खुद के दुःख में उतने नहीं डूबे नजर आते हैं लोग,
दूसरों के सुख से जितने, ऊबे नजर आते हैं लोग।
हर गली-मुहल्ले की यूं बदली होती है आबहवा,
इक ही कूचे में कई-कई, सूबे नजर आते हैं लोग।
सब सूना-सूना सा लगे है इस भीड़ भरे शहर में,
कुदरत के बनाये हुए, अजूबे नजर आते हैं लोग।
कोई है दल-दल में दलता, कोई दलता मूंग छाती,
कहीं पाक,कहीं नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।
बनने को तो यहां आते है सब,चौबे जी से छब्बे जी,
किन्तु बने सभी 'परचेत', दूबे नजर आते है लोग।
ऐसे ही हो गये हैं लोग अब
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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इसे साझा करने के लिए आभार।
प्रणाम जी।
ReplyDeleteआभार विकेश जी
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (20-04-2014) को ''शब्दों के बहाव में'' (चर्चा मंच-1588) में अद्यतन लिंक पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सत्य वचन!
ReplyDeleteअजब प्रवृति है यह मगर बहुतायत में देखी भी जाती है की लोग अपने सुख से जितना खुश नहीं होते , उससे अधिक दूसरों के सुख से दुखी होते हैं !
ReplyDeleteहर पंक्ति सत्य ही है !
हार्दिक आभार, आप सभी का !
ReplyDeleteसब सूना-सूना सा लगता है इस भीड़ भरे शहर में,
ReplyDeleteकुदरत के बनाये हुए, अजूबे नजर आते हैं लोग।
कोई है दल-दल में दलता, कोई दलता मूंग छाती,
कहीं पाक,कहीं नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।
बहुत ही तीखी धार है आपके शेरों में ... सच्चाई को स्पष्ट कहा है ... सपाट कहा है ... बधाई ...
शुक्रिया इस उत्साहवर्धन के लिए नासवा जी।
Deleteबहुत ही सशक्त और प्रभावशाली रचना, शुभकामनाएं.
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