धूर्त,पतित यह दौर कैंसा, मगज भी घूम जाते है,
कुटिल बृहत् कामयाबी के शिखर भी चूम जाते है।
मारक जाल बिछाये है, हरतरफ शठ-बहेलियों ने,
शिकंजे में न जाने कितने, फ़ाख़ता रोज आते है।
मुक़ाम हासिल न कर पाएं वो जब माकूल कोई,
तो नेक,सुजान फिर दिल अपना मग्मूम पाते हैं।
'व्यापमात्मा' का पड़ जाए जहां मनहूस साया,
मुल्क काबिलों के हुनर से महरूम रह जाते है।
कोई पूछता न हो जिन कुकुरमुत्तों को गाँव में,
शहर आके वे भी 'परचेत' मशरूम कहलाते हैं।
मगज = माथा
फ़ाख़ता = कबूतर
मग्मूम = दुखी
बहुत गहरी बात निराले अंदाज में।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज बृहस्रपतिवार (09-07-2015) को "माय चॉइस-सखी सी लगने लगी हो.." (चर्चा अंक-2031) (चर्चा अंक- 2031) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
Aabhar Vikesh ji
ReplyDelete.
गहरी बात कह दी इन शब्दों द्वारा ...
ReplyDeleteव्यापमात्मा' का पड़ जाए जब मनहूस साया,
ReplyDeleteमुल्क काबिलों के हुनर से महरूम रह जाते है।
कोई पूछता न हो जिन कुकुरमुत्तों को गाँव में,
शहर आके वे भी 'परचेत' मशरूम कहलाते हैं।
.... बहुत सटीक सामयिक चिंतन।