहुं जानवरों को खिलाने के लिये भी उपयुक्त न था, अत: उसे, जैसा कि कुछ खबरों मे बताया गया था, समुद्र मे ही डुबा दिया गया । आपको शायद मालूम हो कि हजारों टन दाल जो आयात कर कलकता पोर्ट पर आई थी, वह समय पर न उठा पाने की वजह से बन्दरगाह पर पडे-पडे ही सड गई। इन सब घटनाओ से तो ऐसा ही लगता है कि देश और जनता की किसी को कोई फिक्र नही।

लगता तो यह है कि शायद अपने अच्छे कर्मो ( मालूम नही इस जन्म या पिछले जन्म) की वजह से मौन सिंह एकदम मौन बैठा अपनी रिटायरमेंट जिन्दगी मजे से गुजार रहा है, और उनकी प्रोक्सी तले, और इस देश की मूर्ख वोटर जमात की वजह से देश की सत्ता पर काबिज लोग, दोनो हाथों से देश को लूटने मे लगे है। गरीब और अमीर न कहकर यों कहे कि गरीब और लुटेरों के बीच खाई निरन्तर बढती ही जा रही है। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह सब कुछ यों ही चलता रहेगा या फिर लोग फ़्रांस जैसी किसी क्रांति के लिये अपने हक मे उठ खडे होने का साहस दिखा पायेंगे ? दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते है कि क्या ये लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारे भी इस देश की जनता को उस स्थिति तक पहुँचने के लिए मजबूर कर रही है ?

Wednesday, December 2, 2009

धुंधलाई यादे !

कल एक आंग्ल भाषा में कविता लिखी थी, "फ़ॉगी मेमोरी" कुछ सम्मानीय पाठको ने उसके अनुवाद की पुरजोर मांग की थी अत: यहाँ उसका छंद क्रमश: अनुवाद प्रस्तुत है, कविता रूपी अंदाज में ढालने के लिए अनुवाद को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहा हूँ ;


मदमस्त तेरा जहां आज भौरों ने घेरा है !,
लेकिन ऐ दोस्त ! तुझे याद है कि
तेरा प्यार ही तो यहाँ,सब कुछ मेरा है !!
तुम्हे बताऊ,तुम्हे भुलाना नामुमकिन है !
युगों से मेरा दिल,
ज्यों किसी बूढ़े खलिहान की तरह
टूटकर हो गया छिन्न-भिन्न है !!

I know, your life is full of bumblebee,
But, your love is everything for me .
do you remember, eh, Mate ?
you are so hard, so hard to forget.
I miss you, I wanna tell you,
for epoch,an old barn falling apart!
across the inner circle of my heart !!


तकदीर का उसकी ख़याल न कर,
जो तुमने लिखे प्यार के चार अक्षर ,
नहीं मालूम कि
जान के लिखा था या अनजाने में !
ताजे बर्फ की उस चादर पर ,
तुम्हारी कला के हर कण ने
क्या खुशी भरी थी मेरे दिल के तहखाने में !!
Once, without knowing its fate,
You wrote ‘l’ ‘o’’v’’e’, four alphabets.
willingly or unwillingly don’t know,
Like on the keffiyeh of fresh snow.
And gladness filled
every ounce of your art !
across the inner circle of my heart !!


मेरा पागलपन कह लो इसे मगर,
तुम रुकी थी वहाँ , मेरे दिल के बीचो-बीच ,
और मासूमियत से यह उल्लेख किया था
कि तुमने मुझसे प्यार किया !
और फिर प्यार से इसतरह मारा
कि एक तीर
मेरे दिल के पार उतार दिया !!
At middle of the circle on a hoarding,
It looks funny, but you had a boarding.
and you mentioned innocently there,
“I love you so much, oh, my dear”
You killed me loftly-softly
with a dart !
across the inner circle of my heart !!


धीमे से वहाँ बैठकर रंगने लगी थी
तुम मेरे दिल को यों,
सच है न ? फिर तस्वीर बिगड़ी
अचानक क्यों ?
याद करो उन खुशनुमा पलो में !
मै चुस्त और तुम अभी भी ख़ूबसूरत
चलकर बस जाए फिर से दिलो में !!
You sat down slowly and began to paint,
and you colored entire my heart, ain’t ?
why painting turned suddenly so bad ?
Remember the good times that we had?
you’re equally beautiful,
‘m smart !
across the inner circle of my heart !!


बिना किसी द्वेष और हिचक के
आ जाओ तुम मेरे पास, तुम्हारा स्वागत है
कोई बोझ नहीं, कोई कर नहीं !
जब चाहो उतर आना दिल में गाडी समेत ,
दिल की सड़क हर वक्त खुली है,
और उसमे कोई दर नहीं !!
Without any hesitation and malice
you are always welcome at my place
no levy, no toll-tax, no gate even
anytime, as the road is open 24x7
you can joy drive in
with your cart !
across the inner circle of my heart !!

क्या इस देश में गरीब अब अपनी बेटी की शादी कर पायेगा ?



कागजों पर हमारे देश में बहुत ही लुभावनी कार्यवाहियां होती है, मसलन भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय इस देश में बेटियों के लिए बड़े-बड़े प्रोत्साहन की घोषणाये करता है, राज्य सरकारें बेटी होने पर पता नहीं क्या-क्या खाते खुलवाकर इनाम बाटती फिरती है, उन्हें मुफ्त शिक्षा और पता नहीं क्या-क्या सुविधाए उपलब्ध कराती है। मगर फिर सवाल वही की हकीकत में क्या सचमुच ऐसा होता है? पासबुके खुल भी रही हों तो क्या गारंटी है कि वह पास बुक किसी गरीब की ही बेटी के नाम है ? क्या मापदंड हमारे पास है यह देखने के लिए कि वह पासबुक किसी नेता या नौकरशाह की बेटी के नाम नहीं है? सुनने और पढने में यह भली ही हास्यास्पद लगता हो लेकिन हकीकत भी इससे बहुत दूर नहीं है।

आज देश बाजारीकरण और ग्लोबलाइजेशन के दौर से गुजर रहा है, जहां सुई से लेकर सेटेलाईट तक की कीमतों का निर्धारण दुनिया के तमाम बाजारी शक्तियां निर्धारित करती है। अन्य देशो के मुकाबले हमारे इस देश में सदियों से सोना एक विवाहित स्त्री का मुख्य आभूषण रहा है और एक गरीब से भी गरीब व्यक्ति को अपनी बेटी के व्याह के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए कम से कम डेड से दो तोला सोना तो चाहिए ही होता है। और आज जिन खुले बाजार की ताकतों के बलबूते पर, वायदा कारोबारियों की मिलीभगत के चलते सोना आसमान चढ़ता जा रहा है उससे तो नहीं लगता कि आने वाले समय में इस देश में पहले ही बेरोजगारी और महंगाई की मार झेल रहा एक गरीब, अपनी बेटी के हाथ पीले कर पायेगा। आज के सोने के भावों पर नजर डाले तो अन्तराष्ट्रीय बाजार में सोना १२०० से कुछ अधिक डालर प्रति औंस( करीब तीन तोला यानि २८.३६ ग्राम) तक पहुँच गया है। इसे अगर भारतीय मुद्रा में देखे तो (१२००*४७/२.८३) करीब १९५००/- के आसपास तक सोना जा सकता है, जोकि अभी १८००० रूपये के ऊपर है। अब आप खुद सोचिये कि अगर एक गरीब व्यक्ति कुछ भी न करे और सिर्फ दो तोले सोने के साथ भी लड़के वालो को अपनी लडकी पकडाए तो ४० से ५० हजार रूपये तो उसे तब भी चाहिए।

मेरा इस देश की सरकार से सवाल और आग्रह है कि आज की इन परिस्थितयों में, जबकि यह सरकार कुछ भी नियंत्रण रख पाने में अपने को इन शक्तियों के आगे असमर्थ पा रही है, यदि वाकई सरकार लड़कियों के विषय में गंभीर है तो लड़कियों के बेहतर भविष्य और प्रोत्साहन के नाम पर कोरे प्रोत्साहनों और अरबो रूपये इधर से उधर करने के बजाये, उन गरीब लोगो को सोना सब्सिडी पर उपलब्ध कराये, जिन्हें अपनी बेटियाँ व्याहनी है। क्या कोई मेरी इस बात को सुनेगा ?

Tuesday, December 1, 2009

Foggy memory !

यों तो अग्रेजी में हाथ बहुत साफ़ नहीं है ,या यूँ कह लीजिये कि बहुत तंग है ! मगर आज बस, परखने के लिए एक अंगरेजी पोएम लिखी, इसे भी ब्लॉग पर ठेल रहा हूँ आपके सुझाओ की प्रतीक्षा में ;

I know, your life is full of bumblebee,
But, your love is everything for me .
do you remember, eh, Mate ?
you are so hard, so hard to forget.
I miss you, I wanna tell you,
for epoch,an old barn falling apart!
across the inner circle of my heart !!

Once, without knowing its fate,
You wrote ‘l’ ‘o’’v’’e’, four alphabets.
willingly or unwillingly don’t know,
Like on the keffiyeh of fresh snow.
And gladness filled
every ounce of your art !
across the inner circle of my heart !!

At middle of the circle on a hoarding,
It looks funny, but you had a boarding.
and you mentioned innocently there,
“I love you so much, oh, my dear”
You killed me loftly-softly
with a dart !
across the inner circle of my heart !!

You sat down slowly and began to paint,
and you colored entire my heart, ain’t ?
why painting turned suddenly so bad ?
Remember the good times that we had?
you’re equally beautiful,
‘m smart !
across the inner circle of my heart !!

Without any hesitation and malice
you are always welcome at my place
no levy, no toll-tax, no gate even
anytime, as the road is open 24x7
you can joy drive in
with your cart !
across the inner circle of my heart !!

घुन लगी न्याय व्यवस्था और न्यायिक आयोगों का औचित्य !

गौर से देखे तो आज हमारी पूरी क़ानून व्यवस्था ही एक जर्जर अवस्था में पहुँच चुकी है । जो अंग्रेजो के काल से चली आ रही जटिल न्यायिक व्यवस्था इस देश में मौजूद है वह आज अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। और यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश के तथाकथित तीन महत्वपूर्ण किन्तु भ्रष्ट खम्बो में से एक जो यह खम्बा भी है, इस पर से भी लोगो का विश्वास धीरे-धीरे उठता जा रहा है। हमारी न्यायिक व्यवस्था को पाकिस्तान से आया आतंकवादी कसाब आज मुह चिढा रहा है। सब कुछ खुला-खुला है कि इस आतंकवादी ने क्या किया, मगर सालभर से अधिक का वक्त और ३१ करोड़ रूपये खर्च करने के बाद भी हमारी न्याय व्यवस्था उसके साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेल रही है। दूसरी तरफ लिब्राहन आयोग, और अन्य इसी तरह आयोग हमारी जांच प्रणाली पर ही सवालिया निशान लगा रहे है। खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, यह कहावत सिर्फ अयोध्या के ही केस में नहीं चरितार्थ होती अपितु अन्य मामलो जैसे बोफोर्स, १९८४ के दिल्ली दंगे, नब्बे के दशक के मुंबई दंगे और बमकांड, चारा घोटाला इत्यादि-इत्यादि सभी पर लागू है।

सरकारिया काम-काज के तरीके और राजनीतिज्ञो के आचरण से भी नहीं लगता कि कोई इस बारे में गंभीर भी है। आज जरुरत है कि जनता एक स्वर में उठ खडी हो, और इन तीनो खम्बो में सुधार की मांग करे। यदि सरकार किसी जांच के लिए कोई आयोग बनाती है और आयोग को रिपोर्ट देने के लिए तीन महीने का समय देती है, लेकिन यदि तीन महीने बाद वह इस जांच के लिए समय अवधि में फिर से विस्तार करती है, तो यह समझ लेना चाहिए कि या तो सरकार या फिर जांचकर्ता ईमानदार नहीं है, उनमे से किसी एक अथवा दोनों के दिलो में खोट है । कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों और देश हित में अगर इस समयाविस्तार की जरुरत पड़ती भी है, तो सरकार को यह क़ानून बनाना चाहिए कि कोई भी आयोग किसी भी स्थिति में एक साल से अधिक का समय नहीं ले सकता, और कोई भी न्यायालय किसी केस को दो साल से अधिक नहीं खींच सकता, चाहे केस भले ही कितना भी जटिल क्यों न हो। उसे दो साल के अन्दर हर हाल में फैसला सुनना ही पड़ेगा,फिर देखिये कैसे नहीं आती न्याय व्यवस्था पटरी पर ।

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...