एक कहावत है कि हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ! बेशक देश के अखबारों और मीडिया ने इस खबर को कोई ख़ास तबज्जो न दी हो, मगर है खबर बड़ी रोचक ! हमारे इस देश की इस राजनीति ने पिछले साठ-बासठ सालों में और कुछ नहीं तो पैंतरेबाजी और आमजन की आँखों में धूल झोंकने की कला में दुनिया के अन्य लोकतान्त्रिक देशों से कही बढ़कर महारथ हासिल की है! हमारे देश का एक मंत्रालय है जो देश की पर्यावरण संबंधी समस्याओं पर नजर रखता है ! एक जमाने में इस मंत्रालय के मुखिया हुआ करते थे, श्री ए. राजा ! अपने महान कृत्यों की वजह से आज भारत का जन-जन इन्हें जानता है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में विकास से सम्बंधित कुल १७०० परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई और सिर्फ कुल १४ परियोजनाओं पर अपनी असहमति की मोहर लगाईं थी (शायद इन १४ परियोजनाओ से निजी तौर पर कुछ हासिल न हुआ हो, न होने की उम्मीद हो ) ! आज इस देश में व्यवस्था के नाम पर जो भ्रष्टचार का नंगा दौर चल रहा है, उसमे बिना मेज के नीचे से अपना मेहनताना (आज की सभ्य दुनिया के हम ज्यादातर हिन्दुस्तानी इसे अपना मेहनताना ही कहते है) लिए ही प्रमाणपत्र जारी हो जाने की कवायद परियों की कहानी जैसी लगती है! उसके बाद आये श्री जयराम रमेश, जिन्हें कलतक इस देश के ज्यादातर लोग पर्यावरण के प्रति एक सख्त छवि और कठोर व्यक्तित्व वाला इंसान समझते थे! लेकिन एक एनजीओ द्वारा आरटीआई के तहत माँगी गई सूचना ने इसमें भी कुछ भ्रम पैदा कर दिए है!
जबसे उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय का कार्यभार सम्भाला, पर्यावरण से जुडी कुल ५३५ छोटी-बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दी गई ! जिनमे कोयला क्षेत्र में ५८ परियोजनाओं की अर्जी इनके पास पहुँची, जिसमे से कुल ३१ परियोजनाए अभी तक मंजूर की जा चुकी है और एक भी खारिज नहीं की गई ! बुनियादी परियोजनाओं में भी यही हाल है, १२० परियोजनाए इनके पास पहुँची, अब तक ११२ परियोजनाए मंजूर हुई और एक भी खारिज नहीं हुई! यही हाल नदी घाटी परियोजनाओं का भी है, कुल आठ अर्जियां इनके पास मंजूरी के लिए थी, और सभी आठ की आठ पास हो गई ! मैं यह कदापि नहीं कहता कि इस मंजूरियों में कुछ गलत हुआ! देश के समग्र विकास के लिए आधारभूत परियोजनाओं को मंजूरी मिलना भी जरूरी है, मगर साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि इससे पर्यावरण मंत्रालय गठित करने का उद्देश्य ही गौंण न बन जाये!
आपको यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि किन फैसलों की वजह से उन्होंने खुद को एक "क्लीन एंड ग्रीन" व्यक्ति साबित करने की कोशिश की ! आइये संक्षेप में देखे किन-किन वजहों से वे सुर्खियों में आ गए ; नवी-मुंबई एयरपोर्ट, उत्तराखंड में अनेक जलविद्युत परियोजनाए;बिजली से लेकर सड़के, पुल और मकान निर्माण की कई योजनाएं पर्यावरण मंत्रालय के ग्रीन सिग्नल का इंतज़ार कर रही हैं ! पर्यावरण रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही परियोजनाओं मे एनएचपीसी यानी केंद्र की कोटली भेल परियोजना है, जो 1045 मेगावाट की है! इसी तरह 500 मेगावाट की कोटेश्वर, 340 की विष्णुगाड पीपलकोटी, 140 की बद्रीनाथ, 310 की लता तपोवन, 280 की तमक लता जैसी जलबिजली परियोजनाएं हैं !100 मेगावाट की बिजली उत्पादन क्षमता से कम क्षमता वाली तो और भी परियोजनाएं है ! चंडीगढ़ में टाटा केमलाट परियोजना, पुणें के नजदीक 27 हजार एकड़ क्षेत्रा में बनायी गई लवासा ’हिल सिटी’,मघ्य प्रदेश में महेश्वर बांध् परियोजना, मुंबई की आदर्श हाउसिंग सोसायटी की इमारत को गिराने का आदेश,डीजल से चलने वाली बड़ी कारों पर रोक के लिए फ्यूल पॉलिसी विवाद , अक्षरधाम और खेलगांव इत्यादि-इत्यादि !
मुझे इस तर्क में कोई दोष नजर नहीं आता कि सरकार अपने हिसाब से जो उचित समझती है, करती है! मै, श्री जयराम रमेश द्वारा उठाये गए बहुत से क़दमों का स्वागत और समर्थन भी करता हूँ मगर,आप यह देखिये कि आदर्श सोसाईटी के फ्लैट बनाने में पैसा किसका लगा, देश का ! सरकारों की भ्रष्टता की वजह से अब जब यह बात सामने आई कि अन्दर गोलमाल है, पर्यावरण के विषय को ताक पर रखकर इसे बनाया गया है तो यह मंत्रालय तब कहाँ सो रहा था जब इतने ऊँची बहुमंजली इमारत खडी हो रही थी ? और अब गिराने का औचित्य ? गिराने में भी देश का करोडो रुपया बर्बाद जाएगा ! मुंबई में जगह की कमी , क्यों नहीं सरकार इसे कब्जे में लेकर फिर रक्षा मंत्रालय को हस्तांतरित कर देती, और उस पर रक्षा सेनाओं के कार्यालय खोल देती है? यही बात चिंतित करती है कि जिन मामलों में हमारा पर्यावरण मंत्रालय अपनी टांग अड़ा रहा है, उनमे से ज्यादातर या तो कभी की पूर्ण हो चुकी, अथवा उनपर हुआ काम बहुत अग्रिम स्तर पर चल रहा है! सवाल यह उठता है कि इस देश को आजाद हुए ६४ साल होने को आये, कई सालों से देश का यह पर्यावरण मंत्रालय मौजूद है, फिर यह मंत्रालय उसवक्त कहाँ था जब परियोजनाए शुरू की गई थी ? इनकी नींद परियोजना पूर्ण होने के बाद ही क्यों टूटती है? हमारा पर्यावरण मंत्रालय अथवा सरकारी मशीनरी इतनी सुस्त क्यों है ? जहां वाकई में सख्ती बरतने की जरुरत है, जिन क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश के कगार पर है, वहा खनिज और खनन की नई परियोजनाओं को मंजूरी देकर पर्यावरण मंत्रालय क्या साबित करना चाह रहा है? क्या यह मंजूरी का खेल भी कही कोई धन ऐंठने का जरिया तो नहीं बनता जा रहा? केंद्र द्वारा कहीं यह उन राज्यों के विकास को रोकने की कोई दुर्भावना तो नहीं, जिन राज्यों में इनके विरोधी दलों की सरकारे है? इस आरटीआई खुलासे के बाद बहुत से ऐसे सवाल खड़े हो गए है, जो अभी अनुत्तरित है ! और जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह कि देर से कदम उठाये जाने से जो देश का धन और परिसम्पतियाँ बर्बाद जाती है , उसका जिम्मेदार कौन ?
जबसे उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय का कार्यभार सम्भाला, पर्यावरण से जुडी कुल ५३५ छोटी-बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दी गई ! जिनमे कोयला क्षेत्र में ५८ परियोजनाओं की अर्जी इनके पास पहुँची, जिसमे से कुल ३१ परियोजनाए अभी तक मंजूर की जा चुकी है और एक भी खारिज नहीं की गई ! बुनियादी परियोजनाओं में भी यही हाल है, १२० परियोजनाए इनके पास पहुँची, अब तक ११२ परियोजनाए मंजूर हुई और एक भी खारिज नहीं हुई! यही हाल नदी घाटी परियोजनाओं का भी है, कुल आठ अर्जियां इनके पास मंजूरी के लिए थी, और सभी आठ की आठ पास हो गई ! मैं यह कदापि नहीं कहता कि इस मंजूरियों में कुछ गलत हुआ! देश के समग्र विकास के लिए आधारभूत परियोजनाओं को मंजूरी मिलना भी जरूरी है, मगर साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि इससे पर्यावरण मंत्रालय गठित करने का उद्देश्य ही गौंण न बन जाये!
आपको यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि किन फैसलों की वजह से उन्होंने खुद को एक "क्लीन एंड ग्रीन" व्यक्ति साबित करने की कोशिश की ! आइये संक्षेप में देखे किन-किन वजहों से वे सुर्खियों में आ गए ; नवी-मुंबई एयरपोर्ट, उत्तराखंड में अनेक जलविद्युत परियोजनाए;बिजली से लेकर सड़के, पुल और मकान निर्माण की कई योजनाएं पर्यावरण मंत्रालय के ग्रीन सिग्नल का इंतज़ार कर रही हैं ! पर्यावरण रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही परियोजनाओं मे एनएचपीसी यानी केंद्र की कोटली भेल परियोजना है, जो 1045 मेगावाट की है! इसी तरह 500 मेगावाट की कोटेश्वर, 340 की विष्णुगाड पीपलकोटी, 140 की बद्रीनाथ, 310 की लता तपोवन, 280 की तमक लता जैसी जलबिजली परियोजनाएं हैं !100 मेगावाट की बिजली उत्पादन क्षमता से कम क्षमता वाली तो और भी परियोजनाएं है ! चंडीगढ़ में टाटा केमलाट परियोजना, पुणें के नजदीक 27 हजार एकड़ क्षेत्रा में बनायी गई लवासा ’हिल सिटी’,मघ्य प्रदेश में महेश्वर बांध् परियोजना, मुंबई की आदर्श हाउसिंग सोसायटी की इमारत को गिराने का आदेश,डीजल से चलने वाली बड़ी कारों पर रोक के लिए फ्यूल पॉलिसी विवाद , अक्षरधाम और खेलगांव इत्यादि-इत्यादि !
मुझे इस तर्क में कोई दोष नजर नहीं आता कि सरकार अपने हिसाब से जो उचित समझती है, करती है! मै, श्री जयराम रमेश द्वारा उठाये गए बहुत से क़दमों का स्वागत और समर्थन भी करता हूँ मगर,आप यह देखिये कि आदर्श सोसाईटी के फ्लैट बनाने में पैसा किसका लगा, देश का ! सरकारों की भ्रष्टता की वजह से अब जब यह बात सामने आई कि अन्दर गोलमाल है, पर्यावरण के विषय को ताक पर रखकर इसे बनाया गया है तो यह मंत्रालय तब कहाँ सो रहा था जब इतने ऊँची बहुमंजली इमारत खडी हो रही थी ? और अब गिराने का औचित्य ? गिराने में भी देश का करोडो रुपया बर्बाद जाएगा ! मुंबई में जगह की कमी , क्यों नहीं सरकार इसे कब्जे में लेकर फिर रक्षा मंत्रालय को हस्तांतरित कर देती, और उस पर रक्षा सेनाओं के कार्यालय खोल देती है? यही बात चिंतित करती है कि जिन मामलों में हमारा पर्यावरण मंत्रालय अपनी टांग अड़ा रहा है, उनमे से ज्यादातर या तो कभी की पूर्ण हो चुकी, अथवा उनपर हुआ काम बहुत अग्रिम स्तर पर चल रहा है! सवाल यह उठता है कि इस देश को आजाद हुए ६४ साल होने को आये, कई सालों से देश का यह पर्यावरण मंत्रालय मौजूद है, फिर यह मंत्रालय उसवक्त कहाँ था जब परियोजनाए शुरू की गई थी ? इनकी नींद परियोजना पूर्ण होने के बाद ही क्यों टूटती है? हमारा पर्यावरण मंत्रालय अथवा सरकारी मशीनरी इतनी सुस्त क्यों है ? जहां वाकई में सख्ती बरतने की जरुरत है, जिन क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश के कगार पर है, वहा खनिज और खनन की नई परियोजनाओं को मंजूरी देकर पर्यावरण मंत्रालय क्या साबित करना चाह रहा है? क्या यह मंजूरी का खेल भी कही कोई धन ऐंठने का जरिया तो नहीं बनता जा रहा? केंद्र द्वारा कहीं यह उन राज्यों के विकास को रोकने की कोई दुर्भावना तो नहीं, जिन राज्यों में इनके विरोधी दलों की सरकारे है? इस आरटीआई खुलासे के बाद बहुत से ऐसे सवाल खड़े हो गए है, जो अभी अनुत्तरित है ! और जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह कि देर से कदम उठाये जाने से जो देश का धन और परिसम्पतियाँ बर्बाद जाती है , उसका जिम्मेदार कौन ?
गिरने के लिये कुँयें ढूढ़ें कि खाई?
ReplyDeletea kiya jay
ReplyDeleteham log chillate rahege aur kauwa kaan le jaayega
हर जगह यही हाल है। कागज़ों पर ही सरकारें चलती है। अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
ReplyDeleteगंभीर समीक्षा योग्य मुद्दा.
ReplyDeleteगड्ढा खोदो , गड्ढा भरो --रोज़गार दिलाने का यह भी एक तरीका है ।
ReplyDeleteयूं ही चलता रहेगा यह सिलसिला.. अबाध...
ReplyDelete‘ मुखिया हुआ करते थे, श्री ए. राजा ’
ReplyDeleteराजा तो हर कानून से ऊपर होता है ना :)
कुछ भी हो लेकिन बनी हुयी चीज को टोदने की जगह उसे उस के मालिको के सपुर्द कर देनी चाहिये, ओर कोई भी परियोजना बीच मै अन्ही अटकनी चहाइये सरकार कोई भी आये अधुरे काम जो पुरे ना करे उस सरकार को गद्दी पर बेठने का कोई हक नही... बहुत सुंदर लिखा आप ने धन्यवाद
ReplyDeletesab ekdam gadbad ghotala hai.......har jagah bhrashtachar.
ReplyDeleteआप सब को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएं.
ReplyDeleteविषय जबरदस्त! सभी हैं अंधड़ से त्रस्त। गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteएक -एक शब्द ठीक लिखा है ,आपकी इस बात से सहमती है सेना के सुपुर्द करके राष्ट्रीय धन का सदुपयोग किया जाए.
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