Tuesday, April 16, 2013

कार्टून कुछ बोलता है- पर उपदेश कुशल बहुतेरे !

20 comments:

  1. सब अपने हिसाब से दंगल खोदते हुये

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  2. गजब कटाक्ष, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  3. लेकिन तिलक लगाने और टोपी पहनने में तो बहुत फर्क है... टोपी का सम्बन्ध किसी एक धर्म से नहीं है, बल्कि अक्सर सभी समाज अथवा धर्म के लोग टोपी पहनते हैं...

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    1. शहनवाज जी, सर्वप्रथम टिपण्णी के लिए शुक्रिया। मैं आपकी टिपण्णी पर कोई तर्क नहीं करना चाहूँगा क्योंकि बात निकलेगी तो दूर तक जायेगी। हाँ, इंतना जरूर आपको बतलाना चाहूँगा कि एक तो मुझे बिलकुल ऐसी ही टिपण्णी की उम्मीद थी और दूसरा कार्टून ने जो सवाल उठाया है वह किसी दुसरे मजहब के मौकापरस्त नेता से नहीं अपितु हिन्दू धर्म के ही एक तथाकथित सेक्युलर नेता से किया है। खैर आप दिल पर कतई न लें :) ये सिर्फ इस देश का दुर्भाग्य है बस और कुछ नहीं। सब अपनी सहूलियत के हिसाब से सवाल उठाते है।

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    2. आजादी के इन ६६ सालों में लोग अगर अपने स्वार्थों के चक्कर में टोपी पहनाने की ही फिराक में नहीं रहते तो आज देश की यह दुर्दशा क्यों ?होती?

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (17-04-2013) के "साहित्य दर्पण " (चर्चा मंच-1210) पर भी होगी! आपके अनमोल विचार दीजिये , मंच पर आपकी प्रतीक्षा है .
    सूचनार्थ...सादर!

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  5. जनता को ही बना रहे हैं इतने सालों से. गोदियाल साहब की प्रति टिप्पणी ही सब कुछ बयान कर रही है.

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  6. ये पॉलिटिक्स हमेशा मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती है.

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  7. ये भी कहने की चीज है..जाने क्यों माना जाता है कि बिना टोपी पहने कोई सेक्यूलर नहीं होता.....सेक्यूलर की परिभाषा ही इतनी बिगाड़ दी गई है कि अब तो ये भी एक गाली लगने लगती है...सवाल सीधा है कि अगर धर्म की बात भी कि जाए तो समस्या क्या है...जिस टोपी के न पहनने पर मोदी को कठघरे में खड़ा किया जाता है...उस मसले पर सीधा सवाल ये है कि क्या वो मौलवी साहब गेरुआ वस्त्र धारण करते या टोपी पहनते...नहीं न....धार्मिक टोपी पहना देने से क्या मोदी तथाकथित सेक्यूलर हो जाते....जबकि ये साफ है कि राजनीति करना अब चलाकी करना माना जाता है..देश से राजनेता या तो गायब हो गए हैं .या हाशिए पर हैं....कोई भी राष्ट्रवादी विचारधारा वाला नेता इतना लोकप्रिय नहीं हो पाता...आखिर हम कब तक सीधे बात करने से बचते रहेंगे...सीधी सी बात है कि बात लगातार करते रहिए ताकि समाधान निकले..पर लोग समझते हैं कि बात करने से बात बिगड़ेगी..यानि लोचा दिमाग में है...सोच में है....यानि सावन के अंधे को हरा ही रहा सूझता है..

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    1. Exectly Rohitash ji,
      अगर इतने ही सेक्युलर हैं तो तिलक लगाने और भगवा पहनने से परहेज क्यों ? और यदि नहीं है तो कम से कम सेक्युलरिज्म का राग तो न अलापो। दुसरे को कम्युनल बताते हो जबकि खुद सबसे बड़े कम्युनल हो।

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    2. आपने सटीक टिप्‍पणी की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों के बारे में। बहुत बढ़िया।

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  8. गोदियाल जी गजब का करारा तमाचा मारा है धर्मनिरपेक्षी निरर्थक मानसिकता पर। परन्‍तु एक शिकायत आपसे कि आपने सूरज अस्‍त और पहाड़ मस्‍त को मेरी (अवचेतन मन का प्रवाह) पोस्‍ट से जोड़कर पोस्‍ट के गम्‍भीर और जीवंत विषय को हास्‍य-व्‍यंग्‍य के हवाले करके दुख पहुंचाया है। आपके सूचनार्थ बता दूं कि मैं दारु, बीड़ी, सिगरेट, गुटखा वगैरह कुछ नहीं लेता। (अवचेतन मन का प्रवाह) पर आपकी तीसरी टिप्‍पणी को मैं स्‍पैम से नहीं निकाल पाऊंगा, इस‍के लिए बुरा न मानिएगा।
    बात निकली है तो कहना चाहूंगा कि गढ़वाल को दारु में किसने धकेला है, इन्‍हीं तथाकथित धर्मनिरपेक्षी सत्‍ताधारियों ने तो जिन पर आप कटाक्ष कर रहे हैं। आज से ५०-६० वर्ष पूर्व का जीवन कितना आत्‍म-निर्भर था पहाड़ों पर, इसकी कल्‍पना करने में आप सक्षम हैं। वहां तो गुलामी के बारे में भी लोग नहीं जानते थे। मुगलों द्वारा फैलाया गया तरह-तरह का गंद भी वहां नहीं व्‍याप्‍त था। उस पवित्र धरती को आज यदि चंद दारु पीनेवालों के माध्‍यम से परिभाषित किया जाएगा तो दुख तो होगा ही ना। कम से कम आप से तो ये उम्‍मीद नहीं है मुझे कि आप स्‍वर्ग को नर्क के रुप में परिभाषित करें। बुरा न मानिएगा अपने गढ़वाल से बहुत प्‍यार है मुझे। वहीं जाकर बसना चाहता हूँ पर पिताजी नहीं आना देना चाहते। इस बाबत उनसे कई बार मन-मुटाव भी हो गया है। परन्‍तु तब भी लक्ष्‍य वहीं स्‍थायी रुप से बसने का है। चाहे इसके लिए कितना ही संघर्ष क्‍यों न करना पड़े।
    मैं तो प्रकृति को देख कर नशीला हो जाता हूं। मुझे दारु सहित किसी फर्जी नशीले पदार्थों को लेने की जरुरत कभी नहीं होती। आपसे निवेदन है कि अवचेतन मन का प्रवाह को मेरी दृष्टि से टटोलने की कृपा करेंगे तो निश्‍चय ही आपको सुखद अनुभव होगा और तत्‍पश्‍चात् आपकी टिप्‍पणी भी मेरे लिए प्रेरक होगी।

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    1. हा-हा-हा- विकेश जी, यही तो उगलवाना चाहता था आपके मुख से, :)बातों को इतनी सीरियसली मत लिया करो यार। आपका आलेख निश्चित तौरपर एक उम्दा आलेख है, जिसमे आपने एक कवि ह्रदय की तरह अपने आस-पास के प्राकृतिक सौन्दर्य में गोता लगाने की कोशिश की है। लेकिन भाई साहब, ब्लोगिग क्या है? मन के उदगारों को बाहर निकालने का माध्यम, आप अगर सीरियस वे से निकालते है तो मेरा तो आपको पता लग ही गया होगा कि हास-परिहास और मनोरंजन के लिए ब्लॉग पर आता हूँ। इसलिए बातों को इतनी सीरियसली दिल पर मत लिया करें। उस औखाणे IDIOM को वहाँ कहने का लाईट वे में आशय यह था कि पहाडी लोग तो शाम ढलते ही मस्त हो जाते है और आप शाम को सीरिअस हो रहे है :)

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    2. नहीं गोदियाल जी मैं उस तरह सीरियस नहीं कि आपसे विवाद में उलझ जाऊं। बाकी आपके स्‍नेह और सम्‍मान के लिए धन्‍यवाद।

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  9. हमारे देश के नेता-मंत्रियों को केवल 'खाना' आता है,
    बनाना कुछ नहीं आता.....

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    1. नीतू जी, पब्लिक हैं न, वोट देने वाली पब्लिक , ये उसे बनाते है :)

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  10. सुन्दर प्रस्तुति ||
    आभार -

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।