Sunday, January 26, 2014

एक और गणतंत्रदिवस और आशाओं-निराशाओं की आंखमिचोली !




65 वें गणतन्त्र की  सभी देश वासियों  को हार्दिक शुभकामनाएं ! 

इस नूतनवर्ष  के प्रारम्भिक मास के उत्तरार्द्ध में हर वर्ष  की भांति, आइये इस वर्ष के लिए भी हम सभी मिलकर पुनः एक सुखमय और समृद्ध भारत का सपना सजोए, उसकी कामना करें । आज महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से देश का जन - जन किस कदर त्रस्त  है इसका अहसास सिर्फ  इसी बात से हो जाता है कि जनता को जिधर भी  इससे मुक्ति के लिए एक आशा की किरण नजर आती है वह वहीं उसे लपकने पहुँच जाती है।   वो बात और है कि  उसे हर तरफ निराशा ही हाथ नजर आती है।  

तमाम देश और खासकर दिल्लीवासियों को भी एक ऐसी ही सुनहरी किरण नजर आई थी, किन्तु उसे लपकने के बाद दिल्लीवासियों को भी एक बड़ी निराशा के साथ शेक्सपियर याद आ गया।  उन्हें भी यही सबक मिला कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।  उम्मीदें सभी लगाए बैठे थे किन्तु  पिछले दिनों जो कुछ अपने आस-पास नजर आया उससे यही अहसास हुआ कि अगर चोरों के हाथ में सत्ता आ जाए तो वो  पहला मोर्चा पुलिस के खिलाफ ही खोलते है। और ऐसा इस उद्देश्य से नहीं किया जाता कि पुलिस सुधरे और आम-जन को न सताये, बल्कि इसलिए किया जाता है  कि उसे अपने ढंग से इस्तेमाल कर अपना उल्लू कैसे सीधा किया जाये।  

यह डायलॉग हालांकि काफी पुराना  हो चुका है, लेकिन प्रासांगिकता उसने आज भी नहीं खोई कि कोई इंसान जब किसी और पर ऊँगली करता है तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि तीन उंगलिया उसकी तरफ भी होती हैं।  सब्जबाग़ दिखाना और दूसरों को उपदेश देना शायद इस धरा पर सबसे आसान काम होता है, किन्तु उसे  वास्तविकता की जमीन पर मूर्त रूप देना एक कठिन काम है। हम जब पुलिस को  दोष देते है तो उससे पहले यह भूल जाते हैं कि ये पुलिस वाले  भी हमारे इसी समाज का हिस्सा हैं  और यदि वे अपना फर्ज ठीक से अदा नहीं कर रहे है तो उसके लिए जिम्मेदार कारक कौन-कौन से हैं।  क्या एक ईमानदार पुलिस वाला आज के  दूषित राजनैतिक और लालफीताशाही माहौल मे ईमानदारी से फर्ज अदा करके चैन की जिंदगी जी सकता है? हम यह क्यों भूल जाते है कि उसका भी परिवार है, और नेताजी अथवा  अफसर की किसी महत्वाकांक्षा ने अगर उसे ६ माह के लिए निलम्बित करवा दिया तो इस कमरतोड़ महंगाई मे वह अपने बच्चे के स्कूल की फीस कहाँ से भरेगा ? क्या एक ईमानदार पुलिस वाले को हमारे लोकतंत्र के चारों  स्तम्भ निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीके से काम करने देते हैं ? क्या अपराधियों  में पुलिस का भय एक सुनियोजित तरीके से ख़त्म नहीं कर दिया गया है ? ये कुछ सवाल है जिनका हमें ईमानदारी से सर्वप्रथम जबाब तलाशना होगा और उसके बाद ही हमें अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं  के बारे में सोचना चाहिए। 


आज हमें जरुरत है अपने खून के शुद्धिकरण की।  भ्रष्टाचार अगर शताब्दियों से हमारे खून में न होता तो हम तीन-तीन गुलामियाँ  ही क्यों झेलते ? किस चीज की कमी थी हमारे पास ? दूसरे को अनुशासन में रहने की दलील देते है, लेकिन यह तो देखो कि खुद कितने अनुशासित हो। दूसरों के लिए तो हमने पावंदियों का लम्बा-चौड़ा मकड़जाल बुन लिया किन्तु अपने लिए ?   

जय हिन्द !    


Wednesday, January 22, 2014

सदी का सबसे छोटा ठट्ठा - 'आम-आदमी' !



छवि गूगल से साभार !

अमूमन जब किसी चीज को उपहास, परिहास अथवा मजाक के नजरिये से देखा जाता है तो अक्सर कहा जाता है कि अमूक चीज उस ख़ास वक्त, साल अथवा सदी का सबसे बड़ा जोक  बन गया है।  लेकिन यहाँ बात इसके उलट है और मुझे ऐसा लगता है कि शायद ही इस सदी में कोई इससे भी छोटा जोक बन पाये और वह जोक है 'आम-आदमी'। वर्णमाला के मात्र पांच अक्षरों अथवा सिर्फ दो शब्दों का ठट्ठा (जोक )।

आम के साथ इसे वक्त का क्रूर उपहास कहिये अथवा आम का दुर्भाग्य समझिये कि जिस आम का नाम आते ही मुंह में रस आ जाता था, आज निचले दर्जे के आदमी की महत्वाकांक्षा की वजह से उसी आम का नाम सुनते ही लोगो के मुंह में गाली आ जाती है।  उस वक्त दिमाग में एक ही ख्याल दौड़ता है कि अगर कमवख्त कच्चा मिले तो अचार ड़ाल दें और अगर पका मिले तो चूसकर फेंक दे। आदमी भी बखूबी जानता है कि ये आम महाशय भी कोई हलके में लेने वाली चीज नही है।  बड़े किस्म का आम तो फिर भी थोड़ा परिपक्व और गम्भीर होता है किन्तु ये जो छोटे कद का आम है, ये है बड़ी ही कुxx  चीज।   ठीक से नहीं सम्हाला तो कब कमवख्त फिसलकर रस और गुठली समेत सड़क पर लेट जाये, कोई नही जानता और यदि आदमी ने जल्दी चूसने की हड़बड़ाहट दिखाई तो यह भी सम्भव है कि जनाब अपनी गुठली को चूसने वाले के हलक  में अटकाकर उसका 'राम नाम सत्य' भी करवा दें।  

कुल मिलाकर देखा जाए तो आम से दूरी बनाकर उसे बरतने में ही समझदारी थी, किन्तु क्या करें, बागानी जमीन पर ऐसा हरगिज सम्भव नहीं लगता।  क्योंकि  इसका और आदमी का, खासकर आर्थिक रूप से निचले दर्जे के आदमी का आपस में यूं कहिये कि हमेशा के लिए ही चोली-दमन का साथ है। आम न तो आदमी को छोड़ सकता है  और न ही आदमी आम को।   लेकिन हाल में जो कुछ देश-दुनिया में घटित हुआ और हो रहा है, उसके आधार पर मैं शर्तिया तौर पर कह सकता हूँ कि आदमी भले ही निर्लज्जता की सभी सीमाएं लांघ रहा हो, किन्तु आम  जरूर आदमी से अपनी नजदीकियों पर शर्मिंदगी महसूस कर रहा होगा।  और मुझे तो यह भी आशंका लग रही है कि इसी शर्मिंदिगी की वजह से क्या पता कहीं भविष्य में पेड़ों पर बौंर आने ही बंद हो जाये ।  

आदमी के आम से ख़ास बनने के पिछले ६६ सालों के सफ़र पर अगर नजर दौड़ाएं तो एक बात यहाँ साफ़ होती है कि ख़ास आदमी मौके पर आम आदमी बनने  का नाटक भी बखूबी कर लेता है, किन्तु आम आदमी अभी ख़ास बनने के  ड्रामे  में ख़ास आदमी से बहुत पीछे है।  अपने को आम से ख़ास दिखाने की प्रतिस्पर्धा में यह आंख का अंधा और नाम का प्रपंची अपनी अपरिपक्वता को छिपा नहीं पाता, वजह साफ है कि  उसकी हर बात पर झूठ बोलने की आदत, उसका बड़बोलापन और मोड़ मुड़ने (यूं-टर्न) की उसकी अद्भुत बचकानी क्षमता , उसकी हर क्रिया, चाहे वह निष्कपट हो अथवा छलावपूर्ण,  एक नौटंकी नजर आने लगती है। एक अदनी सी सफलता भी उसके सिर चढ़कर बोलने लगती है। कामयाबी के इस घमंड में वह अपनी सदियों पुराने तमीज और तहजीब भी भूल गया।  अपनी औकात से बाहर जाकर हाथ-पांव मारने को उतावला हो जाता है, नतीजन, चेहरे की शठता छुपाकर उसे जबरन अपनी और आम-आदमी की जीत बताने को सौंदर्य-प्रसाधनो  के उपयोग की नौबत आ जाती है।  उधर दूसरी तरफ ख़ास आदमी  के दोगलेपन और भ्रष्टाचार तथा महंगाई से त्रस्त आ चुके लोग अपने को ठगा सा महसूस करते हुए जीत शब्द की नए सिरे से परिभाषा ढूढ़ने लगते हैं।  

अब ऊपर वाला जाने  कि  आम और खास की यह आँख मिचोली का खेल उसे किस मुकाम पर ले जाकर छोड़ता है।      

Friday, January 17, 2014

'रहें ना रहें हम महका करेंगे' ........... … श्रद्धांजली ।



नैन-पलकों से उतरकर, गालों पे लुडकता नीर रोया,
वो जब जुदा हमसे हुए तो, यह ह्रदय तज धीर रोया।

मालूम होता तो पूछ लेते, यूं रूठकर जाने का सबब,
बेरुखी पर उस बेवफा की,दिल से टपकता पीर रोया।

तिमिर संग घनों की सेज पर,ओढ़ ली चादर चाँद ने,
चित पुलकितमय मनोहारी, मंद बहता समीर रोया।

देखकर खामोश थे सब, कुसुम , तिनके, पात, डाली, 
खग वृक्ष मुंडेर, ढोर चौखट, चिखुर तोरण तीर रोया।

अनुराग बुनते ही हो क्यों, 'परचेत' अपने  इर्द-गिर्द,
विप्रलंभ अन्त्य साँझ पर वो,  देह लिपटा चीर रोया।

   

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।