'कुतरा', टुकड़ा-टुकड़ा बीजकों का, कुछ भी न बचा,
दीमक 'अभिषेक ' खा गए, इतिहास 'मनु 'का रचा।
दंग रह गए देशभर के, तमाम लगान महकमे वाले,
बलाघात देने वालो को ही, धूर्त देना चाहते हैं गच्चा।
तारीफे-काबिल लगती है इनकी, ये हाथ की सफाई,
निन्यानबे के फेर में कमवख्तों ने,करोडो लिए पचा।
दफ्तर था चार्टर्ड अकाउंटेंट का, या दीमक की बांबी,
देख दुर्गत वाउचरों की, न्यायतंत्र का भी माथा तचा।
निगला देश सारा,सालों कोलगेट, टूजी-ब्रश करते रहे,
सूबे का जब सुलतान बदला, कोहराम तब जाके मचा।
भविष्य उज्जवल नजर आता है इनका तो 'परचेत',
शठ-अपवंचक अगर दीमकों को, यूं ही देते रहे नचा।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (16-11-2014) को "रुकिए प्लीज ! खबर आपकी ..." {चर्चा - 1799) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भविष्य उज्जवल नजर आता है इनका तो 'परचेत',
ReplyDeleteशठ-अपवंचक अगर दीमकों को, यूं ही देते रहे नचा।
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सटीक तस्वीर और सामयिक रचना ..
सामयिक भी और निशाने पे वार।
ReplyDeleteसटीक रचना
ReplyDeletesteek va saarthak......
ReplyDeleteदफ्तर था चार्टर्ड अकाउंटेंट का, या दीमक की बांबी,
ReplyDeleteदेख दुर्गत वाउचरों की, न्यायतंत्र का भी माथा तचा।
सटीक व्यंग है ... कई बार तो इनके बहाने सुन कर आश्चर्य होता है ... आज कल के समय में भी दीमक कितना कुछ कर जाती अहि .. पालतू दीमक है लगता है ...