Tuesday, December 30, 2008

दर्जी काका और पाकिस्तान का झंडा !

तब हम गुरुदासपुर के तिब्डी कैन्ट में रहते थे, मैं शायद तब सातवी कक्षा में पढता था । जिस मोहल्ले में हम रहते थे उसी के नुक्कड़ पर एक दूकान थी, हम लोग उसे दर्जी काका की दुकान कहकर पुकारा करते थे । दर्जी काका एक अधेड़ उम्र के मुस्लिम थे । परिवार में वो कुल तीन जने थे, वे, उनकी बेगम और एक बेटी । घर की माली हालात थे । साल के शायद १२ महीने ही वो अडोस-पड़ोस वालो से कुछ न कुछ मांगते रहते थे, खासकर मेरे पिताजी से तो दर्जी काका महीने में कम से कम दो बार अवस्य ही कुछ पैंसे मागने जरूर आते थे । क्योकि जो काम उनका था, उसमे शायद किसी खास वक्त पर ही कमाई हो पाती थी, अन्यथा साल के अन्य दिनों में वे छोटे-मोटे सिलाई-तुल्पायी के ही काम कर गुजारा करते थे ।

इस व्यवसाय में उनका जो मुख्य काम था, वह था झंडे बनाना । जब कभी चुनाव होते तो वे राजनीतिक पार्टियों के झंडे बनाते थे । २६ जनवरी और १५ अगस्त के आस-पास वे अकसर देश का झंडा बना रहे होते थे, और जब अप्रैल, मई जून का महिना होता था तो वे पास ही स्थित नाथ मन्दिर के चढावे के तथा सिख तीर्थ यात्रियों के झुंडों में आनंदपुर साहिब, हेमकुंट साहिब और पोंटा साहिब जाते वक्त के लिए झंडे बनाते थे । क्योंकि गर्मी के सीजन में पड़ने वाले त्यौहार में सिख सर्धालू गुरुद्वारों में दर्शनार्थ बड़ी तादाद में जाते है । स्कूल से लाने, लेजाने वाला रिक्शा अक्सर हमें उसी नुक्कड़ पर उतारता था जहाँ पर दर्जी काका की दुकान थी। दर्जी काका मेरे पिताजी से काफ़ी घुलामिला होने की वजह से, मुझे भी काफ़ी प्यार और सम्मान देते थे । जब कभी वे देश का झंडा सिल रहे होते थे तो मैं अगर आस-पास होता तो वहाँ जाकर दूकान के फ्रंट टेबल के आगे खड़ा होकर बड़े कौतुहल से दर्जी काका को झंडा बनाते देखता रहता था । एक दिन जब स्कूल से लौटा तो क्या देखता हूँ की दर्जी काका अपने काम में मग्न कोई हरा झंडा सिल रहे थे । मैंने पूछा, काका ये किसका झंडा है ? वे बोले, बेटा ये पाकिस्तान का झंडा है । मेरे अबोध मस्तिष्क ने फिर प्रश्न किया, काका पाकिस्तान का झंडा आप क्यो बना रहे है यहाँ ? पाकिस्तान वाले अपने देश में नही बना सकते क्या ? दर्जी काका ने दाढ़ी से भरे अपने मुरझाये चेहरे पर एक तेज हँसी बखेरी और बोले, मिंया तुम अभी छोटे हो, नही समझ पाओगे, बस इतना कहकर वो फिर से अपने काम में मग्न हो गए थे ।

दुसरे दिन मैं स्कूल गया तो अपनी क्लास के एक खास दोस्त से इस बात का जिक्र किया । मेरा वह क्लासमेट भी पहले उसी मुहल्ले में रहता था और दर्जी काका की मागने की आदत से नाखुश था । वह बोला अरे वो बुढउ ऐसा ही है । अपनी कमाई के पैसे ऐसे ही फालतू चीजो पर ख़त्म कर देता है और फिर मांगता फिरेगा । मैंने पूछा, लेकिन यार वो पाकिस्तान के झंडे पर क्यो अपना पैसा खर्च करता है ? इतनी तो उसको समझ होगी की पाकिस्तान का झंडा यहाँ कौन लेगा ? वह बोला, अबे यार, तू भी बहुत भोला है । अरे, ये मुसलमान अन्दर ही अन्दर पाकिस्तान को बहुत चाहते है इसलिए । तुने देखा नही जब क्रिकेट का मैच होता है तो पाकिस्तान के जीतने पर कैसे तालिया बजाते है । मेरी समझ में भी उसकी बात कुछ हद तक आ गई थी, अतः उस दिन के बाद से जब मैं दर्जी काका की दुकान से होकर गुजरता था तो वहाँ रुकना तो दूर, उनकी दूकान की तरफ़ देखता तक नही था । मेरे अन्दर ही अन्दर, दर्जी काका के प्रति किसी ख़ास किस्म की घृणा ने जगह बना ली थी ।

यह शायद १९७७-७८ के आस पास की बात होगी, पाकिस्तान में जनरल जियाउलहक़ का शासन था और क्योंकि मैं छोटा था और मुझे ठीक से नही मालूम कि जाने किस बात पर दोनों देशो के बीच तनातनी चल रही थी । यकायक तनाव बहुत बढ़ गया था और जगह-जगह शहरो में प्रदर्शन भी हो रहे थे । उस दिन मैं स्कूल से लौट रहा था और रिक्शे वाले ने रोज की तरह उसी नुक्कड़ पर हमें उतार दिया था । मैंने देखा कि दर्जी काका की दूकान पर बहुत भीड़ लगी थी । लोग मुह मांगे दामो पर काका से पाकिस्तान का झंडा खरीद रहे थे । काका अन्दर से ढूंड- ढूंड कर अपने बनाये पाकिस्तान के झंडे निकाल बाहर ला रहे थे । कुछ देर बाद मुहल्ले के चौराहे पर बहुत भीड़ इकठ्ठा हो गई थी, कई नेता भी वहा आए हुए थे, वे पाकिस्तान के खिलाप नारे लगा रहे थे और फिर उन्होंने बारी-बारी से पाकिस्तान का झंडा जलाना शुरू किया ।

दूसरे दिन सुबह जब मैं स्कूल जा रहा था तो दर्जी काका दूकान के बाहर खड़े थे, मुझे देखकर बोले , छोटे मिंया तुम उस दिन पूछ रहे थे न कि मैं पाकिस्तान का झंडा क्यो बनाता हूँ ? तो आपने कल देखा होगा कि पाकिस्तान के झंडे की कितनी डिमांड थी ? दर्जी काका की बात सुन, मेरा दिल दर्जी काका के लिए श्रदा से भर गया था । मैं सोच रहा था कि बिना सोचे समझे इंसान कितनी नादानियां और बेवकूफियां कर बैठता है, जो दीखता है, वो वास्तव में होता नही । एक दोस्त के कहने पर, बेचारे काका के बारे में कितना कुछ ग़लत सोच लिया था, मैंने ।

गोदियाल

Saturday, December 27, 2008

वो कौन थी ?

हर इंसान की जिंदगी से जुड़े कुछ वे ख़ास संस्मरण भी होते है जिन्हें इंसान दिल के किसी कोने में संजो कर तो रखता है, हर एक को खुलकर नहीं बता पाता। कुछ बाते ऐसी होती है जो इंसान सीधे वार्तालाप में अभिव्यक्त करता है और कुछ ऐसी, जो लिखकर व्यक्त की जाती है । अभी पिछले हफ्ते मेरा एक जिगरी दोस्त मेरे घर पर आया था, वह स्वभाव से बहुत बातुनी है, उस दिन हमारा सपरिवार डिनर का प्रोग्राम था, शाम को जब टेबल पर मनोरंजन करने बैठे तो वह लगा मेरा दिमाग चाटने। बातो को कैसे घुमाना है, कैसे तोड़मरोड़ कर पेश करना है, कोई उससे सीखे। उसने जल्दी-जल्दी दो पग लिए और बोला यार, मैं आज तेरे को अपनी एक सच्ची कहानी सुनाता हूँ, तुम चुपचाप सुनो, नाराज मत होना। मैंने कहा सुना भई, मैं भला क्यों तेरी कहानी से नाराज होऊंगा? बस फिर वह लगा अपनी राम कहानी सुनाने।

१९८५ के आस-पास की बात है, वह तभी से मेरे साथ हो ली थी, जब से मैं अपने विद्यार्थी जीवन को त्याग रोजी-रोटी की तलाश में गाँव से शहर को निकला था। उससे पहले भी वो कभी-कभार मेरे साथ हो लेती थी, मगर उस बेफिक्र जीवन में मुझ जैसे स्वार्थी इंसान को उसकी ख़ास जरुरत महसूस नहीं होती थी। मेरे हर अच्छे बुरे निर्णय में वह मेरे साथ रहती। बस यूँ समझो कि हरपल वह मेरे साथ रहती, मेरी परछाई की तरह । नौकरी मिली, उसके बाद घर वालो ने मेरे शादी तय की । इस शादी तय करने के मामले में न उसने और न मैंने, अपने घर वालो का साथ दिया था, मैंने अपने घरवालो से सिर्फ यह कह दिया था कि जो आपलोगों को उचित लगे, करो । फिर शादी का दिन भी आ गया । मुझे याद है, उसने मेरे शादी के साजो-सामान को चुनने/खरीदने में भी मेरी पूरी मदद की थी । कहाँ क्या बोलना है, नवेली दुल्हन के साथ क्या बात करनी है कैसे बर्ताव करना है, हर एक बात वह मुझे बारीकी से समझा देती थी । घर-गृहस्थी बसाने के बाद बच्चे हुए, शहर में मकान खरीदा, बच्चो को स्कूल में भर्ती करवाया । यहाँ भी मेरे हर एक निर्णय और हर कदम पर वह एक सच्चे दोस्त की भांति मेरे साथ रही। मैं कभी-कभी इस सोच और फिक्र में डूब जाता कि वह मेरे लिए इतना त्याग करती है, मगर मैंने इसे सिवाए प्यार के और क्या दिया ?

दिन, महीने, साल गुजरते रहे, मगर वह मेरा साथ छोड़ने को तैयार न थी । एक साये की तरह मेरे पीछे थी । मुझे जब भी उदास अथवा चिंतित देखती, मेरा हाथ पकड़ मुझे बाहर गाड़ी तक खींच लाती और कहीं चलने को कहती । अभी कुछ दिन पहले की बात है, क्रिसमश की छुट्टी होने की वजह से, मैं घर के बाहर बरामदे में बैठा सर्दियों की धूप का आनंद ले रहा था और भारत पाकिस्तान के बीच आंख मिचोली के खेल के बारे में विचार मग्न था, कि तभी अचानक वह फिर आ गई । मुझको ढंग के कपड़े पहनने का निर्देश दे, ख़ुद बरामदे के एक कोने पर खड़ी होकर धूप सेकने लगी । मैं अन्दर गया, कपड़े बदले और तैयार होकर बाहर निकला । गाड़ी स्टार्ट की और चल दिए, वह मेरी बगल वाली सीट में बैठ गई। सफेद लिवास में आज वह कुछ ज्यादा ही खुबसूरत दिख रही थी ।

वह मुझे शहर के एक बड़े चर्च में ले आई थी। चर्च में काफ़ी लोग इकट्ठा थे, क्रिश्मश मनाने के लिए । जिनमे बच्चे और युवा ज्यादा थे । उसके द्वारा बहुत सी क्रिश्चियन हसीनाओ से मुझे मिलाया गया। वो हसीनाये मुझे 'मैरी क्रिसमस' कहकर मेरे गाल पर किस करती और मिठाईया खिलाती, मैं गदगद था । शाम को पास के होटल में कॉकटेल पार्टी थी । मैं भी स्वाद के मारे रेड-वाईन के काफ़ी पैग ले चुका था । अब तक मैं तो अपने घर की तरफ़ से एकदम बेफिक्र सा था, मगर वह हर इंसान की भावनाए जानती और समझती थी, अतः उसने मुझे मेरी पत्नी को घर पर फोन करने को कहा । मैंने अपने मोबाईल फ़ोन से घर फ़ोन किया, उसने धीरे से मेरे कान में कहा कि इस समय तुम होश में नही हो, इसलिए ज्यादा बात मत करना और यह कहदो कि मैं यहाँ पर क्रिसमस की पार्टी अटेंड कर रहा हूँ, दोस्तों के साथ, अतः रात को घर नहीं लौटूंगा, तुम लोग खाना खाकर सो जाना। मेरे अधिक ले लेने के बाद उसने मह्सुश किया कि मैं अब ड्राइव करने लायक नही रहा, अतः उसने होटल में ही मेरे लिए कमरा बुक किया और मैं वहीँ एक कमरे मे सो गया, वह मेरे पास में ही बैठी थी और धीरे-धीरे मेरे बालो को सहला रही थी और एक गीत गुनगुना रही थी: आ चल के तुझे मैं लेके चलू इक ऐंसे गगन के तले.....फिर मैं सो गया ।

अब तक में उसकी वह राम कहानी बड़े धैर्य से सुन रहा था, किन्तु चूँकि मैं भी नशे में था , अतः मुझे उसकी कहानी सुनकर उसपर गुस्सा आ गया और मैंने गुस्से में उसे लगभग गाली देते हुए कहा, मैं तो तुझे एक शरीफ इंसान समझता था, पर तू तो बड़ा ही आवारा-बदचलन किस्म का इंसान है, अपने बीबी बच्चो को छोड़ किसी और के साथ गुलछर्रे उडाता है। बेटा, यह सुख ज्यादा दिन नही भोग पायेगा, दो नावों में सफर करने वाला बुरी तरह भंवर में डूबता है। मेरी बात और गालियों को शांत ढंग से सुनते हुए वह मंद-मंद मुस्कुराया और बोला, इसका मतलब मेरी कहानी अच्छी लगी तुझे । मैंने उसको घूरते हुए देखा और मैं बोला कुछ नहीं । वह बोला, मुझे मालूम है कि तेरा ये कबाडी दिमाग आगे क्या सोच रहा होगा, तू अपने दिमाग पर जोर डाल कर सोच रहा होगा कि यह जानते हुए भी कि यह एक शादी-शुदा इंसान है, वह कौन कलूटा होगी जो इसको इतना चाहती है ? तो सुन, पता है वह कौन थी? अरे इडियट, वह मेरी खुद की कल्पना थी, मेरी अपनी कल्पना,... इट वाज जस्ट माय इमेजिनेशन... उसकी बात सुन मैंने पुछा, तू सच बोल रहा है न ? उसने अपने बच्चो की कसम खाते हुए कहा, यार तुझे मुझ पर भरोसा नहीं ? उसकी बात सुन मैंने और उसने जोर का एक ठहाका लगाया, और उसने भी इस खुशनुमा माहौल का फायदा उठाते हुए जल्दी से जो कुछ बोतल के निचले भाग में बची थी, उसे भी अपने गिलास में उडेल दिया। मैं उसका मुह देखता रह गया था।
गोदियाल

Friday, December 26, 2008

हद-ए-झूठ !



रंगों की महफिल में सिर्फ़ हरा रंग तीखा,
बाकी सब फीके।
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है ,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे।।


झूठ भी ऐंसा कि एक पल को, सच लगने लगे,
'मगजधोवन' धंधे में इन्होने न जाने कितने युवा ठगे,
खुद के जुर्मों पर पर्दा डालने को खोजते नित नए तरीके।
सच तो खैर, इस युग में चंद ही जन बोलते है,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे ।।


दुष्कर्मों  का अपने ये रखते नही कोई हिसाब,
भटक गए हैं राह से अपनी, पता नही कितने कसाब,
चाह है पाने की वह जन्नत मर के, जिसे पा न सके जीके।
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है ,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे ।।


इस युग में सत्य का दामन, यूँ तो छोड़ दिया सभी ने,
असत्य के बल पर उछल रहे आज लुच्चे और कमीने,
देखे है हमने बड़े-बड़े झूठे, मगर देखे न इन सरीखे।
सच तो खैर, इस युग में चंद ही जन बोलते है ,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे।।


दहशतगर्दी के खेल में उतर तो गए कई मिंया जरदारी,
मगर फिर पड़ने लगी उन्ही पे उनकी ही  करतूत भारी,
हर काम ही ऐसा है कि कथनी और करनी में फर्क दीखे।
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे।।

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...