पता नहीं क्यों, मगर मुझे बचपन से ही अपना वो तथाकथित गौरवशाली मद्ययुगीन इतिहास पढने में कभी भी ख़ास रुचि नहीं रही ! किन्तु हाँ, आज भी मुझे अपने विद्यार्थी जीवन की वह बात खूब याद है, जब एक ख़ास अवसर पर मैं अपने पाठ्यक्रम में मौजूद इतिहास की किताब के पन्ने पलटना नहीं भूलता था, और साल में वह एक ख़ास अवसर होता था, पंद्रह अगस्त अथवा २६ जनवरी की तैयारी ! इतिहास के पन्ने पलटने पर जब मुझे ज्ञात होता कि आजादी को हासिल करने के पीछे जो प्रमुख कारण रहे थे, वे थे भेदभाव, शोषण और क्रूरता, जिन्होंने मुस्लिम शासकों के खिलाफ अंग्रेजो को विविधता और जयचंदों से भरे इस देश में लोगों का समर्थन दिलवाया और अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन का बिगुल फूका ! और जब मेरा शरारती और विद्रोही बालमन इन कारकों पर मनन करने बैठता तो सहपाठियों के बीच होते हुए भी मैं खुद को असहज सा महसूस करने लगता था!
विचलित मन तब और असहज हो उठता, जब मैं देखता कि नौकरी-पेशा घर-परिवार के बड़े लोग तो स्वतंत्रता अथवा गणतंत्र दिवस की सरकारी छुट्टी होने की वजह से सुबह के ८-९ बजे तक तनकर सो रहे होते और हम बेचारे नन्हे नौनिहालों को स्कूल-प्रशासन उस दिनपर तडके पांच-साढ़े पांच बजे ही स्कूल के लिए प्रस्थान का तुगलकी फरमान सुना डालता था ! फिर तब मन और विचलित हो उठता जब कोमल शरीरों पर शोषण का दौर शुरू होता और पसीनेदार गर्मी अथवा कड़कती ठण्ड में चिलचिलाती धूप, कुहरे अथवा मुसलाधार वारिश के बीच भूखे-प्यासे नौनिहालों को सुबह सात से ग्यारह बजे तक मैदान में टांग दिया जाता ! और उस वक्त तो मानवता क्रूरता की सारी हदें ही तोड़ डालती थी, जब उजले खादी में लिपटी कुछ मुहफट दुरात्माओं की सड़ी जुबान से निकली बदबू पर भी हम नौनिहालों को ताली बजाने के लिए जबरन मजबूर किया जाता और जबरदस्ती उनकी जय बुलवाई जाती! और अगर मैं गलत नहीं तो शायद यह भेदभाव, शोषण और क्रूरता का नंगा खेल इस देश में आज स्वतंत्रता के ६४ साल बाद भी बदस्तूर जारी है!
आज भी जब देश, समाज और अपने आस-पास घटित होने वाली हर उस घटना के परिदृश्य पर मनन करने बैठता हूँ, जिसमे राष्ट्र की सार्वभौमिकता और समाज की व्यक्तिगत आजादी पर कुठाराघात हो रहा हो तो अनायास ही मानसपटल पर यह सवाल कौंधता है कि क्या वाकई हम आजाद है? भारत माँ के माथे के कलंक अनेको भ्रष्ट, स्वार्थी और धन के लोभी भूखे-नंगों ने जिसतरह मंगोलों, मुगलों और अंग्रेज लुटेरों के लिए मेजबानी का काम किया, अपने ही घर में उनके लिए भेदी बने, और आखिरकार यह देश तीन-तीन बार लम्बी अवधि के लिए डाकुओं, अनैतिक और निर्मम लोगो के अधीनस्थ रहा, आज भी तो स्थित उससे भिन्न नजर नहीं आती ? तब और अब में फर्क सिर्फ इतना है कि वे विदेशी आये थे और विदेशी बनकर राज किया, मगर आज के ये शासक खुद को इसी देश का बताकर इसे लूट रहे है, मनमानी और लोगो पर अत्याचार कर रहे है, लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही कर रहे है ! सुरक्षा कारणों का हवाला देकर नियम कानूनों को खुद तो ताक पर रख मनमर्जी करते है, मगर दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने से नहीं चूकते ! हालांकि भ्रष्टता और बेईमानी आज क्या आम आदमी, क्या बाबा क्या महात्मा, ज्यादातर की रगों में दौडती है, मगर ताकतबर के लिए वह तब तक क्षम्य है, जबतक वह आपके खिलाप आवाज नहीं उठाता ! जिसदिन इन्हें लगने लगे कि वह इनके लिए ख़तरा बनने लगा है, सारा सरकारी महकमा ही उसके खिलाफ झोंक दिया जाता है! इनकी मनमानी की एक ख़ास वजह यह भी है कि देश जयचंदों से पटा पडा है! अगर कोई एक आगे आकर देशहित और समाज हित की बात करता भी है तो उसे ये लोग देश हित के परिपेक्ष में न देखकर सिर्फ दलगत राजनीति पर लाकर उसे हतोत्साहित करने में लग जाते है !
वैसे तो हम ज्यादातर हिन्दुस्तानियों के लिए यह दिवस महज एक दिन की छुट्टी से बढ़कर ख़ास कुछ नहीं, मगर किसी के लिए यह अगर इससे बढ़कर है भी, तो भी आज की तमाम परिस्थितियों के मद्धयनजर क्या हमारा इसे आजाद होना कहना उचित है ? दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अमेरिका भी अट्ठारवी सदी के प्रारंभ में अपने को ग्रेट ब्रिटेन से आजाद होने के उपलक्ष में थैंक्स गिविंग डे के तौर पर हर साल उस क्षण को याद करता है, क्योंकि उसने सचमुच आजादी पाई और उसे आजतक बरकरार रखा ! हमारा पढ़ोसी पाकिस्तान भी १४ अगस्त को हमसे हमारा एक बड़ा भूभाग छीनने और अलग देश बनाने के तौर पर अपना आजादी दिवस मनाता है, क्योंकि भू-भाग के तौर पर उसने भी कुछ हासिल किया ! लेकिन कुछ चोर-लुटेरों, भ्रष्ट-कातिलों के लिए स्वर्ग द्वार खोलने के सिवाए हमें क्या मिला ? हमने तो सिर्फ खोया और खोया ही है ! इसे मनाकर निश्चिततौर पर हम विश्व विरादरी और अपनी नई पीढी को यह सन्देश तो देते है कि हम इसदिन पर एक लम्बी गुलामी के बाद अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हुए थे, मगर हम हिन्दुस्तानियों ने क्या कभी गंभीरता से इन सवालों पर भी विचार किया कि वे क्या वजहें थी, जिनकी वजह से हमारे देश ने तीन-तीन गुलामिया झेली ! क्या वे वजहें और परिस्थितियाँ आज की परिस्थितियों से भिन्न थी ? ६-७ महीने में सिर्फ एक दिन देश भक्ति के गीत गाकर और देश-प्रेम की बाते कर फिर से लूट-खसोट , छल-कपट, मारकाट और देश द्रोही कामों में जुट जाना, साल में सिर्फ दो दिन तिरंगा फहराकर फिर उसे अगले छह महीने तक तह लगा के रख देने से बेहतर क्या हमारे लिए यह नहीं था कि हम उसे रोज सुबह फहराते और यह संकल्प लेते कि इसे हम हमेशा इसी तरह फहराते रहेंगे, अपने देश को नीचा दिखाने की कोई हरकत नहीं करेंगे, देश की धन सम्पति चुराकर, देश से बाहर लेजाकर दूसरे देशों के हवाले करने की गद्दारी कभी नहीं करेंगे ! स्कूल के विद्यार्थियों के लिए तो हमने यह अनिवार्य किया हुआ है कि सुबह कक्षा में शिक्षा प्रारम्भ होने से पहले हम प्रार्थना में राष्ट्रीयगान गाए, मगर हमारे तमाम सरकारी कार्यालय, जहां देशभक्ति और नैतिकता की भावना जगाने की आज परम आवश्यकता है , वहा ऐसा करना कौन अनिवार्य करेगा ?
Jai Hind !!
naitikta ki awashyakta hai kise..
ReplyDeleteबहुत गम्भीर सवाल उठायाहै आपने। काश इसका जवाब भी हमें मिल पाता।
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क्या आपके ब्लॉग में वाइरस है?
बिल्ली बोली चूहा से: आओ बाँध दूँ राखी...
राष्ट्र गान या राष्ट्र गीत की बोल भी आज के बहुत से बच्चे भूल गए होंगे ... जिस देश में नेतिक पतन की लहर तेज़ी से चल रही हो उस देश का कह्वाला कौन होगा ... ये तो समय ही बताएगा ...
ReplyDeleteमुझे लगता है हर पतन का कहीं ना कहीं अंत तो अवश्य होता होगा?
ReplyDeleteरामराम.
जबाब की तलाश में सवाल , शायद कभी मिल जाये , वह सुबह कभी तो आएगी .
ReplyDeleteकोई भी कानून बना तो दिया जाता है मगर सिर्फ़ दूसरो से लागू करवाने के लिए खुद के लिये नही बस इसी का नाम राजनीति है…………आपका प्रश्न उत्तम है मगर जवाब कहीं नही है।
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteस्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
जब उससे कुछ सीखना ही नहीं है तो पढ़ना और पढ़ाना क्यों?
ReplyDeleteजब तक इस देश की जनता जागरूक नहीं होगी, तब तक इन तानाशाहों का अन्त नहीं होगा।
ReplyDeleteआज के राजनीतिक परिवेश में क्या स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस एक मखौल बन कर नहीं रह गए है?????
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteस्वतन्त्रता की 65वीं वर्षगाँठ पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
नागरिकों में देशभक्ति की भावना आवश्यक है .. आपके इस सुंदर सी प्रस्तुति से हमारी वार्ता भी समृद्ध हुई है !!
ReplyDeleteआपका आक्रोश सही है ।
ReplyDeleteआपको और १२० करोड़ देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें ।
बाकि बचे १ करोड़ लोगों को तो पी एम जी ने भी बधाई नहीं दी । क्योंकि शायद ये वे लोग हैं जिनके स्विस बैंकों में खाते हैं ।
जयहिंद ।
गंभीर सशक्त आलेख...
ReplyDeleteराष्ट्र पर्व की सादर बधाईयाँ..
जनता जागरूक होगी, तभी तानाशाहों का अन्त नहीं होगा।
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं….!
जय हिंद जय भारत
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इस मोहभंग का कारण समझना जरूरी है। यही एक रास्ता है, ऐतिहासिक गलती को सुधारने का। इतिहास पढ़ाया ही इसलिए जाता है कि पिछली गलतियों से सबक लें। और गलती यह हो गई कि आजादी के बाद जो जनजागरण का कार्यक्रम चलाना था, वह नहीं चल पाया। राजतंत्र से लोकतंत्र में प्रवेश के लिए नया भाव, नयी समझ और नयी जिम्मेदारी आम जनता में आनी चाहिये थे। यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था, जो नये देश को मजबूत बनाये रखने के लिए आवश्यक था। देश के बुद्धिजीवी वर्ग को यह कार्य करना था, क्योंकि वे ही इस नई व्यवस्था को लाये थे। वरन् आम जनता तो राजतंत्र की छाया में रहने को आतुर है। राजकुमार राहुल हो या महारानी वसुंधरा, जनता को एक राजा या रानी आज भी चाहिये। लेकिन बुद्धिजीवियों को यह बताना कि जनता को ‘राजा’, ‘महाराजा’, ‘हुजूर’, ‘हुकुम’ छोड़ कर ‘अपने’, ‘स्वयं के’ शासन यानी स्वशासन के बारे में सोचना चाहिये । बच्चे-बच्चे को ‘स्वशासन’ का अर्थ समझाया जाना चाहिये था। परन्तु 1950 आते-आते बुद्धिजीवी फिर ‘गुलामी की बौद्धिक परम्परा’ में बह लिये। संविधान का हिन्दी अनुवाद करते समय यह परम्परा फिर सारी मेहनत पर पानी फेर गयी। आपको जानकारी होगी कि हमारे संविधान की मूल प्रति अंग्रेज़ी में हाथ से लिखी गयी थी। उसका हिन्दी अनुवाद भी हाथ से लिखा गया था। इस अनुवाद में अंग्रेज़ी के कई शब्दों का ऐसा अनर्थ कर दिया गया कि लोकतंत्र के खोल में राजतंत्र की आत्मा डाल दी गयी। ‘प्रेसीडेंट’ को राष्ट्राध्यक्ष की जगह राष्ट्रपति (राष्ट्र को पालने वाला) कहा गया। ‘गवर्नर’ को शासनाध्यक्ष की जगह राज्यपाल (राज्य को पालने वाला) कहा गया। ‘ऑफिसर’ को कार्यालय (ऑफिस) प्रभारी की जगह अधिकारी (अधिकारों का मालिक) कहा गया। विभागों के डायरेक्टरों को ‘मंत्री’ कहा गया। ‘राजा’ के ‘मंत्री’। नाम लोकतंत्र का, भाषा राजतंत्र की!
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