Tuesday, April 30, 2019

लातों के भूत।

दिनभर लडते रहे,
बेअक्ल, मैं और  मेरी तन्हाई,
बीच बचाव को,
नामुराद अक्ल भी तब आई
जब स़ांंझ ढले,
घरवाली की झाड खाई।

दास्तां!

जिंदगी पल-पल हमसे ओझल होती गई, साथ बिताए पलों ने हमें इसतरह रुलाया, व्यथा भरी थी हर इक हमारी जो हकीकत , इस बेदर्द जगत ने उसे इत्तेफ़ाक बताया...