Friday, November 21, 2014

जोरू-दासत्व




हुई जबसे शादी, जीरो वाट के बल्ब की तरह जलता हूँ,   
यूं  तो पैरों पे अपने ही खड़ा हूँ मगर, रिमोट से चलता हूँ।

माँ-बाप तो पच्चीस साल तक भी नाकाम रहे ढालने में,
अब मोम की तरह बीवी के बनाये, हर साँचे में ढलता हूँ।  

न ही काला हूँ, कलूटा हूँ,  न ही गंजा हूँ और न लंगड़ा हूँ ,
फिर भी उससे दहशतज़दा हूँ, उसकी नजरों में खलता हूँ।
    
डोर से बँधी इक पतंग सी बन कर  रह गई है जिंदगी , 
सब ठीक हो जाएगा यही समझाकर दिल को छलता हूँ।  

हकीकत तो ये है कि खुद कमाकर पालता हूँ पेट अपना ,
किंतु एहसास ये मिलता है,किसी के टुकड़ों पर पलता हूँ।   

जोड़ी थी जिसने जन्मपत्री, बेड़ा-गरक हो उस पंडत का,   
उजला भी काला दिखे अब तो 'परचेत',  आँखें मलता हूँ।    


6 comments:

  1. जब से हुयी है शादी आंसू बहा रहा हूँ
    आफत पडी गले में उसे निभा रहा हूँ
    ...की तरह बहुत खूब कहा ...मेरे हिसाब से जोरू बने रहने में ही परिवार का फायदा है ठीक ठाक चलती है गृहस्थी....

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  2. excellent.
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    thanks

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  3. कैसी दयनीय स्थिति - पर जिनकी सच में होती है शरम के मारे कह नहीं पाते, बिचारे !

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  4. माँ-बाप तो पच्चीस साल तक भी नाकाम रहे ढालने में,
    अब मोम की तरह बीवी के बनाये, हर साँचे में ढलता हूँ। ..
    वाह क्या बात है .. लगता है आइना दिखा रहे हैं आप सब अपने जैसे (माफ़ करें हम जैसों) को ... हा हा ...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।