Friday, August 8, 2008

लघु कथा- धना



देश के बहुत से ऐसे रणबांकुरे जो १९६५ और ७१ के भारत-पाक युद्ध में कहीं गुम हो गए थे, अफ़सोस कि उनमे से अधिकाँश को देश आज तक नही ढूंड पाया। इनमे से ऐंसा ही एक बदनसीब था, धनसिंह। उत्तराखंड के सुदूर अल्मोड़ा के इर्द-गिर्द बसे पहाडी गांवो का एक निवासी, तीन बहनो का इकलोता भाई।

गरीब परिवार की मजबूरियां और देश-प्रेम की भावना उसे १२वीं पास करने के बाद रानीखेत कैंट खींच लायी और वह सेना में भर्ती हो गया। अभी रंगरूटी पास ही की थी कि देश के पूर्वी और पश्चमी मोर्चे पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। बाग्लादेश की आग पश्चमी मोर्चे तक भी पहुच चुकी थी। अत: एक दिन उसे भी जम्मू से लगी सीमा के एक मोर्चे पर तैनात होने के आदेश दे दिए गए।  जब उसे सेना की एक टुकडी के साथ दुश्मन की अग्रिम पोजिशन को पता लगाने भेजा गया तो दोनों पक्ष आपस में भीड़ गए , घमासान युद्ध हुआ, उसके सभी साथी मारे गए, जिनकी लाशें बाद मे सेना को मिल गई, मगर धनसिंह की न तो लाश मिली और न ही फिर वह लौटकर घर आया।

युद्ध के मोर्चे पर उसकी गुमशुदगी की खबर से माँ तो कुछ समय बाद ही बेटे के गम मे स्वर्ग सिधार गई, किंतु पिता जैसे-तैसे जिम्मेदारियाँ निभाता रहा। तीनों बेटियों की शादी ही कर पाया था कि एकाकी जीवन और बेटे तथा पत्नी के गम में मानसिक संतुलन खो बैठा। करीब डेड दशक पहले किसी काम से अल्मोड़ा गया था, वापसी पर अल्मोड़ा के रोडवेज़ बस अड्डे पर बैठ बस की इंतजारी में था, तभी मैंने देखा कि करीब ६५-७० साल का एक बूढा व्यक्ति अपने बांये हाथ मे एक कांस की थाली पकडे झुर्रियों भरे दाहिने हाथ से उसे बजाकर एक पहाड़ी गीत गाकर भीख मांग रहा था। पास खड़े एक स्थानीय सज्जन, जिनसे मेरा परिचय रात को वहीं होटल मे हुआ था, उन्होंने उस बूढे व्यक्ति की कहानी मुझे बताई कि कैसे इसका बेटा १९७१ की लड़ाई में गुम हो गया था। और उसके बाद ....................!

मन को अन्दर तक झकझोर कर रख देने वाली उस वृद्ध की कहानी सुनकर मैं एक टक  उसे निहारे जा रहा था। वृद्ध के दांत भी नही थे, और एक लडखडाती लय-ताल में वह वृद्ध कुछ इस तरह का पहाडी गीत गा रहा था: "त्वे जाग्दो रैंयाँ धना, डाकैकी गाडी मा ................................!" ( धन सिंह, हम तेरा डाकगाड़ी से आने का इंतज़ार करते रहे मगर तू अब तक आया नही आया ) ................  बस, एक लम्बी साँस लेकर किन्हीं गहरे  भावों मे कहीं खो सा गया था। उन बूढी आंखो को आख़िर कौन समझाए  कि तू अब अपने धना का इंतज़ार छोड़ दे, तेरा धना, अब कभी लौट्कर नही आएगा।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।