Saturday, July 30, 2011

वाम-इस्लाम और समोसा कूटनीति !






अज्ञानता और कमीनेपन की पराकास्ठा तब अपनी सारी हदे तोड़ देती है, जब मानव समाज में नगण्य कर्मावलम्बी परजीवी प्राणी क्रूरता, धृष्टता, झूठ और छल-कपट के बल पर अपनी आजीविका चलाने हेतु अज्ञान और अचिंतन के अन्धकार से भ्रमित निर्धन, शोषित और बौद्धिक कंगाल वर्ग के समक्ष खुद को उसका हितैषी और ठेकेदार प्रदर्शित कर, भय एवं ईश्वर के नाम से दिग्भ्रमित करने हेतु नए- नए तरीके खोजता है

अभी हाल में कहीं पर एक खबर पढ़ रहा था कि अकाल और भुखमरी से ग्रस्त सोमालिया के इस्लामिक जिहादियों, जिनको कि समुद्री डाकूओ (पाइरेट्स ) के नाम से अधिक जाना जाता है,और जिनमे से अल-कायदा से जुडा हुआ एक प्रमुख गुट है, अल-सबाब, जिसने सोमालिया में अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगो को गली-मुहल्लों में घूम-घूमकर लाउडस्पीकरों पर यह हिदायत दी है कि वे आगे से समोसा न खाएं, क्योंकि समोसा पश्चमी ईसाइयत की त्रिमूर्ति (Trinity - The Christian doctrine of the trinity defines God as three divine persons in one god ) का द्योतक है (जैसा कि आपको भी विदित होगा कि समोसा तिकोना होता है ), और ये खुदा के बन्दे तो सिर्फ एक ही अल्लाह को मानते है ! बहुत पहले ऐसी ही एक रोचक खबर फ्रांस के बारे में भी कहीं पढी थी कि वहाँ के मुस्लिम बहूल इलाकों में कुछ मुस्लिम छात्रों ने ज्यामिति (geometry ) पढने से इसलिए इनकार कर दिया था कि उसमे तिकोण, और क्रॉस जैसा उल्लेख आता है!



अब जब 'बेचारे' समोसे का उल्लेख इस विषय में आ ही गया है, तो बताना अनुचित नहीं होगा कि सादे और सरल तौर पर तो यह माना जाता है कि समोसे का खोजकर्ता पश्चमी समाज नहीं बल्कि भारतीय समाज था और मुगलकाल के प्रारम्भ से बहुत पहले से ही यह भारतीय हलवाइयों और समारोहों का एक लजीज पकवान माना जाता था, किन्तु कुछ इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं है और वे कहते है कि यह दसवीं और ग्यारहवीं सदी   में ईरान में सर्वप्रथम इजाद हुआ था, और मुग़ल शासकों के दरवारी इतिहास में इसका बहुत उल्लेख मिलता है! खैर, इस विवाद से अलग यह कहना चाहूंगा कि दुनिया के अन्य  प्रदेशों की भांति अफ्रीकी प्रदेशों में भी समोसा खूब बनाया जाता है जिसमे शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के समोसे बनाए जाते है, और लोग हलवाइयों की दुकानों पर और घरों में इसे बड़े चाव से खाते है!



अब मुख्य विषय पर आता हूँ ; इसे बहुत विस्तृत परिपेक्ष में उठाया गया विषय तो नहीं कहूंगा मगर हाँ, दो ख़ास वर्ग-क्षेत्रों की ऐसी बहुत सी समानताये है जिन्हें इस 'समोसा कूटनीति' के परिपेक्ष में एक ही दृष्ठीकोण से देखा जा सकता है ! छल-कपट, स्वार्थ और बौधिक दिवालियेपन की यह गंगा हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड उड़ीसा, छतीसगढ़, और कुछ दक्षिणी राज्यों से होते हुए सोमालिया के रेगिस्तान में जाकर ख़त्म होती है! सूखा-ग्रस्त सोमालिया, कीनिया और इथियोपिया में आज जब खाद्य संकट अपने चरम पर पहुँच गया है, भूख और प्यास से वहां के लगभग सारे मवेशी और जानवर मर चुके है, करीब आठ लाख बच्चे और बतीस लाख स्त्री-पुरुष मौत के कगार पर खड़े है, संयुक्त-राष्ट्र संघ ने खतरे की घंटी बजा दी है!
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए, अमेरिका, ब्रिटेन और कुछ पश्चिमी राष्ट्र मदद को आगे भी आये है किन्तु अपहरण, फिरौती और जबरन वसूली की मोटी रकम से मालामाल ये कुछ इस्लाम के ध्वज-वाहक यह नहीं चाहते कि वहाँ के अकाल-ग्रस्त लोगों तक कोई मदद पहुंचे ! उन्होंने पिछले करीब दो सालों से ही कोई भी पश्चिमी मदद लेने पर रोक लगा रखी है, और रोक को जारी रखने का फरमान भी सुना दिया है!



ये लोग जोर देकर कहते है कि वहां कोई अकाल नहीं है ! जबकि हकीकत यह है कि ये लोग यह नहीं चाहते कि वहाँ के लोग भरपेट खाएं, समृद्ध हो ! यही सोमालियाई लोगो दर्दनाक कहानी है कि ये इस्लामिक ठेकेदार अपनी रोटियां सकने के लिए उन्हें अज्ञानता, कुरुरता, यातना और हमेशा युद्ध की भट्टी में झोंके रखना चाहते है! कितनी अजीब लगती है यह बात कि चाहे वह सोमालिया हो, पाकिस्तान हो या फिर अफगानिस्तान, ये इस्लामिक चरमपंथी एक तरफ तो पश्चमी राष्ट्रों, खासकर ब्रेटन और अमेरिका की मदद को हराम ठहराते है और दूसरी तरफ इन्ही पश्चमी राष्ट्रों से फिरौती की रकम लेने, अफगानिस्तान में ट्रकों में भेजी जाने वाली सामग्री को लूटने, ट्रक- ठेकेदारों को पश्चमी राष्ट्रों से मिलने वाली तय-शुदा राशि में से हिस्सा (जबरन वसूली ) लेने में इन्हें ज़रा भी गुरेज नहीं! साथ ही यह भी एक तथ्य है कि जब जनवरी १९९१ में अमेरिका के पिट्ठू इस देश की सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति मोहमद सैद बर्रे परास्त हुए और उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंका गया और सोमालिया में वर्तमान अराजकता का दौर शुरू हुआ, उस वक्त सोमालिया के दो तिहाई हिस्से को अमेरिकी तेल कंपनियों कोनोको, अमोको,शेवारौन आयर फिलिफ्स को आबंटित किया हुआ था! कहने का तात्पर्य यह है कि यह क्षेत्र जो आज भुखमरी के कगार पर है यह कभी तेल संपदा से परिपूर्ण था, लेकिन वहाँ का शोषित वर्ग तब भी अकाल झेल रहा था और आज भी !



अब इस समोसा कूटनीति का एक और पक्ष भारत के सन्दर्भ में देखे ! जिन राज्यों का उल्लेख मैंने शुरू में किया, वहाँ की प्राकृतिक संपदा और वहाँ के आदिवासियों की दशा और वहाँ के हमारे बाम ठेकेदारों (माओवादियों और नश्लियों के आंका ) की स्थिति सोमालिया से ख़ास भिन्न नहीं है! सोमालियाई शोषित वर्ग की भांति इन राज्यों के आदिवासियों को भी इन आंकाओं द्वारा खुद को दमित और शोषित वर्ग की आवाज और हितैषी बताकर खूब लूटा जा रहा है ! यहाँ की युवतियों को ये तथाकथित माओ भक्त अपनी हवस का किस तरह शिकार बनाते है, उसका एक उदाहरण यहाँ देखिये!

स्कूलों, रेल पटरियों, सार्वजनिक भवनों, औषधालयों को तो ये उसी मानसिकता के तहत जिस मानसिकता में सोमालियाई इस्लामिक चरमपंथी सोमालियाई लोगो को मौत के मुह में धकेल रहे है, उड़ा चुके है! और फिर एक समानातर सरकार बनाकर ये परजीवी क्रूरता और धृष्टता का नंगा नाच खेल रहे है ! हाँ, इनमे और सोमालियाई चरमपंथियों में एक फर्क भी है, वह यह कि वहाँ ये चरमपंथी इसलिए पश्चमी एनजीओ को नहीं घुसने दे रहे कि उन्हें यह डर सताता है कि ये लोग मदद की आड़ में वहाँ के लोगो का धर्म परिवर्तन करा देंगे ! और यहाँ की स्थित यह है कि यहाँ ये लोग कुछ ख़ास एनजीओ को इसलिए इन इलाकों में घुसाते है, ताकि ये उनसे पैसे लेकर इन आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करा सके! और यह बात उस वक्त भी उजागर हुई थी जब उडीसा में एक हिन्दू धर्म-गुरु की ह्त्या हुई थी ! पता नहीं, यह समोसा कूटनीति इन भोलेभाले अशिक्षित लोगो को किस मुकाम पर ले जाकर छोड़ेगी !


चित्र गूगल  और इधर-उधर से साभार संकलित   

Saturday, July 23, 2011

भ्रष्ट-तंत्र की नौ-टंकियों पर टिकी पुण्य-भूमि की बुनियाद !

लालच और भोग-विलासिता की दौड़ में अंधे होकर, मानवीय मूल्यों की परख और पहचान तो खैर हम लोग सदियों पहले ही खो चुके थे, कितुं अपने सांस्कृतिक परिवेश को भी पश्चिमी चकाचौंध और बनावटी श्रृंगार के आगे फीका करके आज जो भयावह स्थिति हमने खुद के लिए पैदा कर दी है, मैं समझता हूँ कि शायद यह उन काल और परिस्थितियों से ज्यादा भिन्न नहीं होगी, जब अतीत में यह देश गुलामी की जंजीरों को को ग्रहण करने की देहलीज पर खडा रहा होगा! आज जिस तरह भ्रष्टाचार की देवी देश के हर कोने से हमारे आगे सुरसा राक्षशी की तरह मुह बाए खड़ी है, वह हमारे लिए नितांत एक चिंता का विषय होना चाहिए !

अधर्मता,चाटुकारिता,नीचता, दुष्टता, क्षुद्रता चटोरापन, हरामीपन, कमीनापन और छिछोरेपन की ये नौ-टंकियां ..... कहने सुनने और देखने में भले ही घिनौनी ही सही, मगर, दुर्भाग्यवश आज ये वो आदर्श स्तम्भ बन गए है, जिन पर हमारे इस भारत देश की मजबूत नीव टिकी होने का हम दावा करते है ! निज-स्वार्थ ने हमें इस कदर अंधा बना दिया है कि हम अच्छे और बुरे का भेद सिर्फ अपनी आकांक्षाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही देख पाते है, उससे आगे नहीं ! देश के प्रति हमारे क्या कर्तव्य और दायित्व बनते है, उसकी किसे परवाह ? बस अपना काम निकल जाए ! चाहते तो है कि कोई नैतिकता की भी शिक्षा दे, मगर हमें नहीं, हमारे पढ़ोसी को !

शीर्ष स्तर पर बैठे व्यक्ति के भ्रष्टाचार को छुपाने और उसे बचाने में हम सिर्फ इसलिए नहीं मदद करते कि चूँकि हम उसके अधीनस्थ है, अपितु जान-बूझकर उस पर पर्दा डालकर उसके विश्वाश-पात्र बनने की इसलिए कोशिश करते है ताकि जिस भ्रष्टाचार में हम लिप्त हो, उसपर वह भी उंगली उठाने की हिमाकत न कर सके! स्वघोषित युवराज को राजा बनाने की पैरवी करते वक्त वंशवाद की बुराइयों को हम इसलिए नकारते है क्योंकि हमारा गुप्त एजेंडा यह होता है कि हमें अपना वारिश भी तो मंत्री की कुर्सी तक पहुचाना है !

एक प्रधान पब्लिक प्रोसिक्यूटर को हम सिर्फ इसलिए बेइज्जत कर देते है क्योंकि वह हमारे भ्रष्टाचार को खुलकर समर्थन नहीं देता, मगर दूसरे को इसलिए पुरस्कृत भी करते है कि वह हमारा साथ देता है, अब चाहे भले ही उसने अथवा उसके वंशजों ने यूनियन कार्बाइड जैसे जन कातिलों की पैरवी ही क्यों न की हो ! तब हंसी आती है अपने इस देश के उस तथाकथित ईमानदार महंत पर, जब वह न्यायपालिका में गुहार लगाता है कि उसके नाकारेपन से थक-हारकर न्यायपालिका द्वारा नियुक्त की गई, काले धन का पता लगाने के लिए गठित समिति को ही भंग कर दिया जाए ! वाकई में बहुत ही ईमानदार है यह महंत तो !

अंत में अफ़सोसजनक शब्दों में यही उपसंहार दूंगा कि चूँकि अपना यह भारतीय राजनेता समूह अपने माता-पिता के दूषित रक्त के साथ पैदा हुआ प्राणी है , इसलिए इससे स्वच्छता की उम्मीद रखना सरासर बेईमानी है, और अपने को धोखे में रखने जैसा है! जहां तक नौकरशाही का प्रश्न है, इस देश में तब तक अच्छे की उम्मीद रखनी ही नहीं चाहिए, जब तक सरकारी क्षेत्र में आरक्षण जैसा सामाजिक विषमता का खेल खेला जा रहा हो ! क्योंकि सत्ता पर काबिज वर्ग के लिए नैतिकता तो सर्वथा एक गौण विषय है, और यही वजह है कि हर स्तर पर भ्रष्टाचार अपने चरम पर है ! What we lack is political will and honesty not only on the part of politicians but in all spheres of life. Support Anna for strong Janlokpal bill ,otherwise all this noise to curb corruption is useless and wastge of time and effort. In other words, we would continue to witness this sort of drama(Nautanki) unless very drastic and stringent laws are in place and are complied with in letter and spirit.
यह एकदम सही है कि सारे ही राजनैतिक दल एक ही थाली के चट्टे-बट्टे है ! मगर सिर्फ यह कह देने भर से अपने कर्तव्य की इतिश्री तो नहीं हो जाती कि इनमे से ही किसी एक को सत्ता सौंपनी ही है, देश लुटवाने के लिए ! नहीं , यह हमारे आलस्य और निकम्मेपन को पर्दर्शित करता है ! बदलाव लाना है तो उस दिशा में भी प्रयास किये जा सकते है, जहां शुरुआत इस तरह से हो कि चुनकर भेजे गए नुमाइंदे को बीच में ही वापस बुलाकर बर्दी उतारने

 का हक़ आपको मिले !


जागो देशवासियों जागो ! अभी भी वक्त है !

Thursday, July 14, 2011

हम और वो !

कुछ लिखूंगा नहीं, क्योंकि फ़ायदा नहीं ! फ़ायदा इसलिए नहीं कि जो इसतरह की नीच और घृणित मानसिकता के लोग होते है, वे न तो ब्लॉग लिखते है और नही पढने में रूचि रखते है ! हाँ, इतना जरूर लिखूंगा कि बिना जाने, जांचे, और किन्ही ठोस निष्कर्षों पर पहुंचे किसी को दोषी मत ठहराइए !

ऐसे घृणित कृत्यों को करने वाले का कोई धर्म नहीं होता ! दोषारोपण करने से पहले खुद के गिरेबान में झांकना समझदारी कहलाती है ! किसी के ख़ास वर्ग को निशाना बनाने की जब हम कोशिश करते है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनमे और हममे ख़ास फर्क नहीं है ! फर्क सिर्फ इतना है कि वे पेड़ को काट डालते है, और हम जड़े खोदते है ! अभी उत्तरप्रदेश में हुई रेल दुर्घटना के बाद का दृश्य हर किसी ने नहीं देखा होगा, जैसे कि आरोप लगे कि पुलिस वाले बचाव कार्यों की बजाये घायलों और मृतकों के बटुवे और जेबे टटोलने में ज्यादा इंटेरेस्टेड थे ! तो वो हमारे ही भाई-बंद है, और उनका यह काम इन ब्लोस्टों से अधिक घृणित कृत्य भी ! यहाँ दो चित्र लगा रहा हूँ , एक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के सौतेले भाई वली करजई के हत्यारे का है जिसे अफगानियों ने चौराहे पर लटका दिया और दूसरा कसाब का ! बस आप इन चित्रों को देखिये और मनन कीजिये, मगर अभी दोष किसी और को मत देना !



                                              चित्र मेंल ऑनलाइन और गूगल से साभार !

Tuesday, July 12, 2011

"इनक्रेडिबल इंडिया" !

"इनक्रेडिबल इंडिया" (अतुल्य भारत), हमारे पर्यटन विभाग का यह पर्यटन संवर्धन नारा ऐसा नहीं कि देशभर में कहीं फिट न बैठता हो ! नि:संदेह हाल के दशकों में कुछ तथ्यों में बदलाव जरूर आया है, मगर बहुत से मायनों में अविश्वसनीय भारत के वे पुराने तथ्य आज भी बहुत सटीक है! भारतीयों की यह अपार विलक्षण अविश्वसनीयता देश के हर कोने में कदम-कदम पर मौजूद रहकर पथिक को अपने होने का अहसास कराने से हरगिज नहीं चूकती!



इस देश मे ऐसा बहुत कुछ है, जो वाकई अविश्वसनीय है ! हाल में जो रेल हादसे हुए और अनेकों निर्दोष जाने गई, वे भी इसी अविश्वसनीयता के आधारबिन्दु है ! भारतीय रेल के ऐंसे ही एक बहुत ही मामूली मगर जटिल ( हमारे राजनितिज्ञो और अफसरशाहों के नजरिये से) पहलू ने मेरा ध्यान तब अपनी ओर आकर्षित किया, जब हाल ही में मुझे रात को एक एक्सप्रेस ट्रेन से यात्रा करने का मौक़ा मिला! मुझे ट्रेन में सफ़र करते वक्त नींद नहीं आती और मैं अपनी बर्थ पर मूक लेटा-लेटा ट्रेन के पहियों से निकलता मधुर संगीत सुनने में व्यस्त था कि मेरे सामने की बर्थ पर सोये एक सज्जन जागे और अँधेरे में उन्होंने बाहर कुछ देखने की कोशिश की और फिर उपरी बर्थ पर लेटी एक युवती जो संभवतया उनकी बेटी रही होगी को आवाज देते हुए चीखे "फटाफट उतर जा (उपरी बर्थ से ), हमारा स्टेशन ( सरहिंद ) निकल गया है, अब हमें अगले स्टेशन (गोबिंदगढ़) उतरकर टैक्सी से वापस आना पडेगा " !



मैं चुपचाप लेटा, मूक बनकर उन महाशय की हडबडाहट को देखता रहा और सोचता रहा कि हमारे ये भ्रष्ट, दोयम दर्जे के राजनीतिज्ञ जनता को मूर्ख बनाने के लिए क्या-क्या सब्जबाग दिखलाते है कि हम ये करने जा रहे है, हम ट्रेनों पर वो दुर्घटना-रोधी यंत्र लगायेंगे, हम घने कुहरे में ट्रेन दौडाने का वो यंत्र लगायेंगे.... बला...बला.... !मगर हकीकत यह है कि इस अत्याधुनिक तकनीकी युग में भी ये भ्रष्ट, ट्रेन के डिब्बों में यात्रियों को यह बताने के लिए कि अगला स्टेशन कौन सा आने वाला है, एक मामूली सा कम्प्यूट्रीकृत उद्घोषणा यंत्र ६५ सालों में नहीं लगा पाए ! वोट और राजनीति के लिए पहले रेलवे की ऐसी-तैसी कर दी, और अब कहते है कि रखरखाव के लिए प्रयाप्त धन आबंटित करने हेतु वातानुकूलित डब्बों का किराया बढ़ाना होगा ! इन्हें कौन पूछे कि  मेरे देश के महान सुपूतों,  वातानुकूलित सीट के लिए एक यात्री इसलिए अधिक पैसे खर्च करता है, कि सफ़र चैन से कट सके, वह बर्थ पर आराम से सो सके ! मगर क्या उसका गंतव्य स्टेशन आने और निकल जाने की चिंता उसे चैन से आराम करने देती है ? काश कि ये घटिया प्रतिनिधि किसी व्यवहार्य समाधान को लेकर चलते न कि २०२० तक विकसित  भारत बनाने के खोखले वादों के साथ, और न बेवकूफ जनता को इस तरह वक्त-बेवक्त बली का बकरा बनना पड़ता!

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।