Friday, June 26, 2009

लघु कथा- बोतल !

२४ जून २००९, हफ़्ते के कार्य दिवस का तीसरा दिन यानि बुधवार था, दफ़्तर के किसी काम से गाजियाबाद गया था । अपराह्न करीब दो बजे का वक्त था, सुर्यदेव आग उगल रहे थे, अन्दाजन उस समय बाहर का तापमान करीब ४५-४६ डिग्री के आस-पास रहा होगा । दफ़्तर को लौटते मे चुंकि गाडी गर्म हो रही थी, इसलिये इत्मिनान से चालीस की स्पीड मे ड्राइव कर रहा था । मोहन नगर का आर.ओ.बी ( रेल ओवर ब्रिज) पार किया तो मेरे आगे-आगे सड़क की बाहरी लेन पर धीमी गति से एक मारुती वैन चल रही थी, मैंने भी अपनी गाडी उसी के पीछे-पीछे लगा दी। वसुंधरा, वैशाली पार करने के बाद, डाबर चौक की लाल बत्ती पार की। लाल बत्ती पार कर अभी मुश्किल से पचास मीटर आगे ही बढा हूंगा कि मेरे आगे-आगे चल रही मारुति वैन की खिड्की से एक बीयर की खाली बोतल उछलती हुई सामने फुट्पाथ पर लगे एक छोटे होर्डिंग से टकराई । और टकराकर, दो हिस्सो मे विभक्त होकर एक हिस्सा वापस सडक पर आकर मेरी गाडी के अगले बाये टायर से टकराकर चूर-चूर होकर सडक पर बिखर गया । यह सब देख, मेरा मस्तिष्क, बाहर के उस उच्च तापमान के अनुकूल क्रोध से तमतमा सा गया । एक बारी सोचा कि स्पीड बढ़ा कर उसके आगे गाडी लगाऊ और उसे रोककर उसकी बेहुदी हरकत के लिए दो चार उपदेश झाडू । फिर सोचा कि आगे गाजीपुर बॉर्डर पर जाकर पुलिस से शिकायत करू कि यह शराब पीकर गाडी चला रहा है । मगर जैसा कि अमूमन मेरे साथ होता है, कुछ देर बार खुद ही ठंडा पड़ गया, यह सोचकर कि फालतू के लफडे में पड़कर फायदा क्या ?

अब मैं दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर गया था, और खीजे हुए मन से यूँ ही विचार मग्न था । यूपी बॉर्डर क्रोस करने के बाद फ्लाई ओवर से गुजरा तो अन्य लोगो की भांति मैं भी एक बारी यह सोचने पर मजबूर हो गया कि यह फ्लाई ओवर किस वजह से वहाँ पर( गाजीपुर मुर्गा मंडी के सामने ) बनाया गया ? शायद इसका सही उत्तर बनाने वाले भी नहीं जानते होंगे । जहाँ पर(गाजीपुर चौक पर) बहुत पहले बन जाना चाहिए था, वहाँ पर अब जाकर फ्लाई ओवर का काम चल रहा है। खैर, ये तो हमारा सिस्टम है और हमें इसी सिस्टम के अधीन चलना है । चौराहे से बहुत पहले ही एक लंबा ट्रैफिक जाम लगा था, काफी देर तक रेंगते-रेंगते जब लाल बत्ती के बहुत करीब पहुंचा तो देखा कि चौराहे पर दो ट्रैफिक पुलिस वाले निर्माणाधीन पुल के पिल्लर की छांव में बैठे सुर्ती फांक रहे थे और चौराहे पर यातायात नियंत्रण की कमान निर्माणाधीन पुल के ठेकेदार के दो कर्मचारी संभाले हुए थे । मैं तुंरत समझ गया था इतने लम्बे लगे ट्रैफिक जाम का राज ।

फिर मेरी नजर अपने से कुछ दूरी पर आगे खड़ी उस मारुती वैन पर गई, जिसके पीछे-पीछे मैं गाजियाबाद से चला आ रहा था। उस वैन का चालक बियर पीने के बाद शायद थोडा झांझ में आ गया था और चौराहे पर एक पानी की बोतल बेचने वाले बच्चे से उलझा हुआ था। शायद उस बच्चे से सस्ती दर पर पानी की बोतल देने को कह रहा था, किन्तु बच्चा बोतल के दस रूपये मांग रहा था । वह यही कोई ९-१० साल का बच्चा था, एक फटी नेकर और बिना बाजू की पुरानी मैली सी बनियान पहने था। और जब मेरी नजर उसके नंगे पैरो पर गई, एक बारी तो हल्की सी सिहरन मेरी रीड की हड्डी के पार उतर गई थी । ४५-४६ डिग्री तापमान और तेज धूप में, उस गरम आग उगलती कोलतार की सड़क पर वह बच्चा नंगे पाँव खडा था । शायद जब उसका पैर ज्यादा जल जाता था तो एक पैर वह थोड़ी देर ऊपर उठाके रखता, फिर कुछ देर बाद उस पैर को नीचे रखता और दूसरा पैर ऊपर उठाता था। मारुती वैन वाले वे सज्जन मानो लाल बत्ती पर खड़े-खड़े अपना समय गुजारने के लिए फालतू में ही उस बालक से झक मार रहे थे, क्योंकि उस चौराहे पर एक बार अगर लाल बत्ती हो गई तो पूरे ८ से १० मिनट का स्टोपेज है, और उसके बाद ही हरी बत्ती होती है । उन्हें इसकी ज़रा भी परवाह नहीं थी कि यह बच्चा इस चिलचिलाती धूप में नंगे पैर खडा है, शायद उनकी बला से यह सब तो एक आम बात जैसी थी। वह बच्चा बार-बार उस पानी की बोतल को गाडी की खिड़की से अन्दर को ठेलता और वे सज्जन उसे बाहर ठेलते, यही सब चल रहा था ।

उसे देख मैं मन ही मन उसकी तुलना अपने बच्चो से कर रहा था, और सोच रहा था कि इनके माँ-बाप कैसे निठुर होते होंगे जो इस बात की तनिक भी चिंता नहीं करते कि इस तपती गर्मी और लू के थपेडो में अगर उसे कुछ हो गया तो ? हम तो बच्चे जब स्कूल से लौटते है तो उनके लिए छाता लेकर बस स्टाप पर खड़े रहते है कि कहीं उन्हें धूप ना लगे । एक तरफ़ मन यह भी कह रहा था कि हो सकता है यह बच्चा इसके तथाकथित माँ-बाप अथवा गैंग ने कहीं से चुराकर अथवा उठाकर इस काम के लिए अपने पास रखा हो, अतः उन्हें इस बात की क्या फिकर कि इसे अगर कुछ हो जाए.........???

मैं इन्ही ख्यालो में उलझा था कि वह बच्चा उस गाडी को छोड़, बगल वाली गाडी की और बढा। वहाँ से भी कोई जबाब न मिलने पर वह मेरी गाडी की तरफ लपका, वह बार-बार अपने ओंठो पर अपनी जीभ फेर रहा था। मैं अभी मन बना ही रहा था कि मैं इससे यह बोतल खरीद लूँगा कि तभी इस बीच मेरी और की कतार में खड़े वाहनों के लिए हरा सिग्नल हो चुका था। दनादन गाडियों के हार्न बजने लगे थे, मैं भी गाडी को पहले गेयर में डाल, एक्सीलेटर पर दबाव बनाने जा ही रहा था कि अचानक मेरे ठीक आगे वह बच्चा चक्कर खाकर, बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ा। हाथ में पकडी उसकी बोतल कुछ दूर लुड़ककर चली गयी थी। मैंने गाडी वहीं पर बंद की और तुंरत बाहर निकल कर उस बच्चे को गोदी में उठा सड़क के किनारे पर ले गया । सड़क किनारे खड़े बैरिकेड की छाव में उसे लिटा, मैं फिर उसकी उस पानी की बोतल को लेने लपका, जिसे कुछ देर पहले वह पकडे, बेचने की कोशिश कर रहा था।

मैंने जल्दी से बोतल की सील तोड़, ढक्कन खोलकर, ठंडा पानी उसके चेहरे पर उडेला, इस बीच उसी के कुछ साथी तथा आसपास के कुछ लोग वहाँ पर घेरा बनाकर खड़े हो गए थे। मैंने उसके साथियो से उसके हाथ पैर मलासने को कहा और उसका मुह खोल बोतल के ढक्कन से तीन चार ढक्कन पानी उसके मुह में उड़ेले। थोड़ी देर बाद उसे होश आ गया और वह आँखे खोल धीमे से बडबडाने लगा, बाबूजी, दस रूपये की बोतल है.... बाबूजी दस...........! मैंने अपना पर्श निकाल दस रूपये उसे थमाए और पूछा कि उसे क्या हुआ और क्या अब वह ठीक है ? उसने जमीन में टिके अपने सिर को हाँ में हिलाया और बोला, बाबूजी मुझे बहुत प्यास लग गई थी, इसलिए चक्कर आ गया। उसकी बात सुन मेरा दिल पसीज गया था, मैंने सहारा देकर उसे वहीं जमीन पर बैठाया और वह पानी की बाकी बची आधी बोतल उसे पीने को दी, उसने संकोच भरी नजरो से मुझे देखा, मैंने कहा, पी लो, घबरावो नहीं, मैं तुमसे पैसे वापस नहीं मांग रहा । बस, फिर वह सारा पानी एक ही सांस में घटका गया था । थोडा रुकने के बाद मैंने उसे पुछा कि क्या अब वह ठीक है ? उसने कहा हां, बाबूजी मैं बिलकुल ठीक हूँ । मैंने पर्श में से उसे दस रूपये और दिए और कहा कि आस-पास में कहीं से कुछ लेकर खा लेना। दस का नोट हाथ में पकड़ते ही उसके बुझे चेहरे पर एक रौनक सी आ गई थी।

फिर से हरा सिग्नल हुआ और मैं चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर। रास्ते में सोच रहा था कि इंसान का नसीब देखो कि हाथ में पानी की बोतल होते हुए भी प्यास से तड़प-तड़प कर मरना पड़ रहा है क्योंकि मजबूरिया उसे वह पानी पीने नही देती , और एक वह भी इंसान था, जिसने एक बियर की बोतल खरीदने के लिए शराब की दूकान पर तो खुसी-खुसी ७०-८० रूपये खर्च कर दिए होंगे (गाजियाबाद में इतने से कम की नहीं मिलती), लेकिन एक गरीब बच्चे से पानी की एक बोतल खरीदने के लिए बोतल पर डिस्काउंट मांग रहा था।

Wednesday, June 24, 2009

घंटा मिलेगा ?

कहाँ जाकर के छंटा,
मन का द्वन्द मेरा,
कुछ यूं रहा 
घंटे संग सम्बन्ध मेरा।    

जब पैदा हुआ 
तो पंडत पिता से बोला,
जन्मकुंडली पूजनी है ,
इक घंटा चाहिए।

गोदी में पिता की, 
मंदिर को चलने लगा,
पूछा, पापा वहाँ क्या मिलेगा?
पापा बोले, घंटा मिलेगा !

पांच का हुआ तो पिता संग 
उंगली पकड़ स्कूल को चल दिया,
कौतुहलबस पूछा, वहाँ क्या मिलेगा?
पापा बोले, घंटा मिलेगा !

दाखिले बाद स्कूल जाने को हुआ,
तो पिता बोले, मन लगाकर पढ़ना,
आदतन पूछा, पढ़कर क्या मिलेगा?
पापा बोले, घंटा मिलेगा !

शादी के लायक हुआ तो,
पिता ने घोडी पर चढ़ाया ,
मैंने फिर पूछा, शादी से क्या मिलेगा?
पापा बोले, घंटा मिलेगा !

गृहस्थ जीवन में प्रवेश हुआ तो,
नवेली दुल्हन से मैंने पूछा,
जानेमन, नाश्ते में क्या मिलेगा ?
वह मुस्कुराई, अंगूठा दिखाया और चल दी !

आखिर जब रिटायर हुआ तो,
बेटे ने वृद्धाश्रम ले जाकर छोड़ दिया,
मेरी नजरों में अनगिनत सवाल थे,
किंतु वह बोला कुछ नही !

बस, एक कांसे का हाथ में पकडा गया !!

Thursday, June 18, 2009

बेईमान बड़ा भाई !

भरी महफ़िल में लोग आज बुजुर्ग और सम्मानित शास्त्रीजी की वे छोटी-छोटी कहानियाँ ध्यान लगाकर और बड़े चाव के साथ सुन रहे थे, जिसमे शास्त्री जी हर परिवार के बड़े बेटे को बेईमान ठहराने पर तुले थे। शास्त्री जी अपने इस तर्क को कि परिवार में जो सबसे बड़ा पुत्र होता है, वह अक्सर बेईमान और धोखेबाज होता है, सही ठहराने के लिए अब तक तीन-चार छोटी-छोटी कहानिया सुना चुके थे, कि कैसे परिवार के बड़े पुत्र ने अपने छोटे भाई-बहनों के साथ धोखा किया। उनकी कहानिया और उस पर आधारित तर्क सुनकर कुछ लोग तो स्तब्ध थे, मगर कुछ लोग, जिन्हें वह कहानिया और तर्क सूट करते थे, या यों कहे कि जिन्हें परिवार का बड़ा बेटा होने का दुर्भाग्य प्राप्त नहीं हुआ था, वे शास्त्री जी की जय-जयकार कर रहे थे, और साथ ही उस अज्ञात 'बड़े भाई ' को दिल खोल कर बुरा भला भी कहे जा रहे थे। उनमे से एक-आध का बस चलता तो वे यहाँ तक सुझाव देने को तैयार बैठे थे कि सरकार को चाहिए कि किसी भी परिवार में बड़ा बेटा पैदा होने पर ही प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए, और अगर कोई गलती से पैदा हो भी गया, तो पैदा होते ही उसका गला दबा दिया जाना चाहिए । ताकि आगे चलकर वह भी बेईमान और धोखेबाज न बने ।

उनकी बात ख़त्म हो जाने के बाद, अब तक पास में चुपचाप बैठे विकाश ने वाह शास्त्री जी वाह, कहकर ताली बजाई और कहा कि आपने तो पूरी की पूरी 'बड़े भाई' की जाति पर ही बेईमानी का ठप्पा लगा दिया । क्या बात है । और हाँ आपने यहाँ पर कुछ जख्मो को भी हरा कर दिया है। एक बारी उसका दिल किया कि शास्त्री जी से पूछे कि आप अपने परिवार में भाइयो में कौन से स्थान पर आते है? और अगर उनका जबाब यह रहता है कि वे परिवार के सबसे बड़े पुत्र नहीं है तो वह कहेगा कि शास्त्री जी, जभी तो आपने बिना सोचे-परखे बड़े भाई पर इतना बड़ा लांछन लगा दिया। लेकिन फिर वह कुछ सोच कर चुप रह गया। शायद उसके चुप रहने का एक कारण यह भी था कि उसने भी बचपन से आज तक अपने संस्कारों में, अपने व्यावहारिक जीवन में, बस सब्र करना और चुप रहना ही तो सीखा था । आज भले ही उसके जीवन के आधे पडाव पर उसके लिए उन बातो का कोई ख़ास महत्व नहीं रह गया हो, लेकिन परिवार में सबसे बड़ा होने के नाते उसको उसके संस्कारों में बचपन से लेकर जवानी की देहलीज तक, बस एक ही घुट्टी पिलाई गई थी कि "क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात, का रहीम हरी को घट्यो, जो भृगु मारी लात" ।

विकाश वहां से चुपचाप उठकर अपने घर की और चल पडा था, लेकिन शास्त्री जी के उस तर्क ने उसे अन्दर तक विचलित और व्यथित करके रख दिया था। उसका मन उसे अन्दर से इस बात के लिए बार-बार उकसा रहा था कि वह अभी वापस जाए और शास्त्री जी को बताये कि आज के अधिकाँश बच्चे तो काफी सौभाग्यशाली है कि वे या तो दो भाई ही है या फिर एक भाई-एक बहिन है, इसलिए बड़े भाई द्बारा बेईमानी और धोखेबाजी की तथाकथित गुंजाइश बहुत कम रह जाती है, लेकिन चंद दशको पूर्व तक जब माँ-बाप घर में बच्चो की एक पूरी फौज ही खडी कर डालते थे, तब अगर आप परिवार के सबसे बड़े पुत्र होते तो शायद आपने जरूर महसूस किया होता कि बड़ा बेटा या भाई होने का दर्द क्या होता है?

चलते-चलते उसकी आँखों में उसका अपना भूतकाल उसके सामने था । वह जब दो साल का हुआ था तो पीछे से परिवार में एक और भाई आ गया, और बस तभी से शुरू हो गई उसके भावनात्मक, पारिवारिक और सामाजिक शोषण के नए युग की शुरुआत । जब दो-तीन बर्ष का वह नन्हा विकाश आंगन में किसी खिलोने से खेल रहा होता था, और माँ की गोदी में बैठे उसके साल भर के छोटे भाई ने खिलोना उसे देने की जिद कर दी तो माँ कहती कि बेटा विकाश, तू बड़ा है, खिलौना छोटे को दे दे । कभी जब वह कोई टॉफी वगैरह खा रहा होता तो छोटा भाई अपने हिस्से का खा चुकने के बाद भी जिद कर दे तो माँ कहती कि बेटा अपने हिस्से में से भी उसे दे दे, तू बड़ा भाई है । अगर कभी मान लो कि नन्हे विकाश ने न देने की जिद कर दी तो माँ उसके एक-दो झांपड लगाने में भी देर न करती । मानो उस नन्ही जान की अपनी कोई ख्वाइश नहीं, कोई अपना बचपन नहीं । और फिर कुछ सालो में एक के बाद एक, पांच-छै बच्चो की घर में लाइन लग चुकी थी, और माँ-बाप की इस अय्याशी का दंश, ऊपर वाले की देन समझकर मुख्यत विकाश को ही हरवक्त झेलना पड़ता था।

पिता की एक अच्छी सरकारी नौकरी होने के वावजूद, बड़े परिवार की वजह से उसने न कभी बहुत अच्छा
खाया-पिया, और न कभी पहना । जैसे-तैसे सरकारी स्कूल से बारहवी पास की तो पिता ने हाथ खड़े कर दिए कि चूँकि अभी उसके पांच और छोटे भाई-बहन भी पढने लिखने वाले है इसलिए उसे आगे नहीं पढाया जा सकता । आगे पढने की प्रबल इच्छा के वावजूद हालात का मारा विकास अपने एक रिश्तेदार के साथ नौकरी करने मुम्बई पहुँच गया। होटलों में नौकरी करते-करते भी उसने ग्रेजूएसन कर दिया था। वह कभी-कभी सोचता था कि अगर माँ-बाप ने बच्चो की इतनी लम्बी लाइन नहीं लगाईं होती तो उनकी आर्थिक स्थिति भी इतनी खराब नहीं होती और वह मनचाहे ढंग से आगे तक पढ़ सकता था, एक बड़े परिवार के चलते सबसे बड़े बेटे को ही अपनी इच्छाओ और सुख-सुबिधावो की कुर्बानी देने पड़ रही थी ।

कुछ समय बाद उसे मर्चेंट नेवी में नौकरी मिल गई थी, और ट्रेनिंग ख़त्म करने के बाद वह खुशी-खुशी अपने जीवन की उस पहली लम्बी समुद्री यात्रा पर निकल पड़ा था। दूर पहाडो में बैठे उसके परिवार वालो को जब यह खबर मिली कि उनका बेटा मर्चेंट नेवी में लग गया है तो उनकी खुसी का कोई ठिकाना न था । माता-पिता भी बड़े-बड़े सपने देखने लगे थे । कुछ महीनो बाद जब वह गाँव वापस लौटा तो पिता ने पैसे का रोना रोते हुए उसकी छोटी बहन के हाथ पीले करने की जिम्मेदारी भी बड़ा भाई होने के नाते उसके कंधो पर डाल दी । और फिर उसने अपनी अब तक की कमाई से अपनी हैसियत के हिसाब से, बहन की धूम-धाम से शादी कर दी। और फिर एक साल बाद उसकी भी इलाके की ही एक लडकी से शादी कर दी गई । चूँकि उसे पूर्वनिर्धारित तिथि पर जहाज पर शिपमेंट लेकर जापान जाना था, अतः शादी के सात दिन बाद ही अपनी नई-नवेली दुल्हन को अपने घर वालो के पास छोड़कर वह ड्यूटी पर लौट गया था।

दुर्भाग्यवश, जापान से लौटते वक्त कोरयाई समुद्र में उनका जहाज एक बड़े तूफ़ान में फंसकर समुद्र में डूब गया। कुछ दिनों बाद जब यह खबर उसके घर पहुँची तो उसे मृत समझकर घटना के एक साल बाद परिवार ने उसकी विधवा की शादी उसके छोटे भाई से कर दी । लेकिन उधर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था, जहाज डूबने पर मौत से लड़ते-लड़ते लाइफ बोट के सहारे वे दक्षिण कोरिया के समुद्र तट पर पहुँचने में कामयाब हो गए थे, लेकिन अभी मुसीबतों ने साथ नहीं छोडा था। वहाँ की सरकार ने इन्हें गैर कानूनी ढंग से वहा घुसने पर जेल में डाल दिया।

करीब पांच साल बाद जेल से छूटने के उपरांत जब वह अपने गाँव पहुंचा तो दुनिया ही बदल चुकी थी। उसकी अपनी पत्नी अब उसके छोटे भाई की पत्नी थी, और उनके दो बच्चे भी हो गए थे । पिता गुजर चुके थे । भाइयों में जायदाद बंट चुकी थी । और कुछ ने तो अपने हिस्से की बेच भी डाली थी । माँ ने जब फिर से हिस्से करने की बात उन भाइयो के सामने रखी तो वे सभी भाई मुकर गए । विकाश ने शालीनता से खुद ही उनका सब कुछ छोड़-छाड़ दिया और कहा कि तुम लोग खुश रहो, मुझे कुछ नहीं चाहिए । कुछ साल बाद उसने फिर पास के कस्बे में जमीन ख़रीदी, मकान बनाया और फिर शादी की। मगर सवाल यह था कि क्या विकाश उस नई जिन्दगी को उतने सहज ढंग से जी सका ? अगर वह घर का बड़ा बेटा न होता, अथवा वही सिर्फ घर का एक बेटा होता तो जिन परिस्थितयों से वह गुजरा, क्या तब भी उसे उन हालातो से होकर गुजरना पड़ता ?

( नोट: मै शास्त्री जी का इस बात के लिए तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ कि उनकी बात ने मुझे यह कहानी लिखने को प्रेरित किया )

Monday, June 8, 2009

लघु कथा- बुरी नजर वाला !

प्राइवेट नौकरी में उसकी तनख्वाह बहुत कम थी । घर में दो बच्चे पढने वाले थे, और महीने के आखिर में तनख्वाह में से मुश्किल से बच्चो की फीस निकाल पाते थे । कमाई का और कोई जरिया भी न था, उस पर आये दिन बच्चो के स्कूल से नई-नई डिमांड । बड़े शहर में घर से दफ्तर भी काफी दूर था, और वेतन में से एक अच्छी-खासी रकम बस के किराये पर ही खर्च हो जाती थी। वह हर समय यही कोशिश करता रहता कि किसी तरह किराए के खर्च को न्यूनतम रख सकू ।

एक सुबह बस से वह अपने घर से अपने दफ्तर आ रहा था, प्राइवेट बस सवारियों से खचाखच भरी थी। ड्राइवर की सीट के ठीक पीछे खड़े-खड़े लोहे का डंडा पकडे वह कुछ सोचते हुए ध्यान मग्न था कि अचानक उसकी नजर अपनी बस के आगे-आगे जा रही एक और प्राइवेट बस के पिछले हिस्से पर पडी, यह बस भी उसके घर से दफ्तर वाले रूट की ही थी। बस के पिछले हिस्से में नीचे की ओर मोटे-मोटे अक्षरो में लिखा था " बुरी नजर वाले के लिए फ्री सेवा " और उसके आगे एक जूते जैसी आकृति बनाई हुई थी । उसके दिमाग में एक आइडिया आया और उसने ठान ली कि वह कल से उसी बस में यात्रा करेगा।

अगले दिन वह पुनः आफिस जाने के लिए बस स्टैंड पर आया और उस बस का इन्तजार करने लगा । शीघ्र ही वह बस आई और वह उसमे चढ़ गया। कुछ दूर चलने के बाद कंडक्टर ने आकर उससे टिकट खरीदने को कहा, लेकिन उसने यह कहकर टिकट लेने से मना कर दिया कि वह बुरी नजर वाला है । काफी बहस हुई, झगड़ते-झगड़ते कंडक्टर ने अपना जूता भी निकाल दिया कि अगर तुम बुरी नजर वाले हो तो तुम्हारे लिए जूता फ्री है । उसने उसे रोकते हुए चेतावनी दी कि अगर उसने जूता इस्तेमाल किया तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे । अब मामला इतना बढ़ गया कि पहले बात बस मालिक तक गई और फिर कोर्ट तक जा पहुँची। जज ने दोनों पक्षों को सुना । उसने कहा कि श्रीमान, चूँकि मैं एक बुरी नजर वाला हूँ और इन्होने अपनी बस के पीछे लिखा है कि ये बुरी नजर वाले को फ्री सेवा देंगे, अतः अब इनका यह फर्ज बनता है कि ये मुझे अपनी बस में मुफ्त में यात्रा करने दे । इस पर बस मालिक ने कहा कि नहीं श्रीमान, हमने अपनी बस के पीछे जहां पर यह लिखा है कि बुरी नजर वाले के लिए फ्री सेवा है उसके आगे हमने एक जूते का चित्र भी बनाया है, अतः हमारा आशय यह है कि हम बुरी नजर वाले को जूते से फ्री सेवा देंगे ।

जज ने दोनों पक्षों को गौर से सुना, उन्होंने फिर पहले पक्ष से पूछा कि इस बात के तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुम बुरी नजर वाले हो ? वह बोला, श्रीमान, मैं बहुत दिनों से इनकी बस पर नजर गडाए हुए हूँ, यह एक नई और अच्छे डिजाइन की बस है, इसका मालिक मेरा पडोसी है । मैं इसको फलता-फूलता नहीं देखना चाहता, इसलिए मैंने यह प्लान बनाया है कि मैं इसमें सफ़र करने वाले अपने इलाके के सभी लोगो को इस तरह भड़काऊ कि वे सभी भी खुद को बुरी नजर वाला बता कर इनकी बस में बिना टिकट यात्रा करने लगे, इससे क्या होगा कि इनकी आमदानी ख़त्म हो जायेगी, और ये इस बस की किश्त और ड्राइवर-कंडक्टर का वेतन भी नही निकाल सकेगे । उसकी बात सुनकर जज पहले थोडा हंसा और फिर जज ने व्यवस्था दी कि चूँकि बुरी नजर का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि किसी ने किसी की चीज को देखा और वह बिगड़ जाए, या फिर कुछ अशुभ हो जाए । लेकिन बुरी नजर का यह आशय जरूर होता है कि कोई दुराग्रह से गर्षित होकर किसी को नुकशान पहुंचाने की ताक में रहे, और प्रथम पक्ष की बातो से यह स्पष्ट है कि वह बस मालिक की संपत्ति पर बुरी नजर गडाए हुए था, और चूँकि बस मालिक ने अपनी बस के पीछे लिखित मैं यह घोषणा कर रखी है कि बुरी नजर वाले के लिए फ्री सेवा, और चूँकि जूते के चित्र बना लेने से यह स्पष्ट नहीं होता कि इनका आशय जूते की फ्री सेवा से है, अतः बस मालिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह अपना वचन निभाए, और जब तक यह बस उनके पास मौजूद है, वे पहले पक्ष को उसकी फ्री सेवा मुहैया करवाए ।

तो आजकल वे जनाव, ऑफिस से आने जाने और शहर के अन्य स्थानों पर फ्री में यात्रा करते है। तनख्वाह में से अब महीने के पांच सौ रूपये भी बच जाते है ।



नोट : घटना काल्पनिक है!

Friday, June 5, 2009

शोध तृष्णा !

उनके इकलौते बेटे गुलाब के उनसे अलग होकर डॉ खुसबू के साथ चले जाने के तीन साल बाद, उन दो ढलती शामों के लिए घनघोर काली रात के आगमन की प्रतीक्षा से पहले आज की सुबह एक खुशनुमा सुबह की तरह थी । लॉन की हरी घास पर शांत और शिथिल कदमो से चहलकदमी करते हुए दोनों चारदीवारी के आखिरी छोर पर जाकर बैठ गए थे, बिना किसी संवाद और विचारों के, मानो कि जिन्दगी में अब उनके लिए बदलाव के कोई ख़ास मायने न रह गए हो। वह भी वक्त था, जब कभी अपने जमाने की ये दो शख्सियत, फुर्सत के पलों में इस तरह जब भी साथ होते थे, तो घंटो बस एक दूसरे के उन हंसमुख और जीवंत चेहरों को ही पढ़ते रहते थे, मगर आज उनके लिए वक्त काफी बदल चूका था, चिपककर साथ-साथ बैठे होने के वावजूद भी नजरे तक मिलाने की चाह भी दिल में नहीं रही थी। हर इंसान के लिए किसी बात का अर्थ और वास्तविकता यकायक कितना बदल जाते है, जीवन जीने के मायने कितने अलग हो जाते है, आज भला उनसे ज्यादा और कौन जान सकता था।

कुछ दिन पहले गुलाब का फोन आया था, एक व्यथित उदास लहजे में उसने अपनी माँ से अगले शनिवार को वापस उनके पास लौट आने की बात कही थी । बस, इसीलिए आज उन दो झुरियों से भरे मुरझाये चेहरों पर कहीं कोई हल्की सी भोर की बयार कुछ छटा बिखेरती नजर आ रही थी। कभी सामने की दूर तक स्लोप में फैली पहाडियों के ऊपर विखरी कुहरे की एक सफ़ेद चादर और उनपर पड़ती भोर की पहली किरणों की एक पीली छटा को शून्य में निहारते हुए और फिर कभी नीचे तलहटी में कल-कल ध्वनि से बहती नदी को टकटकी लगाकर देखते हुए प्रोफेसर काला उस एकदम खामोश वातावरण की शांति को जब-तब अपने गले से निकलने वाली खांसी की कर्कस ध्वनी से बाधित कर देते थे। फिर खांसते-खांसते ही, नजरो को सामने पहाडी पर टिकाये रखते हुए एक भर्राई सी आवाज में उन्होंने मिसेज काला को संबोधित कर पूछा था; गुल्लू ने आज आने को कहा था? ( वे लोग बचपन से गुलाब को प्यार से गुल्लू कहकर पुकारते थे ) हँ, जबाब में बिना शरीर को हिलाए डुलाये निर्जीव आधे से ही 'हाँ' शब्द में मिसेज काला ने जबाब दिया था, और उसके बाद पुनः एक गहरी खामोशी वातावरण में छा गई ।

डाक्टर खुसबू से शादी के एक साल बाद तक तो मिसेज काला, प्रोफेसर काला और उन्हें मिलने आने वाले नाते-रिश्तेदारो के साथ रोजाना गुलाब और खुसबू को उनसे सम्बन्धित हर बात पर कोसती रहती थी और तब प्रोफेसर काला उसे यह कहते हुए शांत करवाते रहते थे कि इसमें उन लोगो का कोई दोष नहीं, शायद हम ही से कहीं गुल्लू की परवरिश में कोई कमी रह गयी । लेकिन न चाहते हुए भी, जबसे प्रोफेसर काला ने डाक्टर खुसबू की पुरानी जिन्दगी की सारी हकीकत मिसेज काला को सुनाई थी, वह जड़वत हो गई थी । पहले तो वह इस तरह की आस लिए फिरती थी कि उनके लिये न सही मगर गुलाब और खुसबू के लिये कभी तो जिन्दगी बद्लेगी, कभी न कभी गुलाब को अपनी गलती का अहसास तो जरूर होगा और वह डाक्टर खुसबू के साथ वापस लौटकर उनके पास माफी मागने आयेगा, लेकिन डाक्टर खुसबू की इस सच्चाई से वाकिफ होने के बाद उसका वह भरम टूट्कर एकदम चकनाचूर हो गया था । अब अगर उसे गलती का अहसास हुआ भी, और वे लोग वापस आ भी गए तो भी उसके लिए क्या खुशी ? उनकी झोली में तो अब सब गम ही गम भरे पडे थे।

पुराने दिनों में प्रोफेसर काला जब उत्तराँचल के विश्वविद्यालय में कार्यरत थे, तभी एक तेज-तर्रार और पढाई में बहुत ही कुशल लडकी, खुसबू बडोला ने यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया था और विश्वविद्यालय के हॉस्टल में रहने लगी थी। यूनिवर्सिटी में जहां एक ओर कुछ लोग उसकी कौशलता और निपुणता की तारीफे करते नहीं थकते थे, वही कई बार हास्टल वार्डेन, प्रोफेसर से उसकी तरह-तरह की शिकायत भी कर चुकी थी। चार साल में ही खुसबू का पूरे कैम्पस में एक अलग रुतवा था, और तब एक दिन यह रुतवा अपने परवान चढ़ गया, जब यह खबर आई कि खुसबू बडोला को कनाडा के क्युवेक प्रान्त में स्थित कैलिगरी यूनिवर्सिटी से बौट्नी में रिसर्च फैलोशिप मिल गई है, और वह कनाडा जा रही है। पूरी यूनिवर्सिटी में खुसबू का कद एकदम बढ़ सा गया था, और वहां के लेक्चरर और प्रोफेसर सभी लोग , उसे बड़े इज्जत की नजरो से देखने लगे थे ।

एक बार जब खुसबू कनाडा पहुची तो सात साल तक नहीं लौटी। वहाँ जाकर अपनी वाक- पटुता और बला की खूबसूरती के बल पर खुसबू बडोला से वह डॉक्टर खुसबू मौलिनी बन गई थी, उसने अपने ही विभाग के फ्रेंच मूल के अपने से करीब बीस साल बड़े, प्रोफ़ेसर पीटर मौलिनी से वहीं पर शादी रचा ली थी। लेकिन उनका यह साथ बहुत दिनों तक नहीं चल सका, शादी के डेड-साल बाद ही प्रोफेसर मौलिनी की ऐड्स से पीढित होकर मृत्यु हो गई । सुनने में तो यह भी आया था कि उसके बाद डाक्टर खुसबू ने वही टोरंटो में अपने ही विभाग के एक और शोध-कर्ता से भी शादी की थी, मगर वह भी साल भर के अन्दर-अन्दर चल बसा था। सात साल बाद जब डॉक्टर खुसबू हिंदुस्तान लौटी तो पुनः उसी विश्वविद्यालय में बौट्नी की लेक्चरर बन गई थी।

प्रोफेसर काला अब रिटायर हो चुके थे, और उनका बेटा गुलाब भी पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए बौट्नी में मास्टर डिग्री हासिल कर अब पी.एच.डी. करने की तैयारी कर रहा था। तभी डॉक्टर खुसबू ने बौट्नी विभाग का अपना पदभार संभल लिया था, और गुलाब उसी के अधीनस्थ एक शोधकर्ता की हैसियत से अपने शोध कार्यो में जुट गया था। अपने समय के एक बहुत ही अनुभवी शिक्षाविद, प्रोफेसर काला को तब इस बात का शायद कहीं दूर-दूर तक कोई अहसास भी नहीं रहा होगा कि जिस खुशी के साथ उन्होंने अपने बेटे को डॉक्टर खुशबू के अधीनस्थ शोधकार्य करने के लिए अपनी स्वीकृति दी है, वही इतनी सी छोटी बात एक दिन उनकी सारी खुशिया ही छीन ले जायेगी। शोधकार्य में जुटे गुलाब को अब दो साल से अधिक समय हो गया था, और वह अपने तीन शोध पत्र भी प्रस्तुत एवं प्रकाशित कर चुका था। इस बीच उसकी डॉक्टर खुसबू से नजदीकियां इतनी बढ़ गई कि अब हर रोज डॉक्टर खुसबू , सुबह ही विभाग की जीफ लेकर उसे लेने उसके घर तक पहुँच जाती थी। रिसर्च के लिये दूसरे विश्वविध्यालयो से सामग्री जुटाने के बहाने हफ़्तो डाक्टर खुसबू के संग मौज-मस्ती के लिये, घर शहर से दूर रहता, और उस दिन तो प्रोफेसर काला पर मानो बज्र का पहाड़ ही टूट पड़ा था, जब उनके बेटे गुलाब ने डॉक्टर खुसबू से अपनी सगाई की बात उनके समक्ष रखी ।

प्रोफेसर काला, डाक्टर खुसबू के अतीत से पूरी तरह वाकिफ थे, अतः उन्होंने गुलाब को अपनी ओर से हर तरह से समझाने की पुरजोर कोशिश की, मगर गुलाब था कि डॉक्टर खुसबू के जादुई आकर्षण और उसके झांसे में बुरी तरह फँस चुका था, अतः उसने साफ़-साफ कह दिया था कि अगर आप लोग राजी नहीं भी हुए, तो भी मैं आपकी मर्जी के खिलाफ खुसबू से शादी करूँगा। माँ ने भी यह कहकर उसे जब समझाने की कोशिश की कि कहाँ तू अभी मात्र चौबीस-पच्चीस साल का युवा है, और कहां वह तेरे से आठ-नौ साल बड़ी औरत है, तो उसने उन्हें यह कहकर डपट सा दिया था कि अरे माँ, मैं तो आप लोगो को एक बहुत ही शिक्षित किस्म का इंसान समझता था, लेकिन आप लोग भी अनपढ़-गवार लोगो की तरह पुराने ख्यालातों के लोग हो । आजकल के जमाने में पत्नी का पति से उम्र में बड़ा होना कोई ख़ास मायने नहीं रखता ।

गुलाब को बहुत समझाने के बाद भी जब कोई बात नही बनती दिखी, तो आखिरी हथियार के तौर पर प्रोफ़ेसर काला ने खुद ही डाक्टर खुसबू से स्वयं जाकर मिलने और उसे समझाने की सोची, और एक दिन वे उसके विभाग मे पहुंच भी गये। उन्होने उसे उसकी अतीत की जिन्दगी याद दिलाई और समझाया कि वह क्यों उनके इकलौते बेटे की जिन्दगी खराब करने पर तुली हुई है? लेकिन डाक्टर खुसबू के पास तो मानो इन सब सवालों के जबाब पहले से ही मौजूद थे, अत: उसने आखिरी मे प्रो. काला को यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि उससे शादी करने का इकतरफ़ा फैसला उनके बेटे का है, उसका नही, अत: वे उससे यह सब कहने की बजाये अपने बेटे को ही क्यों नही समझा लेते ।



और फिर एक दिन सबकी नाखुशी के बीच ही एक सादे समारोह मे गुलाब और खुसबू औपचारिक ढंग से परिणय-सुत्र मे बंध गये थे । माता-पिता और नाते-रेश्तेदारो की नाराजगी के चलते खुसबू के कहने पर प्यार मे अन्धा हो चुका गुलाब, अपने माता-पिता का घर छोड अलग अपनी ही दुनिया मे चला गया था । और अब तीन साल के बाद वह पुन: अपने घर लौट रहा था, यूं तो वह लौट अपनी ही मर्जी से रहा था किन्तु हालात और कुदरत के हाथो मजबूर होकर । लाईलाज बीमारी के चलते वह अन्दर से, दीमक लगे उस दरख्त की भांति खोखला हो चुका था, जो न जाने कब एक हल्के हवा के झोंके से भी धराशाही होकर जमीन पर गिर पडे । डाक्टरों ने भी उसके आगे और जीने का अनुमानित समय भी उसे बता दिया था और इसी के चलते उसने मात-पिता की शरण मे लौट जाने का निश्चय किया था । वह खुसबू की मानसिकता से भली भांति वाकिफ था, और उसके वे शब्द उसे भली-भांति याद थे, जिसमे वह कहती थी कि दुनिया को देख्नने-समझने का उसका नजरिया भिन्न है और वह अपने जीवन के एक-एक लहमे को अपनी सुविधा और मर्जी के हिसाब से जीना जानती है । जब परीक्षण के दौरान इस बात के पक्के सबूत मिले थे कि गुलाब ऐड्स से जूझ रहा है, तो यह जानकर भी उसके चेहरे पर तनिक भी सिकन नहीं आई थी, मानो इस बात का उसे पहले से ही पता था । और जिस दिन डॉक्टर ने गुलाब को उसकी बची हुई जिन्दगी की गढ़ना करके बताई थी, उसी के अगले दिन डॉक्टर खुसबू ने विश्वविद्यालय से इस्तीफा देकर, सुदूर रूहेलखंड के विद्यालय में नौकरी के लिए आवेदन कर दिया था ।

दिन ढलने को था, सूरज देव सुदूर पश्चिम की पहाडियों के पीछे धीरे-धीरे डग बढाते चले जा रहे थे, मानो उन्हें भी इस जग की रीत का भली भांति ख्याल था, कि यहाँ हर एक सुबह की शाम होना भी निश्चित है । दोनों बूढी आत्माए बरामदे के बाहर आगन में पलास्टिक की कुर्सिया डाल, उनमे खामोश समाई बैठी थी, और तभी घरघराती हुई महेन्द्रा की जीफ आकर घर के आगे सड़क में रुकी थी। उससे उतरकर दो बैग उठाये, गुलाब धीरे-धीरे अपने घर के गेट की तरफ बढा था। माता-पिता के समीप जाकर उसने बैग जमीन पर रख दिए और बिना कुछ कहे गर्दन झुका खड़े-खड़े जमीन पर पैर के अंगूठे से मिट्टी में कुछ आकृतिया सी बनाने लगा था। एक लम्बे विराम के बाद प्रोफ़ेसर काला ने पूछा था, खुसबू नहीं आई? उसने बिना उनकी तरफ देखे नजरे झुकाए ही उत्तर दिया था, नहीं पापा, वह भी आज ही रूहेलखंड चली गई है।रूहेलखंड क्यों ? प्रोफेसर काला ने पूछा। यहाँ से जॉब छोड़कर उसने वहाँ ज्वाइन करने का फैसला कर लिया है, गुलाब ने जबाब दिया। पिता ने चेहरे पर एक असीम पीडा के भाव लाते हुए बेटे की तरफ देखा और लम्बी साँस छोड़ते हुए बस इतना ही बड़बडाये कि फिर निकल पडी, एक और शोधकर्ता की तलाश में !

Monday, June 1, 2009

लघु कथा- आस और पडोस

नगर निगम द्वारा कुछ साल पहले ही नई विकसित की गई कालोनी अब तो लगभग भर चुकी है, लेकिन शुरु के दिनो मे काफी बिखरी-बिखरी सी थी । नेगी जी ने भी किराये के मकान की रोज की झझंटो से मुक्ति पाने के लिये हिम्मत कर एक मकान इस कालोनी मे खरीद लिया था । मकान की रजीस्ट्री अपने नाम करवा लेने के उपरान्त, एक शुभ मुहुर्त पर वे किराये के मकान से अपने इस नये घर मे शिफ़्ट हो गये।

जिस मुहल्ले मे उन्होने घर खरीदा था, उसमे उस दौरान मात्र छह-सात परिवार ही वहां पर रह रहे थे । ज्यादातर लोग नौकरी पेशा वाले ही थे, लेकिन कुछ खुद का व्यवसाय करने वाले लोग भी थे। कुछ परिवार पंजाबी, कुछ पहाडो के तथा कुछ देश के अन्य भागो से आकर बसे थे, नेगी जी के ठीक पडोस मे सरदार जसवन्त सिंह सपरिवार रहते है। उनका खुद का ट्रांसपोर्ट का धन्धा है और घर बैठकर ही वह यह धन्धा चलाते है । कुछ सालो तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन ज्यों-ज्यो बस्ती भरने लगी, समस्याओं के साथ-साथ लोगो के बीच आपसी तकरारें भी बढने लगी । उस समय अधिकांश लोगो के पास दुपहिया वाहन ही थे और कुछ के पास तो साइकिल भी नही थी, पूरे मोहल्ले मे मुश्किल से एक या दो लोगो के पास ही अपनी कारें थी । क्योंकि सरदार जी का टैक्सी ट्रासपोर्ट का धन्धा था इसलिये पूरी गली मे और खाली पडे प्लोटो मे उन्की ही गाडियां खडी रहती थी । गली मे छोटे प्लोट होने, अथवा यूं कहें कि नगर निगम द्वारा शुरु मे कम आय वर्ग के लोगो के लिये बनाई गई इस कालोनी मे मकानो के बीच की गलियों की चौडाई जहां सिर्फ़ बीस फुट थी, वहीं आमने-सामने लोगो द्वारा अपने घर के मुख्य गेटों के आगे गली मे लम्बे-लम्बे रैम्प निकाल दिये गये थे, और तो और कुछ ने तो बगीचे भी सडक मे बना डाले थे, अत: गली इतनी सिमट गयी थी कि उसमे अगर आमने-सामने दो कारें खडी हो जायें तो बीच से एक बाइक निकलनी भी मुश्किल हो जाती थी।

यहां एक बात और गौर फरमाने लायक है कि जहां सरदार जी, उनके ठीक सामने वाले और थोडी दूरी पर रहने वाला एक और पंजाबी परिवार, मुहल्ले मे जहां इन तीन पंजाबी परिवारो के बीच काफ़ी मित्रता और सहयोग था, वहीं गली मे बसे तीन-चार पहाडी मूल के परिवारों के बीच अक्सर आपसी कटुता ही रहती थी। वे लोग एक दूसरे को देखकर ही कूढ्ते रहते थे, और गढ्वाली-कुमाऊनी के अन्तर मे ही उल्झे रहते थे। एक ओर जहां पंजाबी लोग काफ़ी लम्बी-चौडी प्रस्नैलिटी के लोग थे, वहीं पहाडी लोग अमुमन औसत कद-काठी के थे, अत: अपनी बाचाल वाक क्षमता और इसी शारीरिक गुण के कारण वे अन्य लोगो पर हर वक्त हावी रहते। मुख्य सडक से गली मे घुसने के दो द्वार थे और जब कभी सरदार जी गाडी लेकर गली मे घुसते और अगर उन्हे किसी का दुपहिया भी सडक मे गलत ढंग से पार्क किया मिल जाये तो सरदार जी उसकी अच्छी खासी क्लास ले लेते थे, जबकि इसके ठीक उलट उनके अपने घर के आगे उनका एक लम्बा रैम्प था, फिर उस रैम्प के आगे वे एक कार खडी करते और चुंकि उनके सामने वाले घर मे जो पंजाबी परिवार रहता था, उनके पास कोई वाहन नही था, अत: वह इनका दोस्त होने के नाते, सरदार जी एक गाडी उनके रैम्प के ठीक आगे खडी कर देते थे।

एक बार इस बात से तंग आकर जब नेगी जी ने सरदार जी से कहा कि हमें अपनी बाइक गली से बाहर निकालनी मुश्किल पड जाती है, इसलिये आप या तो अपने घर के आगे का रैम्प तुडवाये या फिर इस तरह साथ-साथ दो गाडियां गली मे खडी न करें, तो इतना सुनते ही सरदार जी फैल गये। उन्होने कहा कि मैने गाडियां अपने और अपने दोस्त के घर के आगे पार्क की है, तुम्हारे नही । सरदार जी के वे ऊंचे स्वर-संवाद पूरी गली सुन रही थी, लेकिन कोई भी यह कहने नही आया कि जब तुम, हमें हमारे दुपहिया वाहनों को ठीक से पार्क करने की नसीहत देते फिरते हो तब आपका यह तर्क कहां चला जाता है ?


ज्यों-ज्यों दिन गुजरे, गली मे आवाजाही की समस्या बढ्ती गई । सयोग बस नेगी जी के पुराने दोस्त रावत जी भी उसी मुह्ल्ले मे मकान लेकर आ बसे ! स्वभाव से मिलनसार और तेज-तर्रार रावत जी को जब नेगी जी ने अपनी समस्या बताई तो उन्होने उन्हे उसका समाधान जल्दी ढुढने का भरोसा दिलाया। उन्होने नेगी जी से मिलकर पहले यह पता लगाया कि पूरे मुह्ल्ले मे कितने पहाडी लोग रहते है। कुल मिलाकर तीस परिवार पहाडी लोग के थे, उसके बाद उन्होने पचास रुपये की सदस्यता पर उनकी एक उत्तरांचल विकास समिति बना डाली। धीरे-धीरे सभी तीस परिवार उस समिति से जुड गये और उन सभी परिवारो के आपसी मेल-जोल बढ गया। बस फिर क्या था, पह्ले से पूरा खाका बनाये रावत जी ने अपनी रणनीति उन्हे समझा दी, और अपनी कम्पनी से दो पुराने बडे ट्रक लाकर उस मुह्ल्ले की गली के दोनो मुहानो पर इस तरह खडे कर दिये कि सिर्फ़ पैदल लोग और दुपहिया वाहन ही निकल सके। सौभाग्य बस, गली के मुहाने पर के दोनो तरफ़ के मकान पहाडियों के ही थे ।

बस, फिर क्या था, सरदार जी की गली के अन्दर की गाडियां अन्दर और बाहर की बाहर ही रह गयी थी। सरदार जी यह सब देख तिलमिला उठे और हल्ला करते हुए जब वहां पहुचे तो सभी तीस के तीस पहाडी परिवार भी वहां इकठ्ठा होकर एक टका सा जबाब सरदार जी को दे गये कि उन्होने भी ट्रक अपने घर के आगे खडा कर रखा है, तुम्हारे नही। भन्नाये हुए सरदार जी पास के थाने पहुच गये और पुलिस के दो सिपाहियों को लेकर आ गये, मगर पहले से तैयार सभी तीस परिवारों ने उन्हे घेर लिया, अब बात ऊपर तक पहुच चुकी थी। जब आला अधिकारी पहुचे और दोनो पक्ष की बातें सुनी तो उन्होने सीधे-सीधे सरदार जी को दोषी ठहराया और उन्हे हिदायत दी कि वे रिहायस वाली जगह से अपना धन्धा नही चला सकते, क्योंकि यह गैर-कानूनी है। यह सुनकर सरदार जी की घिग्घी बंध गयी।

अगले दिन शाम को जब नेगी जी दफ़्तर से लौटे तो सरदार जी गेट पर हाथ जोडे खडे थे, ज्यों ही नेगी जी अपनी बाइक से उतरे, सरदार जी ने अदब से उन्हें सतश्रीकाल बोला और कहना शुरु किया ; नेगी जी, तुस्सी हम पर इक मेहरबानी करदो जी, रात को बाहर सड़क पर गाडी छोड़ने से चोरी का डर है जी, अतः आप हमें सिर्फ इतनी अनुमति दे दो की हम रात १० बजे बाद गाडियों को गली में खड़ी कर सके और जी हम सबेरे पांच बजे से पहले-पहले सारी गड्डी बाहर निकाल देंगे जी पांच बजे बाद आप लोगो को गली एकदम किलियर मिलेगी जी।

नोट: कहानी किसी के प्रति दुराग्रह से प्रेरित नही है, बल्कि यह दर्शाने के लिये है कि एकता मे कितनी शक्ति होती है ।

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।