Thursday, December 3, 2009

यूनियन कार्बाइड !

वीरान हो गई वो सजीव वादियाँ  ,
रहते थे जहां इन्सान कल तक ,
घूंट जहर का  उन्हें ही  पिलाया ,
थे तुम्हारे जो कदरदान कल तक।

थम गया सब कुछ पल दो पल मे,
था  न वह सहरा  वीरान कल तक,
अब है नहीं जहां धड़कन की आहट ,
साँसों के  थे वहाँ तूफ़ान कल तक।

उन्हें मारा बेदर्दी तडफ़ाके तुमने ,
समझे थे तुमको नादान कल तक,
शरद तिमिर में  उनको ही लूटा ,
जिनके थे तुम मेहमान कल तक।

उजड़ी सी लगती है आज जो बस्ती ,
लगती नहीं थी वो बेजान कलतक,
संजोया था जो इक ख्वाबो का शहर,
लगता नही था वो शमशान कल तक।

- भोपाल गैस त्रास्दी पर इसे ३० दिसम्बर, १९८४ को लिखा था।  

16 comments:

  1. मारा बेदर्दी तूने हर उस एक शख्स को,
    जो समझता था तुझको नादान कल तक !
    उसी का लूटा घरबार कुहरे की धुंध में ,
    बनकर रहा जिसका तू मेहमान कल तक !!
    ग़ज़ब भाईजी इससे शानदार कुछ नहीं हो सकता !!!

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  2. ब्‍लागिंग के फायदे देखिए .. इतनी पुरानी रचना हम मौके पर पढ पा रहे हैं .. बहुत सुंदर लिखा था आपने !!

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  3. बिख्ररे पडे जहां हरतरफ हड्डियो के ढेर,
    इसकदर तो न थी वह बस्ती बेजान कलतक !
    संजोया था अपना जो ख्वाबो का भोपाल,
    लगता नही था जालिम वो शमशान कल तक !!
    गो्दियाल साब उजड़ा हुआ भोपाल हमने देखा था।
    आपकी जानदार कविता के लिए शानदार बधाई।

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  4. भोपाल त्रासदी एक ऐसी अनहोनी जिसे हम सब कभी भी भूल नही पाएँगे..और गोदियाल जी रचना बहुत सुंदर है एक कलाम से निकले शब्द वो चीज़ है जो कभी पुराने नही होते जब मन गुनगुनता है नये हो जाते है...धन्यवाद जी

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  5. एक बहुत अच्छी कविता, लेकिन यह जख्म तो बेगानो ने दिया, ओर उस पर नमक हमारी उस समय की सरकार ने छिडका, लोग आज भी हम होते हुये भिखारियो की तरफ़ इन हरामियो से हर्जाना मांग रहे है.. दिल जलता है

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  6. इस त्रासदी से त्रस्त परिवारों को आज तक भी न्याय न मिलना हमारी सरकार की अकर्मण्यता को जाहिर करता है।

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  7. इस त्रासदी में आहात हुए हज़ारों लोगों के प्रति एक संवेदनशील रचना।
    पढ़कर अच्छा लगा की ये कविता आपने २५ साल पहले लिखी थी।

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  8. बहुत सुन्दर.कडवा सच भी.

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  9. आपकी कविता पढ कर मन भारी हो गया। ईश्वर से यही काना है कि वह इस त्रासदी की भेंट चढे लोगों की आत्मा को शान्ति और इसके शिकार जीवित लोगों को सुकून नसीब करे।

    और हाँ, आपका ईमेल आईडी क्या है, बताने का कष्ट करें, जिससे तस्लीम पहेली-53 का वर्चुअल विजेता प्रमाण पत्र आपको भेजा जा सके।
    zakirlko@gmail.com

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  10. एक दर्द हम भी भोग रहें हैं
    सच कितनी भयावह है दुनिया
    "भोपाल वाली बुआ की " जो ज़िंदा ज़रूर हैं किन्तु

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  11. उसी का लूटा घरबार कुहरे की धुंध में ,
    बनकर रहा जिसका तू मेहमान कल तक ....
    सच कहा ये मेहमान बन कर आते हैं और छुरा घोप कर चले जाते हैं ......... यही सच है इन मल्टिनीशनल कंपनिओ का ...... मार्मिक रचना ........

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  12. ek kadve sach ko ujagar karti bahad marmik rachna.

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  13. उस दिन एक त्रासदी हुई, लेकिन आज २५ साल बाद भी लोग सहायता के लिये तरस रहे हैं, ये सबसे बड़ी त्रासदी है

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।