अभी हाल ही में एक अखबार की आरटीआई के उत्तर में रिजर्वबैंक के जबाब से यह खुलासा हुआ था कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने पिछले ३ सालों में १.१४ लाख करोड़ की डुबन्तु ऋण ( Bad Debts) की रकम बट्टे खाते में डाली है। इसे लुप्त भार (Charge Off ) के नाम से भी जाना जाता है, जिसका वार्षिक विवरण इस प्रकार है ;
लोकसभा को दी गई जानकारी के हिसाब से सन २०१३ में बैंकों ने कुल २७२३१ करोड़ की ऎसी रकम बट्टे खाते में डाली थी। इसी तरह २०१४ में ३४४०९ करोड़ और २०१५ में ५२५४५ करोड़ बट्टे खाते में डाली गई।
यहां यह जानना अत्यावश्यक है किसी भी रकम अथवा ऋण को बट्टे खाते में डालने के लिए बैंको के लिए कुछ नियम, कुछ प्रकियाएं हैं। और इन नियमों तथा परिक्रियाओं के तहत किसी भी रकम अथवा ऋण को गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (non-performing asset ) घोषित करने और उसके बाद उसे bad debts मानकर बट्टे खाते में डालने में लगभग ३ साल लग जाते है।
यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि बैंकों द्वारा अपने इन अप्राप्य नुकसान ( unrecoverable loss) को अपने तुलनपत्र ( बैलेंस शीट ) और आयकर विवरणी (रिटर्न) में दर्शाने का मतलब यह नहीं है कि बैंकों ने उन ऋणों को वसूलने के अपने अधिकार का अधित्यजन(waiver ) कर दिया है, और अब वे उसे अपने ऋणी से नहीं वसूल सकते। बट्टे खाते में डालने के बाद भी बैंको को पूरा अधिकार होता है कि वे अपने पास हर उपलव्ध साधन जैसे ऋण वसूलने वाली एजेंसियां, ऋणधारक के ऋणदाता बैंक में मौजूद कोई अन्य परिसंपत्ति/खाते को जब्त करके, दृष्टिबंधित संपत्ति को बेचकर इत्यादि से इस ऋण को वसूल सकते है।
अब आपका ध्यान एक मजेदार बात पर खींचने की कोशिश करता हूँ। जो ऋण की रकम बैंकों ने २०१५ में बट्टे खाते (write off ) में डाली, वह ऋण संदिग्ध ( Doubtful Debts ) कब हो गया था ? सन २०१२-१३ में, यानि सन २०१२-१३ में ही इन बैन के ऋणदाताओं ने ऋण लौटाने में बदमाशी अथवा अपने को असमर्थ (दिवालिया) घोषित कर दिया था। इसी तरह जो रकम २०१४ में बट्टे खाते में गई वह २०११-१२ में संदिग्ध ऋण बन गई थी और २०१३ वाली रकम २०१०-११ में। साथ ही यह भी बात आप लोग जानते होंगे कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको द्वारा जहां २००२-२००३ में सिर्फ ४% ही ऋण बट्टे खाते में डाले गए थे वहीं ये बट्टेखाते के ऋण सन २०१२-१३ में ६० % तक जा पहुंचे।
अब सीधा सा सवाल, जब ये ऋण रकमें, संदिग्ध ऋण ( Doubtful Debts ) बनी तब देश में सरकार किसकी थी ? बहुत पुरानी बात नहीं है, अभी जब उस कथित आरटीआई से यह खुलासा हुआ तो आपने शायद नोट किया होगा, किस तरह कुछ निहित हित मीडिया घरानो, क्षद्म सेक्युलरों और वाम भक्तों ने इसे मोदी सरकार की एक बड़ी नाकामी के रूप में पेश किया। कुछ ने तो यहाँ तक कह दिया कि मोदी सरकार ने उन औद्योगिक घरानो को ऋण माफी का तोहफा दे दिया जिन्होंने इनके लिए चुनाव खर्च का इंतजाम किया था। मगर किसी ने यह परिभाषित करने की कोशिश नहीं की अथवा जानबूझकर इसे दबाया कि यह डूबंतु रकम किस सरकार के दौरान की है। और ये सब वही लोग है जो आजकर देशद्रोहवाद, अराजकवाद, आतंकवाद और last but not least , JNUवाद के समर्थक और शुभचिंतक बनकर घूम रहे हैं।
अवश्य ही यह एक चिंतनीय विषय है कि बैंक इतनी बड़ी मात्रा में ऋण की रकमों को बट्टे खाते में डाल रहे है और इसके लिए जबाबदेही तय होनी चाहिए किन्तु क्या जो हम और हमारा मीडिया दर्शा रहा है , देश की अर्थव्यवस्था के प्रति क्या हमारा इतना ही उत्तरदाईत्व बनता है कि हम स्वार्थ पूर्ती के लिए किसी और का पाप किसी और के सर मढ़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें ? बस, रह रहकर अफ़सोस के साथ यही कहना पड़ता है कि अपना यह देश कब जागृत और परिपक्व होगा ?
जागो सोने वालों जागो !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-02-2016) को "हम देख-देख ललचाते हैं" (चर्चा अंक-2267) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आँखें खोलने वाले तथ्य हैं ... पर लोगों को समझ आयें तब न ...
ReplyDeleteलोगो को समझाया तो है, इनाम में मोदी भक्त का तमगा मिल चुका है
ReplyDeleteहा-हा.... रोहिताश जी , ये तो जबसे मोदी सरकार आई है, इन डेमोक्रेसी और सेकुलरिज्म के चैम्पियनो का फैशन सा बन गया है की जब उनके पास कोई सही जबाब न हो तो वे अगले को भक्त की पदवी से नवाज देते है।
Deleteबेहतरीन और सटीक अभिव्यक्ति.....
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