ऑफिस के काम से मुंबई जाना हुआ। सुबह ११ बजे ही काम निपट गया। छोटा सा काम था, अत: आधे घंटे में ही निपट लिया। वापसी सवा तीन बजे की थी, अत: समय गुजारने के लिए सोचा कि मैरीन ड्राइव पास में है, क्यों न कुछ देर मैरिन ड्राइव पर चहल कदमी की जाए। सामने सड़क पार की और पहुँच गए। वैसे तो बीसियों बार उस सड़क से गुजर चुका हूँ, मगर पैदल का आनंद पहली बार ले रहा था। वहां पत्थरों की आड़ में बहुत सी दिव्य-आत्माए बैठी थी, कोई घर से दफ्तर के बहाने निकला होगा तो कोई कालेज के बहाने, जिस तरह कतारबद्ध वे लोग बैठे थे, उससे यह भी अहसास हुआ कि मुंबई के लोग कितने अनुशासित है। अत: उन्हें देख मेरे दिमाग में थोड़ा सा पका आपके समक्ष पेश है ;
लड़कपन बिगड़ा माँ-बाप के लाड में ,
यौवन, संग अंतरंग झाड की आड़ में,
छूं गए जब कुछ बुलंदियां प्यार की,
जोरू आई और लग गए 'जर 'जुगाड़ में।
खैर, इसी का तो नाम जिंदगी है।
चाहे कोई खुश हो चाहे गालियाँ हज़ार दे .... मस्त राम बन के ज़िन्दगी के दिन गुज़र दें !
ReplyDeleteबढ़िया रचना है गोदियाल जी .... लगे रहिये !
वर्सोवा के डेढ़ दशक पुराने मंजर और लव पिट्स की याद आ गयी !
ReplyDeleteसुन्दर रचना..धन्यवाद.
ReplyDelete.
ReplyDeleteगोदियाल जी,
बढ़िया लिखा है आपने। और फिर प्यार हो या कोई और क्षेत्र , डरने की ज़रुरत तो कहीं भी नहीं होती ।
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ये मंजर आम है हर शहर में ...
ReplyDeleteकविता अच्छी है !
बिल्कुल जी आज तो यही हो रहा है।
ReplyDeleteअब जब दुनिया को कह ही दिया है कि "जाए भाड़ में" तो वो तो अब चाहे कुछ भी कहे.....!
ReplyDelete@ZEAL जी-सही है प्यार में डरने कि जरुरत नहीं है पर.....
पता नहीं जो मै सोच रहा हूँ वो आज के हिसाब से तर्क-सांगत सा है भी या नहीं.....!
खैर छोडो!
गोदियाल जी आप जल्दी ही स्वस्थ होकर आये और ब्लॉग पर निरन्तर अपना खडूसपना हमें यु ही प्यार से दिखाए..यही शुभकामना...
कुंवर जी,
यही उम्र है, बिगड़ जाने दो... :)
ReplyDeleteआपने बॉम्बे में गुज़ारा वक़्त याद दिला दिया ।
ReplyDeleteसोच समझ कर करना पंथी यहाँ किसी से प्यार
चांदी का यह देश , यहाँ के छलिया राजकुमार
जमकर तारीफ़ सहित
आपका अपना
ahsaskiparten.blogspot.com
गोदियाल जी,
ReplyDeleteला-जवाब" जबर्दस्त!!
बढ़िया लिखा है आपने।
त्वरित काव्य -रचना कर आपने बड़ा अच्छा शब्द -चित्र खींच लिया है.
ReplyDeleteआप सभी ब्लोगर मित्रों का तहेदिल से आभार !
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है, सागर की बड़ी लहरों पर ध्यान देना था आपको।
ReplyDeleteदेख हमको भला अब कोई नाक-भौं सिकोडे,
ReplyDeleteहमारी बला से,दुनिया जाये तो जाये भाड मे॥
गोदियाल जी , आप जो मुंबई में देख रहे थे , उससे ज्यादा दिल्ली में हो रहा था , कनाट प्लेस में ।
बहरहाल , कविता बड़ी मनोरंजक बन पड़ी है ।
आप स्वस्थ हैं, अच्छा लगा जानकर...
ReplyDeleteप्रवीण जी,
ReplyDeleteमैने तो ध्यान समुद्र की बडी लहरों पर ही केन्द्रित किया था, मगर ...... :)
दराल सहाब,और इन्डियन सिटिजन जी का भी बहुत-बहुत अभार !
वर्तमान का सुन्दर खाका खींचा है आपने!
ReplyDeleteबहुत सटीक और अर्थपुर्ण.
ReplyDeleteरामराम.
कविता मनोरंजक है
ReplyDelete........वह क्या कहने बहुत ही बेहतरीन
पांच बार पढ़ चूका हूँ पर मन ही नहीं भरता
भाई साहब उनमें से केवल दो फीसदी लोग ही होंगे जो अपने साथी को प्रेम करते होंगे....
ReplyDelete:):) हर शहर में ऐसी आड़ मिल जाती है लोगों को ...शब्द चित्र खींच दिया ...
ReplyDeleteहमें दुनिया से क्या वो मरे या जले. वैसे जितना बडा शहर उतनी बडी ये दृष्यावली हर जगह देखने को मिल ही जाएगी ।
ReplyDeleteअब जिन्हें एकांत में जगह नहीं मिलती वो सार्वजानिक जगहों पर एकांत तलाशेंगे ही...प्यार भी जीवन की मूलभूत आवशयकता है...
ReplyDeleteआप जल्द स्वास्थ्य लाभ करें और खूब लिखें
नीरज
एकांत में जगह नहीं मिलती वो एकांत तलाशेंगे ही...प्यार भी जीवन की आवशयकता है...
ReplyDeleteअच्छी रचना ..... आज के दौर का चलन दिखता है.... खूब....
ReplyDeleteछोटे-बड़े मरीन ड्राइव हर शहर में होने लगे हैं आजकल....
ReplyDeleteबहुत खूब गौड़ियाल जी ... सच कहा प्रेम तो करेंगे ... हर हाल में करेंगे ...
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