पूस की रात, दिल्ली की कुहास भरी ठण्ड, एक छोटे से सफ़र पर निकला था अमृतसर तक। निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर कोने से सटी बेंच पर बैठ, गाडी का इन्तजार कर रहा था। बेंच के बगल में ही कोई मानव रुपी जीव पुरानी सी एक कम्बल ओढ़ , प्लेटफॉर्म के फर्श पर अपनी दिनभर की थकान मिटाने को व्यग्र , पैर लम्बे पसारकर करवट बदल रहा था। तभी कुछ दूरी से बूटो की कदमताल खामोशी को तोड़ते मेरे वाले बेंच की ओर बढ़ी , रेलवे सुरक्षा बल के जवान थे वो । पास से गुजरते हुए मैं उन्हें देख ही रहा था कि तभी अचानक मेरी ध्यान निद्रा टूटी यह देखकर कि एक जवान ने चादर ताने उस मानव जीव पर अपने बूट की ठोकर मारी और कड़ककर बोला, " हे बिहारी, पैर भांच के सो" !
बूट की ठोकर से और कडकडार सुर सुनकर वह जीव हडबडाकर उठ बैठा था। एक नजर दूर जाते जवानो पर और एक नजर उसने मुझपर डाली। यही कोई ६०-६५ साल का वृद्ध, कोई रिक्शा चालाक सा मुझे लगा। उसने अपनी पुरानी कम्बल फिर से अपने ऊपर ओढ़ी और बडबडाया, "हे प्रभु ! वो दिन कब आयेगा जब मैं पूरे पैर पसार कर सो पाऊँगा,बेख़ौफ़,किसी के बूट की ठोकरों से बेखबर ?? "
kya kahun?
ReplyDeleteBahut samvedansheel kavita hai aapki.jis desh mein pair tak failaane per pabadi ho ,vahaan samvednaaon ka dam ghutne jaisi baat hai.
ReplyDeleteकहीं दो जनों के रहने के लिए कई कई आलीशान कोठियां है तो कही पैर पसार लेने जितनी जगह भी नहीं ....क्या यही ईश्वर का न्याय है ...?
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया आपने सच्चाई को ।
ReplyDeleteसमय बदल जाता है पर सभी काम वैसे ही चलते हैं जैसे चलते थे। कभी अंग्रेज हमें बूट से ठोकर मारते थे और अब .....
ReplyDeleteएक छोटी सी चाहत, जो शायद ही कभी पूरी हो पाए।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है।
घुघूती बासूती
"हे प्रभु ! वो दिन कब आयेगा,
ReplyDeleteजब मैं पूरे पैर पसार कर सो पाऊँगा,बेख़ौफ़,
किसी के बूट की ठोकरों से बेखबर ?? "
सही सवाल है उसका इस देश मे एक अमीर और गरीब मे फर्क ही इतना है? दुख होता है जब इसका जवाब किसी के पास नहीं मिलता। अच्छी कविता के लिये बधाई
बेख़ौफ़ सोने की तमन्ना शायद ही पूरी हो ......बहुत अच्छी रचना !
ReplyDeleteसर्वप्रथम आप सभी का हार्दिक शुक्रिया और धन्यवाद , अपने सुधि पाठको को बताना चाहूंगा कि यहाँ पर ' बेख़ौफ़ पैर पसार कर सोने' से आशय उस वृद्ध द्वारा भगवान् से अपने लिए मौत मांगने से है !
ReplyDeleteबहुत गहरी बात छुपी है।
ReplyDeleteयहाँ कितने ही लोग ऐसे हैं, जिन्हें मरकर ही मुक्ति मिलती है।
या फ़िर , पता नही --मिलती भी है या नही।
और हाँ, गौदियल जी, ब्लॉग अब ठीक काम कर रहा है। कुछ विजेट्स हटाने से ठीक हो गया। धन्यवाद।
ReplyDeleteउस सोये जीव पर बूट की ठोकर मारी
ReplyDeleteऔर कड़ककर बोला,
" हे बिहारी, पैर भांच के सो" !!
सूतने तो दिया न कम से कम। नहीं त ईहो त कह सकता था रे ....या भाग ईहां से।
bahut samvedansheel rachna hai ... gareeb to apni gareebi ka daam thokren khaa kar de raha hai ...
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना !
ReplyDeleteएक छोटी सी चाहत, जो शायद ही कभी पूरी हो पाए।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है।
आप की ये रचना बहुत सी बातों को बेनकाब कर गयी...पढ़ कर शर्मिंदा हूँ...हम कब इंसान बनेगे ???
ReplyDeleteनीरज
jidhar dekho haiwan hi nazar aate hai. Insan hai hi kahan. bas aapno duty karni hai aur mahine par pagar chahiye. Na insane bacha hai na Insaniyat bhai.....
ReplyDelete