Friday, July 27, 2012

पिरोयें कहाँ तक अल्फाजों में !

















किसकदर बेहयाई भरी ऐ खुदा, तुमने इन दगाबाजों में,
मेज़ तले ये मसलते हैं हाथ और झाड़-पोंछते दराजों में।   

फल-फूलता आ रहा है यह तिजारत, बदस्तूर जमाने से,
कहीं पोसते हैं इसे ये संत-समागमों में, कहीं नमाज़ों में।   

दौलत-वैभव,ढोंग,धौंसिया,ये प्रयोजन इनकी तृष्णा का, 
इशारों-इशारों में राग छेड़ते और बोल ढालते हैं साजों में।  

दरियादिली-परोपकार की, माशाल्लाह क्या मिशाल दें,  
गोश्त अलगाते कबूतरों को और दाना बांटते है बाजों में।  

जेहन में सिर्फ  वोट बसा है  और खोट बसा है नीयत में,
मुलामियत ओढ़े चहरे पे और कुटिलता काम-काजों में।      

तख़्त-ए-रियासत तजुर्बाकार है शख्सियत के खेल में,  
जालिमों की करतूतों को,पिरोंए कहाँ तक अल्फाजों में।  

11 comments:

  1. वाह...
    आपने अल्फाजों को बखूबी पिरोया ...
    बेहतरीन...

    सदर
    अनु

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  2. कहाँ तक लिखेंगे ? लिखने वाले को ही शर्म आ जाएगी ... सटीक अभिव्यक्ति

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  3. कमाल का लिखा है गौदियाल जी ... धो धो के चपत लगाईं है पर इन्हें समझ आए तो ...

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  4. इनके लिए ग़ज़ल पर इतनी मेहनत की है गोदियाल जी !
    सुन्दर है पर सब फ़िज़ूल है . :)

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  5. जुल्म, बेइंसाफी भी इनकी सह लेते यूं ही 'परचेत' मगर,
    'गरिमा' कहाँ गुम हुई ऐ खुदा ! सम्राज्ञी के इन नवाजों में !
    सच्चाई से कही गयी बात अच्छी लगी

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  6. शानदार और
    जानदार तमाचे
    वाह वाह !!
    नमक मिर्च
    के साथ वो खायेंगे
    फिर भी
    कौन सा शरमायेंगे
    हाथ जोडे़गे दाँत
    दिखायेंगे !!

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  7. तीखा कटाक्ष...
    बेहतरीन रचना...

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  8. क़रारा तमाचा! सुधरने की मगर...अब उम्मीद कहाँ...???:((
    सादर!!!

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  9. जबरदस्त .... शानदार रचना...
    सादर बधाई स्वीकारें...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।