मेवाराम और उसका परिवार उस गाँव में उसकी पिछली तीन पुश्तो से रहते चले आ रहे थे। मूलतः वे लोग पहाडो में बसने वाली भोटिया जाति से सम्बद्ध थे। परिवार में वह, उसकी बीबी और चार बच्चे। जिंदगी गरीबी से जूझती मगर सीमित आवश्यकतावो की वजह से ठीक-ठाक ही गुजरती जाती थी, कहने को ज्यादा उतार-चड़ाव नही थे, बस एक शांत और सीमित कही जाने वाली ज़िन्दगी थी।
चार बच्चो में लच्छी सबसे बड़ी थी और जवानी की सतरहवी देहलीज में प्रवेश कर चुकी थी। वह गाँव के ही सरकारी स्कूल से आठवी तक पढ़ी थी। उसी गाँव के प्रधान का बेटा शेर सिंह, जिसे शेरू के नाम से पुकारा जाता था, गाँव छुट्टी आया हुआ था। लोग कहते थे कि वह गाँव से सैकडो मील दूर, एक बड़े शहर में किसी बड़े सरकारी अफसर के घर पर नौकर था। क्योंकि वह काफ़ी सालो से बड़े साहब के पास काम कर रहा था, इसलिए उनके परिवार से काफ़ी घुलामिला था, और बड़े साहब और उसका परिवार उस पर काफ़ी भरोंषा करते थे। मगर इधर जब भी वह गाँव छुट्टी आता,लोगो को शेरू का एक दूसरा ही चेहरा नजर आता था। लोग उसे प्रधान की आवारा और बदचलन औलाद कहकर संबोधित करते। शेरू की नज़र एक दिन जब लच्छी पर पड़ी,तो उसका दिल मचलने लगा, वह उसके आसपास मंडराने की कोशिश करने लगा। शेरू शहर का मंझा हुआ एक वेशर्म किस्म का इंसान था, भली भांति जानता था कि कहाँ क्या दांव खेलना है, और अपनी इसी खूबी के चलते, वह लच्छी के घर तक पैंठ बनाने में सक्षम हो गया और उसके माता पिता से लच्छी से शादी की अपनी मनसा जाहिर कर दी। हालाँकि लच्छी, शेरू में जरा भी दिलचस्प नही थी, मगर प्रधान के दवाव और माता पिता की जोर जबरदस्ती के बीच उसकी एक न चली। शायद माँ बाप भी यह सोच रहे थे कि शेरू के साथ शादी कर, शहर जाकर उनकी बेटी सुख-चैन की जिंदगी बसर कर सकेगी, अतः एक सूक्ष्म ढंग से लच्छी की शादी शेरू से कर दी गई।
शादी के बाद शेरू लच्छी को अपने साथ शहर ले आया, शहर पंहुच शेरू ने अपनी नवविवाहिता के साथ कुछ महीनो तक खूब मौज मस्ती की। उसे साब की कोठी के प्रांगण में ही बने सर्वेंट क्वाटर में से एक मिला था, अतः गृहस्थी जुटाने में ज्यादा दिक्कत लच्छी को नहीं हुई। इस बीच घर से लच्छी के लिए पिता का पत्र आया, कुशल क्षेम लिखी थी। लच्छी ने भी जबाब में पत्र लिखा और लिखा कि वह भी मजे में है, आप लोग उसकी बिलकुल भी चिंता न करे। माता-पिता, बेटी का ख़त पाकर बड़े खुश हुए थे कि चलो लच्छी शादी के बाद खुश तो है। मगर, जैसा कि शेरू स्वाभाव से आवारा था, उसका मन धीरे-धीरे लच्छी से भरने लगा था और वह बात-वेबात पर उसे मारने-पीटने लगा। वह लच्छी से छुटकारा पाने के तरीके सोचने लगा। गाँव से शहर आए लच्छी को एक साल से भी ऊपर हो गया था, अब उसके लिए जिंदगी यहाँ पर दूभर सी हो गई थी, माँ- बाप, भाई-बहनों की याद पल-पल सताती और वह एकांत में जाकर खूब रोती। इस बीच बड़े साब का तबादला, दक्षिण के किसी शहर में हो गया, और बड़े साहब अपने परिवार समेत दूसरे शहर के लिए शिफ्ट करने की तैयारी करने लगे। शेरू ने भी मौका उचित समझ इसे गवाने न देने का निश्चय किया। साब के ड्राईवर के एक रिश्तेदार, जोकि टैक्सी चलाता था,के साथ लच्छी का सौदा तय कर लिया। प्लान के मुताविक बड़े साब से यह कहकर कि अपनी पत्नी को किसी जान पहचान वाले के साथ गाँव भेज रहा हू, उसे वह गाजिआबाद के मोहन नगर स्थित बस अड्डे ले गया।
जैसे ही ऑटो से उतरकर वे दोनों सड़क किनारे खड़े होकर बस का इंतज़ार करने लगे, तय प्लान के मुताविक वह व्यक्ति, जिसके साथ शेरू ने लच्छी का सौदा किया था, ऋषिकेश-ऋषिकेश... की आवाजे मारता हुआ उनके पास पहुंचा और अनजान सा बनते हुए शेरू से पूछा, कहाँ जाना है बाबूजी? शेरू भी झट से बोला ऋषिकेश, वह बोला, दो जने हो ! शेरू बोला, नहीं, पत्नी की तरफ इशारा करते हुए फिर बोला, सिर्फ इनको जाना है। वह आदमी बोला, तो आजायिए बहनजी, मैं आपको ऋषिकेश छोड़ दूंगा, मेरी टैक्सी में बस आगे की एक सीट ही बची है पीछे की सीट तो भर गयी है, जितना भाडा बस का पड़ता है, आप उतना ही दे देना, क्योंकि मुझे एक पार्टी को लेने जल्दी ऋषिकेश पहुचना है। लच्छी के मना करने के बाबजूद भी शेरू ने उसे यह बहला-फुसलाकर मना लिया कि, एक तो टैक्सी में तुम अकेली नहीं हो, और भी सवारी है। दूसरा आगे की सीट पर आराम से बैठ कर जावोगी, बस में वैसे भी तुम्हे उल्टी होती है और तीसरे यह जनाब तुम्हे ऋषिकेश से आगे की बस में भी बिठा देंगे।
घबराई लच्छी न चाहते हुए भी टैक्सी में बैठ गयी, उसके बैठते ही उस शख्स ने गाडी आगे बढा दी। शहर की भीडभाड वाली जगह से निकल कर टैक्सी शुनशान रास्तो पर आ गयी। लच्छी को तो यह भी नहीं मालुम था कि ऋषिकेश का रास्ता जाता किधर से है? कुछ देर बाद उसने टैक्सी मुख्य मार्ग से हटा कर गन्ने के खेतो के बीच से गुजरने वाली एक पगडण्डी पर डाल दी। लच्छी सहमी हुई तो जरूर थी मगर, इस बात से बेखबर थी कि पीछे बैठी सवारिया कोई और नहीं, बल्कि उसी शख्स के अपने लोग थे। कुछ दूर जाकर उसने गाडी एक खेत के बीचो-बीच मोड़ दी। अब लच्छी को किसी अनहोनी का अंदेशा साफ़ नजर आने लगा था, उसने पीछे मुड़कर पिछली सीट पर बैठे लोगो से कहा कि भाईसाब, आप इनसे पूछते क्यों नहीं हो कि ये गाडी कहा ले जा रहे है। उसकी बात सुनकर चारो ने एक जोर का ठहाका लगाया। लच्छी ने गिडगिडाकर उनसे रहम की भीख मांगी, मगर बेरहम भेडियों पर इसका कोई असर नही पड़ा। करीब हफ्ता भर तक उन्होंने लच्छी को एक शुनशान ट्यूबवेल के झोपडे में बंधक बनाए रखा और फिर एक दिन उसे दोपहर में अर्ध-विछिप्त हालत में उसी बड़े साहब के बंगले के बाहर एक कोने पर डाल गए।
कुछ देर बाद जब लच्छी को होश आया तो वह बहुत घबरायी हुई थी। वह अपने कपड़ो को सँभालते हुए दौड़कर बंगले के अन्दर गयी मगर बंगला खाली पड़ा था, सर्वेंट क्वाटर भी खाली पड़ा था। उसी बंगले से लगते, दूसरे बंगले के गेट पर खड़े चौकीदार से उसने शेरू वाले बंगले के बारे में पूछा। अधेड़ उम्र के चौकीदार ने बताया की चार-पांच रोज पहले उस साहब का तबादला दक्षिण भारत के किसी शहर में हो जाने की वजह से वे लोग यहाँ से शिफ्ट कर गए है।चौकीदार की बात सुनकर लच्छी की समझ में धीरे-धीरे पूरी कहानी आने लगी। वह समझ चुकी थी कि यह सब शेरू की चाल थी, और उसी ने यह जानते हुए कि अब शीघ्र वे इस शहर को छोड़ने वाले है, उससे छुटकारा पाने के लिए यह सारा ताना-बाना बुना था। मगर अब तक बहुत देर हो चुकी थी, लच्छी का सब कुछ लुट चूका था। बेसहारा, अब इस बड़े शहर में अकेले जाए तो जाए कहाँ ? शाम होने को आई थी और इस अचानक आई विपदा से पागल सी हो गई लच्छी को तब ध्यान आया कि सामने के फ्लाई ओवर के ठीक नीचे पिल्लरो के बगल में रहने वाले, जिन दो अनाथ बच्चो को वह कभी-कभार घर का बचा-खुचा खाना दे आती थी, वही अब उसके रात गुजारने का एक मात्र सहारा रह गया है, अतः वह तुंरत उनके पास चली गई।
रात घिर आई थी,थकी हारी, भूखी प्यासी लच्छी उन बच्चो के बगल में जाकर सो गई। मगर जिंदगी वहां भी इतनी आसान नही थी। आधी रात के करीब पास ही से पहले से उसपर नज़र गडाये कुछ गिद्ध झपट पड़े। दोनों अनाथ बच्चो ने विरोध किया तो उन्हें भी मार पीटकर भगा दिया। लच्छी और बच्चो ने चिल्लाने की कोशिश भी की, मगर फलाई ओवर के ऊपर और अगल बगल से गुज़र रहे भारी ट्रैफिक के शोरगुल में उनकी चीख कहीं दबकर रह गई। अब जैंसे मानो यह रोज का किस्सा हो गया था। लच्छी अनजान और खौफनाक जानवरों से भरे पड़े इस शहर में जाए तो जाए कहा? लच्छी के पास एक तो वापस गाँव जाने का कोई साधन नही था, और साथ ही उसे अब यह बात भी अन्दर से खाए जा रही थी कि अगर वह किसी तरह गाँव चली भी गई तो क्या सब कुछ जानकर भी घर वाले उसे स्वीकार करेंगे ? गम में डूबी लच्छी ने सोचा कि एक बार पिता को पत्र भेजकर देखती हूँ। उसने अपने पिता को पत्र लिखा कि पापा में बहुत थक गई हूँ, आप लोगो की बहुत याद आती है, यह शहर मुझे अब काटने दौड़ता है, क्या मैं आप लोगो के पास, गाँव आ जाऊ ? चूँकि फ्लाईओवर बड़े साब की कोठी के पास ही था और बड़े साब के शिफ्ट होने के बाद से अब तक खाली पड़ा था, और गेट के पास लगे लैटर बॉक्स तक उसकी पहुँच थी, अतः उसने वही पता अपने पत्र में प्रयोग किया था। पिता ने पत्र माँ को सुनाया कि देख हमारी लच्छी गाँव वापस आना चाहती है, माँ ने भी पिता को जोर दिया कि जल्दी जबाब लिखो कि वह शिघ्राती-शीघ्र आ जाए।
पिता ने लच्छी को जबाब में लिखा कि बेटी हमें भी तेरी बहुत याद आती है, तू जब फुरसत मिले, अपने पति के साथ गाँव चली आना। लच्छी ने फिर पत्र लिखा, पापा, मैं अगर आऊंगी तो अकेले ही आऊंगी, क्योंकि अब शेरू मेरे साथ नहीं आ सकता और मैं आपके पास सदा के लिए ही रहने के लिए आऊंगी। उम्मीद करती हूँ कि आप लोगो को इस बात पर ऐतराज़ नही होगा ? लच्छी का यह पत्र पाकर, पिता मेवाराम के माथे पर लकीरें खिंच गई मगर पास खड़ी लच्छी की माँ को उन्होंने यही कहा कि लच्छी जल्दी आने वाली है। मेवाराम, बेटी के इस पत्र को पाकर चिंतिति हो गया था और बार बार भगवान् से प्रार्थना कर रहा था कि लच्छी के जीवन में कोई अनहोनी न हो। फिर यह सोचकर कि, जैसा कि अमूमन हो जाता है, लच्छी और उसके पति के बीच भी कोई पारिवारिक मन-मुटाव हो गया होगा जिसकी वजह से लच्छी ने ऐसा लिखा होगा। फिर पिता ने लच्छी को पत्र लिखा कि बेटी, कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ जा, इससे तेरा मन बहलाव भी हो जायेगा और शेरू को समझने का समय भी मिल जायेगा, मगर ये जो तू कह रही है कि तू सदा के लिए यहाँ आना चाहती है तो बेटा, शादी के बाद, बेटी का असली घर उसका ससुराल ही होता है, इसलिए हम तुझे ऐंसी सलाह कभी नही देंगे कि तू ससुराल में सब कुछ छोड़-छाड़ कर, सदा के लिए यहाँ आ जा, लोग क्या कहेंगे?
घर में माँ और लच्छी के भाई-बहन, रोज लच्छी के आने की राह ताकने लगे थे। दूर पहाडी कसबे से इस गाँव में आने वाली एक मात्र गाडी शाम के वक्त सवारियों को लेकर गाँव पहुँचती थी। रोज जब गाडी आती तो परिवार के लोग उस राह पर बहुत देर तक टकटकी लगाए रहते, जिस राह से मुसाफिर बस से उतरकर, गाँव की पगडण्डी पर आता था, और जब कोई न आता तो सभी उदास हो जाते। एक रोज मेवाराम किसी काम से दूसरे गाँव से लौट रहा था कि तभी रास्ते में दो पुलिस वाले मिल गए, जो दूर कसबे की कोतवाली की तरफ़ से आये थे। मेवा राम को कुछ पूछने के बाद उन्होंने बड़े शहर के थाने से आया वह पत्र सौंप दिया, जिसमे लिखा था कि आपका पता, जो हमें शव के पास से मिले पत्र से मिला,हमें आपको सूचित करते हुए खेद है कि लच्छी ने कुछ रोज पहले शहर के एक फ्लाईओवर के पास, तेज रफ़्तार ट्रक के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली है। उसके शव को अस्पताल के शवगृह में सुरक्षित रखा गया है, अतः आप लोग आकर मृतक को पहचानने और पंचनामा कर शव का अंतिम संस्कार करने में प्रसाशन की मदद करे। पत्र पढ़कर पिता टूटकर रह गया था, शाम ढल चुकी थी, घर जाकर लच्छी की माँ को क्या बतायेगा? इसी सोच में बूढा बाप, धीरे-धीरे गाँव की तरफ डग बढाने लगा। दूर गाँव में किसी रेडियो पर एक पहाडी गीत बज रहा था, गीत कुछ इस तरह का था कि लच्छी, अब घर आ जा, शाम हो गई है !
...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
Tuesday, March 17, 2009
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