उनके इकलौते बेटे गुलाब के उनसे अलग होकर डॉ खुसबू के साथ चले जाने के तीन साल बाद, उन दो ढलती शामों के लिए घनघोर काली रात के आगमन की प्रतीक्षा से पहले आज की सुबह एक खुशनुमा सुबह की तरह थी । लॉन की हरी घास पर शांत और शिथिल कदमो से चहलकदमी करते हुए दोनों चारदीवारी के आखिरी छोर पर जाकर बैठ गए थे, बिना किसी संवाद और विचारों के, मानो कि जिन्दगी में अब उनके लिए बदलाव के कोई ख़ास मायने न रह गए हो। वह भी वक्त था, जब कभी अपने जमाने की ये दो शख्सियत, फुर्सत के पलों में इस तरह जब भी साथ होते थे, तो घंटो बस एक दूसरे के उन हंसमुख और जीवंत चेहरों को ही पढ़ते रहते थे, मगर आज उनके लिए वक्त काफी बदल चूका था, चिपककर साथ-साथ बैठे होने के वावजूद भी नजरे तक मिलाने की चाह भी दिल में नहीं रही थी। हर इंसान के लिए किसी बात का अर्थ और वास्तविकता यकायक कितना बदल जाते है, जीवन जीने के मायने कितने अलग हो जाते है, आज भला उनसे ज्यादा और कौन जान सकता था।
कुछ दिन पहले गुलाब का फोन आया था, एक व्यथित उदास लहजे में उसने अपनी माँ से अगले शनिवार को वापस उनके पास लौट आने की बात कही थी । बस, इसीलिए आज उन दो झुरियों से भरे मुरझाये चेहरों पर कहीं कोई हल्की सी भोर की बयार कुछ छटा बिखेरती नजर आ रही थी। कभी सामने की दूर तक स्लोप में फैली पहाडियों के ऊपर विखरी कुहरे की एक सफ़ेद चादर और उनपर पड़ती भोर की पहली किरणों की एक पीली छटा को शून्य में निहारते हुए और फिर कभी नीचे तलहटी में कल-कल ध्वनि से बहती नदी को टकटकी लगाकर देखते हुए प्रोफेसर काला उस एकदम खामोश वातावरण की शांति को जब-तब अपने गले से निकलने वाली खांसी की कर्कस ध्वनी से बाधित कर देते थे। फिर खांसते-खांसते ही, नजरो को सामने पहाडी पर टिकाये रखते हुए एक भर्राई सी आवाज में उन्होंने मिसेज काला को संबोधित कर पूछा था; गुल्लू ने आज आने को कहा था? ( वे लोग बचपन से गुलाब को प्यार से गुल्लू कहकर पुकारते थे ) हँ, जबाब में बिना शरीर को हिलाए डुलाये निर्जीव आधे से ही 'हाँ' शब्द में मिसेज काला ने जबाब दिया था, और उसके बाद पुनः एक गहरी खामोशी वातावरण में छा गई ।
डाक्टर खुसबू से शादी के एक साल बाद तक तो मिसेज काला, प्रोफेसर काला और उन्हें मिलने आने वाले नाते-रिश्तेदारो के साथ रोजाना गुलाब और खुसबू को उनसे सम्बन्धित हर बात पर कोसती रहती थी और तब प्रोफेसर काला उसे यह कहते हुए शांत करवाते रहते थे कि इसमें उन लोगो का कोई दोष नहीं, शायद हम ही से कहीं गुल्लू की परवरिश में कोई कमी रह गयी । लेकिन न चाहते हुए भी, जबसे प्रोफेसर काला ने डाक्टर खुसबू की पुरानी जिन्दगी की सारी हकीकत मिसेज काला को सुनाई थी, वह जड़वत हो गई थी । पहले तो वह इस तरह की आस लिए फिरती थी कि उनके लिये न सही मगर गुलाब और खुसबू के लिये कभी तो जिन्दगी बद्लेगी, कभी न कभी गुलाब को अपनी गलती का अहसास तो जरूर होगा और वह डाक्टर खुसबू के साथ वापस लौटकर उनके पास माफी मागने आयेगा, लेकिन डाक्टर खुसबू की इस सच्चाई से वाकिफ होने के बाद उसका वह भरम टूट्कर एकदम चकनाचूर हो गया था । अब अगर उसे गलती का अहसास हुआ भी, और वे लोग वापस आ भी गए तो भी उसके लिए क्या खुशी ? उनकी झोली में तो अब सब गम ही गम भरे पडे थे।
पुराने दिनों में प्रोफेसर काला जब उत्तराँचल के विश्वविद्यालय में कार्यरत थे, तभी एक तेज-तर्रार और पढाई में बहुत ही कुशल लडकी, खुसबू बडोला ने यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया था और विश्वविद्यालय के हॉस्टल में रहने लगी थी। यूनिवर्सिटी में जहां एक ओर कुछ लोग उसकी कौशलता और निपुणता की तारीफे करते नहीं थकते थे, वही कई बार हास्टल वार्डेन, प्रोफेसर से उसकी तरह-तरह की शिकायत भी कर चुकी थी। चार साल में ही खुसबू का पूरे कैम्पस में एक अलग रुतवा था, और तब एक दिन यह रुतवा अपने परवान चढ़ गया, जब यह खबर आई कि खुसबू बडोला को कनाडा के क्युवेक प्रान्त में स्थित कैलिगरी यूनिवर्सिटी से बौट्नी में रिसर्च फैलोशिप मिल गई है, और वह कनाडा जा रही है। पूरी यूनिवर्सिटी में खुसबू का कद एकदम बढ़ सा गया था, और वहां के लेक्चरर और प्रोफेसर सभी लोग , उसे बड़े इज्जत की नजरो से देखने लगे थे ।
एक बार जब खुसबू कनाडा पहुची तो सात साल तक नहीं लौटी। वहाँ जाकर अपनी वाक- पटुता और बला की खूबसूरती के बल पर खुसबू बडोला से वह डॉक्टर खुसबू मौलिनी बन गई थी, उसने अपने ही विभाग के फ्रेंच मूल के अपने से करीब बीस साल बड़े, प्रोफ़ेसर पीटर मौलिनी से वहीं पर शादी रचा ली थी। लेकिन उनका यह साथ बहुत दिनों तक नहीं चल सका, शादी के डेड-साल बाद ही प्रोफेसर मौलिनी की ऐड्स से पीढित होकर मृत्यु हो गई । सुनने में तो यह भी आया था कि उसके बाद डाक्टर खुसबू ने वही टोरंटो में अपने ही विभाग के एक और शोध-कर्ता से भी शादी की थी, मगर वह भी साल भर के अन्दर-अन्दर चल बसा था। सात साल बाद जब डॉक्टर खुसबू हिंदुस्तान लौटी तो पुनः उसी विश्वविद्यालय में बौट्नी की लेक्चरर बन गई थी।
प्रोफेसर काला अब रिटायर हो चुके थे, और उनका बेटा गुलाब भी पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए बौट्नी में मास्टर डिग्री हासिल कर अब पी.एच.डी. करने की तैयारी कर रहा था। तभी डॉक्टर खुसबू ने बौट्नी विभाग का अपना पदभार संभल लिया था, और गुलाब उसी के अधीनस्थ एक शोधकर्ता की हैसियत से अपने शोध कार्यो में जुट गया था। अपने समय के एक बहुत ही अनुभवी शिक्षाविद, प्रोफेसर काला को तब इस बात का शायद कहीं दूर-दूर तक कोई अहसास भी नहीं रहा होगा कि जिस खुशी के साथ उन्होंने अपने बेटे को डॉक्टर खुशबू के अधीनस्थ शोधकार्य करने के लिए अपनी स्वीकृति दी है, वही इतनी सी छोटी बात एक दिन उनकी सारी खुशिया ही छीन ले जायेगी। शोधकार्य में जुटे गुलाब को अब दो साल से अधिक समय हो गया था, और वह अपने तीन शोध पत्र भी प्रस्तुत एवं प्रकाशित कर चुका था। इस बीच उसकी डॉक्टर खुसबू से नजदीकियां इतनी बढ़ गई कि अब हर रोज डॉक्टर खुसबू , सुबह ही विभाग की जीफ लेकर उसे लेने उसके घर तक पहुँच जाती थी। रिसर्च के लिये दूसरे विश्वविध्यालयो से सामग्री जुटाने के बहाने हफ़्तो डाक्टर खुसबू के संग मौज-मस्ती के लिये, घर शहर से दूर रहता, और उस दिन तो प्रोफेसर काला पर मानो बज्र का पहाड़ ही टूट पड़ा था, जब उनके बेटे गुलाब ने डॉक्टर खुसबू से अपनी सगाई की बात उनके समक्ष रखी ।
प्रोफेसर काला, डाक्टर खुसबू के अतीत से पूरी तरह वाकिफ थे, अतः उन्होंने गुलाब को अपनी ओर से हर तरह से समझाने की पुरजोर कोशिश की, मगर गुलाब था कि डॉक्टर खुसबू के जादुई आकर्षण और उसके झांसे में बुरी तरह फँस चुका था, अतः उसने साफ़-साफ कह दिया था कि अगर आप लोग राजी नहीं भी हुए, तो भी मैं आपकी मर्जी के खिलाफ खुसबू से शादी करूँगा। माँ ने भी यह कहकर उसे जब समझाने की कोशिश की कि कहाँ तू अभी मात्र चौबीस-पच्चीस साल का युवा है, और कहां वह तेरे से आठ-नौ साल बड़ी औरत है, तो उसने उन्हें यह कहकर डपट सा दिया था कि अरे माँ, मैं तो आप लोगो को एक बहुत ही शिक्षित किस्म का इंसान समझता था, लेकिन आप लोग भी अनपढ़-गवार लोगो की तरह पुराने ख्यालातों के लोग हो । आजकल के जमाने में पत्नी का पति से उम्र में बड़ा होना कोई ख़ास मायने नहीं रखता ।
गुलाब को बहुत समझाने के बाद भी जब कोई बात नही बनती दिखी, तो आखिरी हथियार के तौर पर प्रोफ़ेसर काला ने खुद ही डाक्टर खुसबू से स्वयं जाकर मिलने और उसे समझाने की सोची, और एक दिन वे उसके विभाग मे पहुंच भी गये। उन्होने उसे उसकी अतीत की जिन्दगी याद दिलाई और समझाया कि वह क्यों उनके इकलौते बेटे की जिन्दगी खराब करने पर तुली हुई है? लेकिन डाक्टर खुसबू के पास तो मानो इन सब सवालों के जबाब पहले से ही मौजूद थे, अत: उसने आखिरी मे प्रो. काला को यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि उससे शादी करने का इकतरफ़ा फैसला उनके बेटे का है, उसका नही, अत: वे उससे यह सब कहने की बजाये अपने बेटे को ही क्यों नही समझा लेते ।
और फिर एक दिन सबकी नाखुशी के बीच ही एक सादे समारोह मे गुलाब और खुसबू औपचारिक ढंग से परिणय-सुत्र मे बंध गये थे । माता-पिता और नाते-रेश्तेदारो की नाराजगी के चलते खुसबू के कहने पर प्यार मे अन्धा हो चुका गुलाब, अपने माता-पिता का घर छोड अलग अपनी ही दुनिया मे चला गया था । और अब तीन साल के बाद वह पुन: अपने घर लौट रहा था, यूं तो वह लौट अपनी ही मर्जी से रहा था किन्तु हालात और कुदरत के हाथो मजबूर होकर । लाईलाज बीमारी के चलते वह अन्दर से, दीमक लगे उस दरख्त की भांति खोखला हो चुका था, जो न जाने कब एक हल्के हवा के झोंके से भी धराशाही होकर जमीन पर गिर पडे । डाक्टरों ने भी उसके आगे और जीने का अनुमानित समय भी उसे बता दिया था और इसी के चलते उसने मात-पिता की शरण मे लौट जाने का निश्चय किया था । वह खुसबू की मानसिकता से भली भांति वाकिफ था, और उसके वे शब्द उसे भली-भांति याद थे, जिसमे वह कहती थी कि दुनिया को देख्नने-समझने का उसका नजरिया भिन्न है और वह अपने जीवन के एक-एक लहमे को अपनी सुविधा और मर्जी के हिसाब से जीना जानती है । जब परीक्षण के दौरान इस बात के पक्के सबूत मिले थे कि गुलाब ऐड्स से जूझ रहा है, तो यह जानकर भी उसके चेहरे पर तनिक भी सिकन नहीं आई थी, मानो इस बात का उसे पहले से ही पता था । और जिस दिन डॉक्टर ने गुलाब को उसकी बची हुई जिन्दगी की गढ़ना करके बताई थी, उसी के अगले दिन डॉक्टर खुसबू ने विश्वविद्यालय से इस्तीफा देकर, सुदूर रूहेलखंड के विद्यालय में नौकरी के लिए आवेदन कर दिया था ।
दिन ढलने को था, सूरज देव सुदूर पश्चिम की पहाडियों के पीछे धीरे-धीरे डग बढाते चले जा रहे थे, मानो उन्हें भी इस जग की रीत का भली भांति ख्याल था, कि यहाँ हर एक सुबह की शाम होना भी निश्चित है । दोनों बूढी आत्माए बरामदे के बाहर आगन में पलास्टिक की कुर्सिया डाल, उनमे खामोश समाई बैठी थी, और तभी घरघराती हुई महेन्द्रा की जीफ आकर घर के आगे सड़क में रुकी थी। उससे उतरकर दो बैग उठाये, गुलाब धीरे-धीरे अपने घर के गेट की तरफ बढा था। माता-पिता के समीप जाकर उसने बैग जमीन पर रख दिए और बिना कुछ कहे गर्दन झुका खड़े-खड़े जमीन पर पैर के अंगूठे से मिट्टी में कुछ आकृतिया सी बनाने लगा था। एक लम्बे विराम के बाद प्रोफ़ेसर काला ने पूछा था, खुसबू नहीं आई? उसने बिना उनकी तरफ देखे नजरे झुकाए ही उत्तर दिया था, नहीं पापा, वह भी आज ही रूहेलखंड चली गई है।रूहेलखंड क्यों ? प्रोफेसर काला ने पूछा। यहाँ से जॉब छोड़कर उसने वहाँ ज्वाइन करने का फैसला कर लिया है, गुलाब ने जबाब दिया। पिता ने चेहरे पर एक असीम पीडा के भाव लाते हुए बेटे की तरफ देखा और लम्बी साँस छोड़ते हुए बस इतना ही बड़बडाये कि फिर निकल पडी, एक और शोधकर्ता की तलाश में !
...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
प्रश्न -चिन्ह ?
पता नहीं , कब-कहां गुम हो गया जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए और ना ही बेवफ़ा।
-
स्कूटर और उनकी पत्नी स्कूटी शहर के उत्तरी हिस्से में सरकारी आवास संस्था द्वारा निम्न आय वर्ग के लोगो के लिए ख़ासतौर पर निर्म...
-
पहाड़ों की खुशनुमा, घुमावदार सडक किनारे, ख्वाब,ख्वाहिश व लग्न का मसाला मिलाकर, 'तमन्ना' राजमिस्त्री व 'मुस्कान' मजदूरों...
-
शहर में किराए का घर खोजता दर-ब-दर इंसान हैं और उधर, बीच 'अंचल' की खुबसूरतियों में कतार से, हवेलियां वीरान हैं। 'बेचारे' क...
बहुत कुछ कह देती है आपकी यह कहानी। साधुवाद।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
good very good story, inspired us to think before you do any thing. Thanks gurugodiyalji.
ReplyDeleteप्रोत्साहन के लिए शुक्रिया भाईसाब !
ReplyDelete