...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
Tuesday, April 16, 2013
Monday, April 15, 2013
बेकाबू अफ़साने !
तट की महीन रेत और
लहरों के शीतल संस्पर्श पर
लगने वाली वो
सप्ताहिक प्रणय -हाट !
सप्ताहिक प्रणय -हाट !
उस छोटे से
मोहब्बत के बिसातखाने पर
तुम्हारी परवशता,
और बिना मोले-तोले ही
आलिंगन का वो गर्मजोशी भरा
भाव तुम पर उडेला जाना !
भाव तुम पर उडेला जाना !
गुजरी सदी के उन
अफसानो से कह दो कि
वक्त-वेवक्त आकर,
अफसानो से कह दो कि
वक्त-वेवक्त आकर,
अब और न
मेरे दिल के किवाडों पे
दबिश दिया करें।
छवि गूगल से साभार !
Sunday, April 14, 2013
लघु कथा:-'पराधीन सपनेहु सुख नाही।'
स्कूटर और उनकी पत्नी स्कूटी शहर के उत्तरी हिस्से में सरकारी आवास संस्था द्वारा निम्न आय वर्ग के लोगो के लिए ख़ासतौर पर निर्मित और बसाई गई एक कालोनी में पिछले एक दशक से रहते थे। उनकी कालोनी के ज्यादातर निवासी दिनभर दौड़-भागकर इधर से उधर बोझा ढ़ोने का काम करके अपनी रोजी चलाते थे। स्कूटर दम्पति समेत कालोनी के तमाम वाशिंदे यूं तो बहुत सुखी नहीं थे, किन्तु फिर भी दो जून को भरपेट मिल जाता था , बस यूं समझिये कि उसी में सुखी रहने की भरपूर कोशिश करते रहते थे।
लेकिन पिछले एक साल से , जबसे उनके पड़ोस में उनके एक नए पड़ोसी, बाइक मियाँ और उनकी पत्नी लूना आकर रहने लगे थे, स्कूटर जी थोड़ा परेशान चल रहे थे। और उनकी परेशानी का सबब बने थे, खुद उनके ये नए छरहरे बदन, सुडौल कद-काठी एवं खुशमिजाज, दिल-फेंक बाइक मियाँ। जीवन की अधेड़ दहलीज पर पहुँच चुके तोंदू स्कूटर मियाँ को न जाने क्यों ऐसा लगता था कि उम्र में उनसे काफी छोटी और कमसिन उनकी बीवी स्कूटी को उनका यह नया आशिक मिजाज पड़ोसी, बाइक मिंया गली में और सड़क पर आते-जाते लाइन मारता रहता है। एक बार सोचा कि इनकी बीवी से जाकर शिकायत करूँ किन्तु फिर यह सोचकर रुक गए कि उन्हें लगता था कि चूंकि लूना गरीब मोपेड खानदान से बिलोंग करती थी इसलिए शायद बाइक से दबी रहती थी, उसकी बाइक पर खास नहीं चलती होगी।
स्कूटर जी इन बाइक मिंया की वजह से अक्सर टेंशन में ही रहने लगे थे। चैत मास के अंतिम पखवाड़े की एक भरी दोपहर, अपने घर के बाहर गली में पहले से खडी श्रीमती स्कूटी के बगल में कहीं से आकार स्कूटर जी भी खड़े हो गए थे और इससे पहले कि वे अपनी श्रीमती से कुछ कहते, श्रीमती जी ने ही व्यंग्य-बाण छोड़ते हुए पूछा " मेरे तोंदू जानेमन, कहाँ से आ रहे हो हांपते हुए ?" स्कूटर जी भी उसी व्यंगात्मक अंदाज में बोले,"हां, जानेबहार, अब उम्र हो गई है हमारे हांफने की, क्या करें, सब वक्त का तकाजा है। हाँ, तुम तो अभी जवान हो, खूब दौड़ो, फुदको , ये वक्त तुम्हारा है।" श्रीमती स्कूटी तुरंत भांप गई कि उनके शायर पतिदेव महाराज सेंटिमेंटल हुए जा रहे है, अत: उसने झट से बात को घुमाते हुए स्कूटर जी से एक शेर सुनाने की फरमाइश कर डाली। स्कूटर महाराज भला कहाँ बीवी की फरमाइश को अनसुना करते, अत: उन्होंने भी तुरंत एक शेर उसकी खिदमत में हाजिर कर दिया;
महलों के मालिक हो गए हैं लफंगे, चरस,गांजा,जाम बेचकर,
मिलता नहीं भरपेट कुलीन को, मेहनत अपना काम बेचकर।
दर-दर भटक रहा आज, हृदय विदीर्ण आमआदमी इस देश में,
किंतु खूब ऐश कर रहे हैं गांधी, शठ- कुटिल तेरा नाम बेचकर।।
काफी देर तक इरशाद-इरशाद और वाह-वाह कर चुकने के बाद स्कूटी ने शहर में बढ़ती अव्यवस्था और अराजकता का एक नया राग छेड़ दिया। स्कूटर महाराज जी को तो बस कोई टोपिक चहिए होता है अपनी भड़ांस निकालने को, अत: फिर शुरू हो गए; अरे, भाग्यवान, ज्यादा दूर क्यों जाती हो, अपने इस मोहल्ले में ही देख लो न। अगर कहीं से एक चार पहिये वाला अथवा वाली आकर खडी हो जाए, तो दुपहियों का गली में आना-जाना दूभर हो जाता है।......... तो तुम क्या सोचते हो कि सरकार निम्न आय वर्ग वालों की कलोनी में भी तीस फुट चौड़ी गली छोडती? स्कूटी ने टोकते हुए पूछा।....... हाँ, क्यों नहीं, अगर प्लानिंग में समझदार लोग बैठे हों तो वो सौ साल आगे तक की सोचकर प्लान बनाते है, और तुम तो जानती ही हो कि आजकल तो एक झुग्गी वाला भी कार रखता है। ज़रा अंग्रेजों के जमाने में झांककर देखो तो मालूम पडेगा कि वे जो भी प्लान बनाया करते थे , सौ-दो सौ साल आगे की बात सोचकर बनाते थे। और एक ये आज के प्लानर है, साल भर में ही इनकी प्लानिंग की हवा निकल जाती है। अब सारे ही रिजर्व कोटे और डोनेशन देकर बने प्लानर भर्ती करोगे तो यही सब होगा न । अब पिछले साल का ही वाकया देख लो, अपने मोहल्ले के बुजुर्ग एलएम्एल जी की धर्मपत्नी वेस्पा के सिरदर्द हुआ था और वे डोनेशन से बने डाक्टर झोलाछाप के पास गई तो उसने उनके सिर पर ही इंजेक्शन घोप दिया था।
स्कूटर दम्पति के बीच घर के बाहर गली में जिस जगह पर यह गुफ्तगू चल रही थी, वहाँ वे आपस में थोड़ा फासला बनाकर खड़े थे, यानि कि मिंया-बीवी आपस में एक दूसरे से सटकर खड़े नहीं थे, उनके बीच में काफी फासला था। और स्कूटर जी के बोलने का क्रम तब अचानक टूट गया जब कहीं से आकर उनका पड़ोसी बाइक उनके ठीक बीच में खडा हो गया था, मानो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में हो। पहले से ही उनसे जले-भुने बैठे स्कूटर महाराज जी यह देख अपना आपा खो गए और उन्हें अपशब्द कहने लगे।
बाइक मिंया में एक और खासियत उस वक्त नजर आयी जब स्कूटर जी की तरह उन्होंने अपना संतुलन नहीं खोया और अपशब्द सुनने के बाद भी शांत स्वर में मुस्कुराते हुए स्कूटर महाराज जी को समझाने लगे कि देखो स्कूटर मियाँ, आप हमारे से सीनियर हैं, इसलिए हम आपका सम्मान करते है। मुझे लगता है कि आप किसी गलतफहमी का शिकार हो गए है। आप कृपया मेरी दो बातों पर गौर फरमाइयेगा; पहली तो यह कि इस दुनिया में तमाम चीजे सिर्फ अपनी मर्जी के मालिक नही होते। हर कोई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर किसी दूसरे के द्वारा ही गवर्न (संचालित) होते हैं। अब अपने बुजुर्ग मुखिया माननीय मौन सिंह को ही देख लीजिये, कौन सी पावर नहीं है उनके हाथ में आज, किन्तु उनकी बेचारगी देखिये, रिमोट किसी और के हाथ में है। इसलिए आपका यह सोचना कि मैं खुद आकर आप पति-पत्नी के बीच में खडा हो गया, सरासर गलत है। दूसरी बात, आप मुझे एक समझदार गृहस्थ लगते है, इसलिए कह रहा हूँ कि घर के अन्दर आपका दाम्पत्य जीवन कैसा है इससे किसी को कुछ सरोकार नहीं, किन्तु जब घर से बाहर गली अथवा सड़क पर हो तो दूसरों की नजरों में अपने सांसारिक संबंधों में इतना फासला मत रखिये कि पति-पत्नी के बीच किसी तीसरे को खड़े होने की जगह मिल जाए।
अचानक स्कूटर जी के पिछवाड़े पर किसी के पैर के तलवों का एक जोर का झटका सा पड़ा और स्कूटर जी फट-फट की आवाज करते हुए जाग गए। अरे, तो क्या मैं यह एक सपना देख रहा था? आँखे मलते हुए स्कूटर जी सोचने लगे, किन्तु वे सपने में बाइक मिंया के मुह से समझदारी की बातें सुनकर,मन ही मन उनकी वाकपटुता के कायल हो गए थे। पल भर बाद जब स्कूटर महाराज जी अपनी गली से बाहर निकल रहे थे तो बाइक मिंया को उन्होंने उसी स्थान पर खड़े पाया जहां वे अक्सर खड़े हुआ करते है। कभी जो बाइक मियाँ उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते थे, आज स्कूटर जी ने एक मुस्कराहट भरी नजर बाइक मिंया की तरफ बिखेरी थी और जाते-जाते उन्हें टाय (बाय) कहना नहीं भूले। बाइक मियाँ, स्कूटर महाराज के व्यवहार में इस अचानक आए बदलाब से हैरान थे।
Friday, April 12, 2013
ऐसे हमारे हाल कब थे !
अधिक व्यस्तता की वजह से क्षमा सहित ये टुच्ची सी गजल प्रस्तुत है :) :-
श्रीमती तुम्हारे सोचने को, ऐसे हमारे हाल कब थे,
बच्चों तुम्हारे नोचने को, सर पे हमारे बाल कब थे।
भाजी ही में चबाते रोटियां,ऐसी परेशां बात क्या थी,
अरहर सवा सौ हुई तो हुई, मांगते हम दाल कब थे।
अजब है बड़ी कशमकश, खुद ही उलझकर रह गई,
तुझे फंसाने को ऐ जिन्दगी, हमने बुने जाल कब थे।
मुश्किल किसी की आजमाइश, यकीं के लिहाज से,
यूं भी इम्तहां लायक हमारे, चलन एवं चाल कब थे।
मत कर भरोसा जिन्दगी का, बेवफा, खुदगर्ज है ये,
ऐ दिल,उम्र की दहलीज पर, ऐसे बुरे ख़्याल कब थे।
त्यागकर जो गाँव अपना,मुहब्बत न करते शहर से,
जीवन में निवृति के यूं गिनते,साल दर साल कब थे।
देखते क्यों भला हम,अपनी सोच के उसपार जाकर,
बिछ जायेगी शतरंज ऐसी, जी के ये जंजाल कब थे।
इंसानियत हुई मजबूर 'परचेत',हैवानियत के सामने,
मन-चेतना झकझोरते, अस्तित्व के सवाल कब थे।
छवि गूगल से साभार !
श्रीमती तुम्हारे सोचने को, ऐसे हमारे हाल कब थे,
बच्चों तुम्हारे नोचने को, सर पे हमारे बाल कब थे।
भाजी ही में चबाते रोटियां,ऐसी परेशां बात क्या थी,
अरहर सवा सौ हुई तो हुई, मांगते हम दाल कब थे।
अजब है बड़ी कशमकश, खुद ही उलझकर रह गई,
तुझे फंसाने को ऐ जिन्दगी, हमने बुने जाल कब थे।
मुश्किल किसी की आजमाइश, यकीं के लिहाज से,
यूं भी इम्तहां लायक हमारे, चलन एवं चाल कब थे।
मत कर भरोसा जिन्दगी का, बेवफा, खुदगर्ज है ये,
ऐ दिल,उम्र की दहलीज पर, ऐसे बुरे ख़्याल कब थे।
त्यागकर जो गाँव अपना,मुहब्बत न करते शहर से,
जीवन में निवृति के यूं गिनते,साल दर साल कब थे।
देखते क्यों भला हम,अपनी सोच के उसपार जाकर,
बिछ जायेगी शतरंज ऐसी, जी के ये जंजाल कब थे।
इंसानियत हुई मजबूर 'परचेत',हैवानियत के सामने,
मन-चेतना झकझोरते, अस्तित्व के सवाल कब थे।
छवि गूगल से साभार !
Saturday, April 6, 2013
क्या कुछ और गिरने की कोई गुंजाइश बाकी है ?
मुंबई के थाणे की घटना, अपने आस-पास रोज घटित होती घटनाएं, और एक यह घटना जिससे सम्बंधित खबर मैं नीचे चस्पा कर रहा हूँ। मान लीजिये कि पेट के खातिर ही सही, मगर वह अभागा बन्दूक काँधे उठाये सरहद की रखवाली करते अपना सर कलम करवा गया, ताकि सरहद पार से कोई दुश्मन, उसके देश, उसके समाज, उसके कुटुंब और उसके परिवार को कोई नुकशान न पहुंचाए। उसे क्या मालूम था कि कुटिल शत्रुओं की पूरी फ़ौज तो उसके अपने घर के आस-पास ही मौजूद है।
शहीद हेमराज का मासूम और भोला परिवार
"शहीद हेमराज की पत्नी धर्मवती ने पुलिस को बताया कि शुक्रवार सुबह एक फौजी वर्दीधारी युवक उनके गांव आया था। उसने बताया कि उसका नाम अमित है और वह आर्मी हेडक्वॉर्टर से आया है। उसने धर्मवती से कहा कि अभी तक बच्ची के नाम एफडी नहीं बनवाई गई और इससे टैक्स भरना पडे़गा। उसने बैंक में जमा पैसे की एफडी कराने और बाकी पैसों को दूसरे बैंक में जमा कराने की सलाह दी। धर्मवती और परिवार के बाकी लोग अमित के झांसे में आ गए।
धर्मवती ने बताया कि इसके बाद वह अमित, चचिया ससुर गजेंद्र सिंह के साथ छाता स्टेट बैंक पहुंच गईं। वहां बेटी के नाम से एफडी बनवाई गई और दस लाख रुपये दूसरे बैंक में जमा करवाने के लिए निकाल लिए गए। रुपयों से भरा बैग अमित ने अपने पास रख लिया। धर्मवती फौजी की बाइक पर छाता से गांव की ओर चल दी। दूसरी बाइक पर गजेंद्र सिंह व हेमराज के चचेरे भाई भगवान सिंह आ रहे थे। रास्ते में अमित ने पेट्रोल भरवाने के बहाने धर्मवती को बाइक से उतारा और इसके बाद वह रफ्फूचक्कर हो गया।"
एक नजर में तो यह उस शहीद के अपने ही किसी नजदीकी की करतूत लगती है, क्योंकि किसी बाहर के अनजान कमीने को क्या मालूम कि शहीद के मौत का मुआवजा उसके परिवार वालों ने ऍफ़ डी करवाया या नहीं ? और एक अनजान व्यक्ति के साथ शहीद की विधवा को उसकी मोटरसाइकिल में बिठाने का काम तो कोई निहायत बेवकूफ इंसान ही कर सकता है, वह भी इस आज के कमीनो से भरी इस दुनिया में।
खैर ज्यादा न कहकर आपसे भी यही गुजारिश करुगा कि खबर पर मनन करते हुए मेरी ही तरह आप भी शर्मशार होइये।
छवि नभाटा से साभार !
Friday, April 5, 2013
वो आवाज भी बदलेंगे और अंदाज भी !
चोरी का माल खाके, हुए बदमिजाज भी,
वो जो बेईमान भी है और दगाबाज भी।
मिला माल लुच्चे-लफंगों को मुफ्त का,
घर-लॉकर भी भर दिए, मेज दराज भी।
इख्तियार की मद में,वो ग्रीवा की ऐंठन,
रोग-ग्रस्त चले आ रहे, है वो आज भी।
तनिक जो तरफदार उनके सुधर जाएँ,
वो आवाज भी बदलेंगे और अंदाज भी।
उतरेगा सुरूर उनके माथे से 'परचेत'
तबियत शिथिल होगी, नासाज भी।
इख्तियार=सत्ता
Thursday, April 4, 2013
लुत्फ़ उठाओ प्रेम-रस का।
अंत कर दो द्वेष, भेद और नफ़रत के तमस का,
लुत्फ़ थोड़ा सा उठा के, देखिये तो प्रेम-रस का।
हो प्रीत अर्पण में सराबोर, यह सृष्टि कण-कण,
पाले न कोई मन ज़रा,एक कतरा भी हबस का।
पुष्प देखो,बाँटे सुगंध, रहकर चुभन में शूल की,
देता पैगामें-मुहब्बत, आप व्यंजक है हरष का।
है यहाँ हर किसी का, दिल बेसबब उलझा हुआ,
तोड़ खुद ढूढना है, जिन्दगी की कशमकश का।
जब है नहीं कोई अविनाशी यहाँ, फिर डाह कैसी,
पल की खुद को खबर नहीं,सामान सौ बरस का।
करके पथ-प्रशस्त हो गई, चाँद, तारों में पहुँच,
क्या नहीं इस जहां में,आदमी के अपने बस का।
प्रज्ञता नहीं है 'परचेत', दुर्बल समझना शत्रु को,
भेद बेहतर जानता है, रिपु हमारी नस-नस का।
छवि गूगल से साभार !
Wednesday, April 3, 2013
मर्जी धोबन माई की ! (लघु व्यंग्य)
मेरा पुत्तर बहुत होनहार है, और होगा भी क्यों नही, आखिर मेरा पुत्तर जो है। जैसे एक फ़ौजी का बेटा अक्सर फ़ौजी ही बनता है, पुलिस वाले का पुलिस वाला और आजकल तो जो लेटेस्ट ट्रेन्ड चल पडा है कि एक एमपी और एमएलए का बेटा भी एमपी और एमएलए ही बन जाता है। साथ में ऊपर से आश्चर्जनक बातयह भी कि आगे चलकर यदि वह भी मंत्री बन जाए तो बाप ही के नक़्शे कदमो पर चलकर बाप से बड़ा घोटालेबाज भी बन जाता है। तो नेचुरल सी बात है कि एक होनहार बाप का पुत्तर ही तो होनहार होगा, जैसे मेरा है।
अब कल ही की बात है, शाम को दफ्तर से थका-हारा घर पहुंचा ही था कि उसने मुझसे ऐसा धाँसू सवाल पूछा कि थोड़ी देर के लिए तो मैं खुद भी चक्कर खा गया। कहने लगा, अच्छा पापा ये बताओ कि जो इन्सान कैरेक्टर का ढीला होता है, उसके आगे "बे" अक्षर इस्तेमाल किया जाता है। मसलन 'बे'इज्जत, 'बे'कार, 'बे'शर्म, 'बे'गैरत, 'बे'ईमान.......... वह अपनी ब्रेक-फेल जुबान से कुछ और शब्द निकाले इससे पहले ही मैंने कह दिया " एकदम सही कहा बेटे "......... पलभर को मेरी तरफ देख पलकें झपकाकर वह फिर बोलने लगा " तो अच्छा पापा, ये बताओ कि जब यह "बे" अक्षर इतना ही कैरेक्टरलेस है तो फिर बेटा और बेटी में ये 'बे' क्यों इस्तेमाल किया जाता है?
उसका सवाल सुनना था कि बीवी की परोसी गरमा गरम चाय को मैं नींबू-सरबत समझकर गटक गया। खैर, मैं भी कहाँ हार मानने वाला था? ऊपर से उसका बाप जो ठहरा। मैंने कहा, दरहसल बेटा, बात ये है कि जहां तक हिन्दी और देवनागरी का सवाल है, तो 'टा' अथवा 'टी' अपने आप में कोई पूर्ण शब्द नहीं है। थोड़ा रूककर मैं मन ही मन बडबडाया "और संस्कृत मुझे आती नहीं".......इसलिए बेटा, यह कहना अनुचित होगा कि किसी हिन्दी वर्णमाला के शब्द के अर्थ को विकृत करने के मकसद से यहाँ पर 'बे' अक्षर इस्तेमाल किया गया होगा। किन्तु, जहां तक अंगरेजी की बात है तो अंग्रेज लोग खासकर ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन वासी TA ('टा') शब्द इनफॉर्मल तरीके से धन्यवाद कहने के लिए इस्तेमाल किया करते है। और 'टी' (TEE) शब्द खेल में, खासकर गोल्फ और फुटबाल के खेल में उस बिंदु को कहते है जहाँ से पहले-पहल बॉल पर स्टिक (डंडी) अथवा लात से वार किया जाता है।
इसलिए बेटा, अगर अंग्रेजों की भाषा के नजरिये से हम देखे ( फिर मन ही मन बडबडाया- और हम देखते भी उसी नजरिये से ही है क्योंकि लम्बी गुलामी का खून जो दौड़ रहा है हमारी रगों में) तो जब 'टा' का अर्थ होता है कृतज्ञता ( Thankful) , तो जाहिर सी बात है कि माँ-बाप के प्रति जो सबसे बड़ा थैंकलेस इंसान होता है उसे 'बे'टा कहते है। अब रही बात बेटी की, तो उसमे भी ज्यादा सोचने जैसी कोई बात नहीं है, क्योंकि खेल के मैदान में जिस निर्धारित जगह से स्टिक (डंडी) अथवा लात मारने की व्यवस्था होती है उसे 'टी' (TEE) कहा जाता है। लेकिन, शायद पुत्री को 'बे'टी इसलिए कहा गया होगा क्योंकि बाप को यही मालूम नहीं रहता कि घर में मौजूद जवान पुत्री की वजह से कब और किधर से उसके पिछवाड़े डंडा या लात पड़ने वाली है, यानी डंडा अथवा लात पड़ने वाली जगह अनिश्चित है। इसको मैं तुम्हे दुसरे उदाहरण से समझाने की भी कोशिश करता हूँ। तुम जानते ही हो कि आगे जाकर कोई सीधी गली जहाँ बंद होकर दायें और बाएं को घूम जाती है उसे टी- पॉइंट कह्ते………………
अभी मेरे यह ज्ञान बांटने का क्रम चल ही रहा था कि किवाड़ पर ख़ट-खट की आवाज हुई। मैं समझ गया कि बेवक्त आने वाला यह 'अवक्ती' अपने गुप्ता जी ही होंगे, और मेरा सोचा हुआ एकदम सही भी निकला। आसन ग्रहण करते हुए अनुग्रह बिना ही आग्रह की स्वीकारोक्ति देते हुए बोले" भाभीजी से कहिएगा कि चाय में शक्कर ज़रा कम ही डालना। मैंने एक अच्छे संदेशवाहक की भाति उनका सन्देश किचन में मौजूद बीवी तक पहुंचाया और फिर सुनने बैठ गया, गुप्ताजी की 'राजनीति पांच सौ बयालीसा'।
गुप्ता जी ने बोलना शुरू किया; बहुत बुरा हाल है, जनाब तमाम जंगलात का ! क्या कहें, जिधर देखो, बस अराजकता ही अराजकता। बाड़े का एक गदहा तो आज फिर से तमाम जंगलात के गदहों के जले पर नमक छिड़क गया। डुगडुगी बजाकर कह रहा था कि अगर फिर से गदहों की पंचायत में चुनकर आने का सौभाग्य हमारे बाड़े को प्राप्त हुआ तो "अस्तबल" ( जहां के घोड़े-गदहों का बल यानी शारीरिक ताकत अस्त हो चुकी होती है ) का मुखिया तो हम फिर से उसी विरादर को बनायेंगे जिसे जंगलात के तमाम गदहे इतने सालों से झेल रहे है। कमाल के प्राणी है यार ये तो, हद ही कर देते है। कम से कम ऐसे बाण छोड़ने से पहले जंगलात के तमाम गदहों की राय तो लेनी तो बनती ही है, या नहीं? कि विरादारों, पहले तुम बताओ कि इसे फिर से मुखिया बनाने के बारे में तुम्हारे क्या ख़यालात है ? तुम चाहते भी हो या नहीं। जंगलात के सारे गदहे तो पहले से ही कल्पे हुए बैठे हैं। अभी कल ही एक काला गदहा अपनी बादामी कलर की गदही से कुढ़ते हुए कह रहा था कि ये बेइमान, हमारे हिस्से की सारी हरी-हरी घास कुछ खुद खा रहे हैं और कुछ सफ़ेद चमड़ी के गदहों के खाने के लिए जंगलात से बाहर ले जा रहे है, और हमारे लिए कहते है कि सूखा पड़ा है, मैदान बंजर है। इस मुखिया के बच्चे को तो इस बार हम मजा चखाते किन्तु यह खुद तो खडा हो ही नहीं पाता, धोबन माई का सहारा लेकर खडा होता है। यह सुनकर बादामी कलर की गदही ने लम्बी सांस ली और उठकर बोली, क्या कर सकते है, इस धोबन माई की मर्जी के आगे तो पूरी गदहा विरादरी ही लाचार है।
गुप्ता जी की चाय की प्याली खाली हो चुकी थी, लेकिन वे फिर भी चुस्कियाँ लिए ही जा रहे थे। इससे यह स्पष्ट हो रहा था कि उनके मनमस्तिष्क में कितनी हलचल है। खैर, बात को घुमाते हुए वे बोले; छोडो यार, मैं भी क्या ये गदहा राग अलापने बैठ गया। मैं तपाक से जबाब देने ही वाला था कि गदहे अगर गदहा राग नहीं अलापेंगे तो और क्या करेंगे, किन्तु मैंने बीवी जी के बड़े होते नयन देख लिए थे, मानो वह अन्तर्यामी पहले ही भांप गई हो कि इधर से भी ढेंचू-गिटार बजने वाला है। गुप्ता जी ने आसन छोड़ा, खड़े हुए और चलते हुए बोले, अरे यार, मैंने दो लाईने कविता की लिखी थी, लेकिन आगे जोड़ने के लिए मैटिरियल ही नहीं मिल रहा। जब मैंने कहा, सुना डालो गुप्ता जी तो वे बोले;
मेरा मुल्क, पता है तुमको क्यों कहलाता है महान,
क्योंकि इस मुल्क में हैं सौ में से निन्यान्व़े बेईमान।
फिर बोले, यार आगे की लाइन नहीं बन पा रही है। मैंने कहा, अरे गुप्ता जी कुछ भी जोड़ दो, जैसे कि
अपने आज और कल का तो किसी को यहाँ पता नहीं,
और भविष्यबाणी करते है दारू वाले, वो भी 'बे'जान।।
और वाह-वाह-वाह करते गुप्ता जी खिसक लिए !
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