वीरान हो गई वो सजीव वादियाँ ,
रहते थे जहां इन्सान कल तक ,
घूंट जहर का उन्हें ही पिलाया ,
थे तुम्हारे जो कदरदान कल तक।
थम गया सब कुछ पल दो पल मे,
था न वह सहरा वीरान कल तक,
अब है नहीं जहां धड़कन की आहट ,
साँसों के थे वहाँ तूफ़ान कल तक।
उन्हें मारा बेदर्दी तडफ़ाके तुमने ,
समझे थे तुमको नादान कल तक,
शरद तिमिर में उनको ही लूटा ,
जिनके थे तुम मेहमान कल तक।
उजड़ी सी लगती है आज जो बस्ती ,
लगती नहीं थी वो बेजान कलतक,
संजोया था जो इक ख्वाबो का शहर,
लगता नही था वो शमशान कल तक।
- भोपाल गैस त्रास्दी पर इसे ३० दिसम्बर, १९८४ को लिखा था।
रहते थे जहां इन्सान कल तक ,
घूंट जहर का उन्हें ही पिलाया ,
थे तुम्हारे जो कदरदान कल तक।
थम गया सब कुछ पल दो पल मे,
था न वह सहरा वीरान कल तक,
अब है नहीं जहां धड़कन की आहट ,
साँसों के थे वहाँ तूफ़ान कल तक।
उन्हें मारा बेदर्दी तडफ़ाके तुमने ,
समझे थे तुमको नादान कल तक,
शरद तिमिर में उनको ही लूटा ,
जिनके थे तुम मेहमान कल तक।
उजड़ी सी लगती है आज जो बस्ती ,
लगती नहीं थी वो बेजान कलतक,
संजोया था जो इक ख्वाबो का शहर,
लगता नही था वो शमशान कल तक।
- भोपाल गैस त्रास्दी पर इसे ३० दिसम्बर, १९८४ को लिखा था।
मारा बेदर्दी तूने हर उस एक शख्स को,
ReplyDeleteजो समझता था तुझको नादान कल तक !
उसी का लूटा घरबार कुहरे की धुंध में ,
बनकर रहा जिसका तू मेहमान कल तक !!
ग़ज़ब भाईजी इससे शानदार कुछ नहीं हो सकता !!!
ब्लागिंग के फायदे देखिए .. इतनी पुरानी रचना हम मौके पर पढ पा रहे हैं .. बहुत सुंदर लिखा था आपने !!
ReplyDeleteबिख्ररे पडे जहां हरतरफ हड्डियो के ढेर,
ReplyDeleteइसकदर तो न थी वह बस्ती बेजान कलतक !
संजोया था अपना जो ख्वाबो का भोपाल,
लगता नही था जालिम वो शमशान कल तक !!
गो्दियाल साब उजड़ा हुआ भोपाल हमने देखा था।
आपकी जानदार कविता के लिए शानदार बधाई।
भोपाल त्रासदी एक ऐसी अनहोनी जिसे हम सब कभी भी भूल नही पाएँगे..और गोदियाल जी रचना बहुत सुंदर है एक कलाम से निकले शब्द वो चीज़ है जो कभी पुराने नही होते जब मन गुनगुनता है नये हो जाते है...धन्यवाद जी
ReplyDeleteएक बहुत अच्छी कविता, लेकिन यह जख्म तो बेगानो ने दिया, ओर उस पर नमक हमारी उस समय की सरकार ने छिडका, लोग आज भी हम होते हुये भिखारियो की तरफ़ इन हरामियो से हर्जाना मांग रहे है.. दिल जलता है
ReplyDeleteइस त्रासदी से त्रस्त परिवारों को आज तक भी न्याय न मिलना हमारी सरकार की अकर्मण्यता को जाहिर करता है।
ReplyDeleteइस त्रासदी में आहात हुए हज़ारों लोगों के प्रति एक संवेदनशील रचना।
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा की ये कविता आपने २५ साल पहले लिखी थी।
बहुत सुन्दर.कडवा सच भी.
ReplyDeleteसच्ची शब्दांजली।
ReplyDeletemarmik abhivyakti
ReplyDeleteआपकी कविता पढ कर मन भारी हो गया। ईश्वर से यही काना है कि वह इस त्रासदी की भेंट चढे लोगों की आत्मा को शान्ति और इसके शिकार जीवित लोगों को सुकून नसीब करे।
ReplyDeleteऔर हाँ, आपका ईमेल आईडी क्या है, बताने का कष्ट करें, जिससे तस्लीम पहेली-53 का वर्चुअल विजेता प्रमाण पत्र आपको भेजा जा सके।
zakirlko@gmail.com
एक दर्द हम भी भोग रहें हैं
ReplyDeleteसच कितनी भयावह है दुनिया
"भोपाल वाली बुआ की " जो ज़िंदा ज़रूर हैं किन्तु
उसी का लूटा घरबार कुहरे की धुंध में ,
ReplyDeleteबनकर रहा जिसका तू मेहमान कल तक ....
सच कहा ये मेहमान बन कर आते हैं और छुरा घोप कर चले जाते हैं ......... यही सच है इन मल्टिनीशनल कंपनिओ का ...... मार्मिक रचना ........
ek kadve sach ko ujagar karti bahad marmik rachna.
ReplyDeletebahut sundar likha hai Godiyal ji..
ReplyDeleteउस दिन एक त्रासदी हुई, लेकिन आज २५ साल बाद भी लोग सहायता के लिये तरस रहे हैं, ये सबसे बड़ी त्रासदी है
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