कब न जाने यु ही पलक झपकते दस साल गुजर गये, पता ही न चला। अचानक मुझसे मिलना और फिर कुछ ही लम्हों मे सदा के लिये मेरे साथ ही ठहर जाने का घडी भर मे लिया उसका वो फैसला आज भी वक्त बे-वक्त मुझे उन लम्हों के बारे मे सोचने पर मजबूर कर देता है। मैं समझता हूं कि इतनी जल्दी फैसला कोई भी प्राणि दो ही परिस्थितियों मे लेता है, एक तो तब जबकि उसे जो मिला है उसको पाने की उसकी चाहत बहुत पुरानी हो और अचानक वह उसे मिल जाये, दूसरा तब जबकि उसके पास और कोई विकल्प हो ही ना । मेरे हिसाब से उसके लिये भी शायद दूसरी परिस्थिति ही ज्यादा प्रबल रही होगी।
बच्चो से बेहद लगाव रखने वाली स्वीटी ने दो बार दस सालो के दर्मियां मां बनने का असफ़ल प्रयास भी किया, लेकिन उसका दुर्भाग्य कि वह मातृत्व सुख पाने से वंचित रही, पैदा होने के चंद रोज बाद ही बच्चे चल बसे। स्वभाव से बहुत सरल और एक अजनवी से भी शीघ्र घुल-मिल जाने की उसकी खूबियों ने उसे शीघ्र ही मुह्ल्ले मे भी सबकी चेहती बना दिया। मौका मिलने पर हल्के-फुल्के मजाक करने से भी नही चूकती, मसलन सर्दियो मे जब सुबह-सबेरे बिस्तर से उतरते ही पैर चप्पल अथवा स्लिपर ढूढने लगते है, तो उसे जैसे ही यह अहसास होने लगता है कि मैं पलंग से नीचे उतरने वाला हूं, तो वह तुरन्त मेरे चप्पलों को उठाकर दस कदम दूर ले जाकर रख देती है । मेरे लाख आग्रह के बावजूद भी क्या मजाल कि मै उसे चप्पल वापस जगह पर लाने के लिये मना सकू, लेकिन ज्यों ही नंगे पांव दूर पडे चप्पलों को लेने बढता हूं, वह खुद ही लाकर चप्पल मेरे पैरों के पास रख देती और फिर मेरे से आलिंगनबद्ध हो जाती है। शाम को दफ़्तर से जब घर लौटता हूं तो मेरे घर से सौ मीटर दूर गली के मोड पर मै अक्सर ही गाडी का हौर्न बजाता हू, और वह हौर्न सुनते ही तुरन्त घर के मेन गेट पर आकर खडी होकर बेसब्री से मेरा इन्तजार करने लगती है।
३१ दिसमबर, १९९९ और दिल्ली का बुद्धा गार्डन, यही तो थी वो तिथि जब मैं शरद ऋतु की एक ठंडक भरी दोपहर को अकेला गुम-सुम सा पार्क की हरी दूब मे लेटकर धूप का आनन्द लेते हुए एक मैग्जीन के पन्ने पलटे जा रहा था। वह कब न जाने मेरे एकदम समीप आकर बैठ गई, और मुझे पता भी तब चला, जब मैने कुछ आहट सुनकर मैगजीन से अपना ध्यान हटाया था। वह दीखने में एक खाते-पीते घर की लग रही थी, सुनहरा डील-डौल बदन, खिले हुए चेहरे पर तिरछी नजरों से मुझे कुछ इस तरह देख रही थी, मानो मुझसे कुछ कहना चाहती हो। मैं भी उसके मन के अन्दर के भावो को भांप चुका था। कुछ देर मैंने भी जब उसे निहारा और उसने मुझ पर से नजरे नहीं हटाई तो, मैंने अपना हाथ आगे उसकी तरफ बढ़ा दिया। अरे, यह क्या, उसने भी झट से अपना हाथ मेरे हाथ में रख दिया था। मैं उसी अध्-लेटी हुई स्थिति में घास पर खिसकता हुआ उसके करीब जा पहुचा और उसके बालो को सहलाने लगा था। बस फिर क्या था, मानो वह भी इसी वक्त की प्रतीक्षा में थी, उसने भी बैठे-बैठे अपनी गर्दन मेरे काँधे पर सटा दी और मेरे चेहरे को चूमने लगी। मैं भी अपने ओंठो को गोल-गोल घुमा कर एक हिन्दी गीत "तुम आ गए हो नूर आ गया है ...." सीटी बजाने के अंदाज में गुनगुनाता हुआ उसके सिर पर हाथ फेर उसके बालों को सहलाता चला गया था।
………॥ इस संस्मरण का दूसरा और अंतिम भाग कल॥
बच्चो से बेहद लगाव रखने वाली स्वीटी ने दो बार दस सालो के दर्मियां मां बनने का असफ़ल प्रयास भी किया, लेकिन उसका दुर्भाग्य कि वह मातृत्व सुख पाने से वंचित रही, पैदा होने के चंद रोज बाद ही बच्चे चल बसे। स्वभाव से बहुत सरल और एक अजनवी से भी शीघ्र घुल-मिल जाने की उसकी खूबियों ने उसे शीघ्र ही मुह्ल्ले मे भी सबकी चेहती बना दिया। मौका मिलने पर हल्के-फुल्के मजाक करने से भी नही चूकती, मसलन सर्दियो मे जब सुबह-सबेरे बिस्तर से उतरते ही पैर चप्पल अथवा स्लिपर ढूढने लगते है, तो उसे जैसे ही यह अहसास होने लगता है कि मैं पलंग से नीचे उतरने वाला हूं, तो वह तुरन्त मेरे चप्पलों को उठाकर दस कदम दूर ले जाकर रख देती है । मेरे लाख आग्रह के बावजूद भी क्या मजाल कि मै उसे चप्पल वापस जगह पर लाने के लिये मना सकू, लेकिन ज्यों ही नंगे पांव दूर पडे चप्पलों को लेने बढता हूं, वह खुद ही लाकर चप्पल मेरे पैरों के पास रख देती और फिर मेरे से आलिंगनबद्ध हो जाती है। शाम को दफ़्तर से जब घर लौटता हूं तो मेरे घर से सौ मीटर दूर गली के मोड पर मै अक्सर ही गाडी का हौर्न बजाता हू, और वह हौर्न सुनते ही तुरन्त घर के मेन गेट पर आकर खडी होकर बेसब्री से मेरा इन्तजार करने लगती है।
३१ दिसमबर, १९९९ और दिल्ली का बुद्धा गार्डन, यही तो थी वो तिथि जब मैं शरद ऋतु की एक ठंडक भरी दोपहर को अकेला गुम-सुम सा पार्क की हरी दूब मे लेटकर धूप का आनन्द लेते हुए एक मैग्जीन के पन्ने पलटे जा रहा था। वह कब न जाने मेरे एकदम समीप आकर बैठ गई, और मुझे पता भी तब चला, जब मैने कुछ आहट सुनकर मैगजीन से अपना ध्यान हटाया था। वह दीखने में एक खाते-पीते घर की लग रही थी, सुनहरा डील-डौल बदन, खिले हुए चेहरे पर तिरछी नजरों से मुझे कुछ इस तरह देख रही थी, मानो मुझसे कुछ कहना चाहती हो। मैं भी उसके मन के अन्दर के भावो को भांप चुका था। कुछ देर मैंने भी जब उसे निहारा और उसने मुझ पर से नजरे नहीं हटाई तो, मैंने अपना हाथ आगे उसकी तरफ बढ़ा दिया। अरे, यह क्या, उसने भी झट से अपना हाथ मेरे हाथ में रख दिया था। मैं उसी अध्-लेटी हुई स्थिति में घास पर खिसकता हुआ उसके करीब जा पहुचा और उसके बालो को सहलाने लगा था। बस फिर क्या था, मानो वह भी इसी वक्त की प्रतीक्षा में थी, उसने भी बैठे-बैठे अपनी गर्दन मेरे काँधे पर सटा दी और मेरे चेहरे को चूमने लगी। मैं भी अपने ओंठो को गोल-गोल घुमा कर एक हिन्दी गीत "तुम आ गए हो नूर आ गया है ...." सीटी बजाने के अंदाज में गुनगुनाता हुआ उसके सिर पर हाथ फेर उसके बालों को सहलाता चला गया था।
………॥ इस संस्मरण का दूसरा और अंतिम भाग कल॥
Godiyal ji ajib jagah aakar kahani ruki hai agar kah rahe hai antimbhag bacha hai to jald hi use bhi pesh kijiye..agali kadi ki besbri hai..badhiya kahani..badhai
ReplyDeleteगोदियाल जी-आगे की कहानी का ईंतज़ार है।
ReplyDeleteपहली नजर में प्यार!
ReplyDeleteपोस्ट के अगले भाग की प्रतीक्षा है।
अरे! ये तो "राज पिछले जन्म का" भी हो सकता है :)पहली ही मुलाकात में इतना कुछ....दूसरा भाग लेकर जल्दी आइये।
ReplyDeleteगौदियाल जी ........ कोमल भावनाओं का समुंदर बन कर आई है आज की पोस्ट ......... प्रतीक्षा है अगली कड़ी की ......
ReplyDeleteदूसरा भाग इसी साल पढ़वा दीजिये ।
ReplyDeleteआप का यह संस्मरण बहुत सुंदर लगा, इस अंजानी सी छोटी सी, लम्बे बालो वाली के बारे पढ कर अच्छा लगा, यह आप की भाषा चाहे ना बोल पाये, लेकिन आप की भाषा समझती है, ओर अपनी बात समझा देती है, चलिये अगली कडी का इंतजार है
ReplyDeleteअगली कडी का बेसब्री से इन्तज़ार है धन्यवाद्
ReplyDeleteहम तो समझ गए गोदियाल जी, आप किस की बात कर रहे हैं ।
ReplyDeleteलेकिन आपने कमाल की दिलचस्पी पैदा की है।
अगला भाग भी अवश्य पढेंगे।
नव वर्ष की शुभकामनायें।
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteआपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
बेसब्री से इंतज़ार है कहानी के अंत का.. काश इंसान भी उस "प्राणि" की तरह इतनी जल्दी, इतनी स्वतंत्रता से निर्णय लेने में सक्षम होते...
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा है!
ReplyDeleteनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !
समझ में आया है उस भोली का चेहरा...उसकी आँखे, हाव भाव सब बोलता है..
ReplyDeleteइन्तजार है कल का...
मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.
नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.
ओह! मैं लेट हो गया.... दरअसल ... कल से श्री. अरविन्द जी के साथ हूँ.... उनके ऊपर यौन शोषण का इलज़ाम लगा है.... अगर अरविन्द जी telepathic sex कर सकते हैं तो उनको नमन... ग़ज़ब का टैलेंट है यह.... उन्होंने यहीं बैठे बैठे ही सब कुछ कर दिया... शायद बीच में telepathy का सिग्नल खराब हो गया होगा.... इसीलिए वो सेक्सुअल हरासमेंट हो गया.... इसीलिए कल आपका यह सुंदर संस्मरण छूट गया.... इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ.....
ReplyDeleteसमस्त ब्लॉग जगत से यह निवेदन है कि .... कोसों दूर बैठे कैसे यौन शोषण किया जा सकता है...... और उस शोषण को कैसे महसूस किया जा सकता .... यह रचना जी से ट्यूशन लिया जाये.... और अगर दूर से यौन शोषण में कोई दिक्कत आये... या सिग्नल में रुकावट आये... तो यौन शोषण का इलज़ाम लगा दिया जाये.....
समस्त ब्लॉग जगत से यह निवेदन है कि .... श्री . अरविन्द जी के साथ खड़े हो कर .... उनको इस मुसीबत से निजात दिलाया जाये..... यह सरासर मानहानि है.... श्री. अरविन्द जी का मान बचाया जाये.... उनके साथ खडा हुआ जाये....
मुझे आपके इस संस्मरण के अगले कड़ी का इंतज़ार है....
(NB:--भई.... आपने देखा होगा कि खेतों में....एक पुतला गाडा जाता है .... जिसका सर मटके का होता है... उस पर आँखें और मूंह बना होता है.... और दो हाथ फूस का..... वो इसलिए खेतों में होता है.... कि फसल जब पक जाती है ..... तो कोई जानवर-परिंदा डर के मारे न आये...... मैं वही पुतला हूँ.... )
आपको नव वर्ष कि शुभकामनाएं....
पहली मुलाक़ात मैं ही इतनी नजदीकी ... वाह भाई मान गाये ...
ReplyDeleteआप का यह संस्मरण बहुत सुंदर लगा
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