Tuesday, June 15, 2010

मन की !

आजकल यात्रा एवं अत्यधिक व्यस्तता की वजह से अपने ब्लॉग के लिए कुछ लिख पाने में असमर्थ हूँ , फिर भी जब भी वक्त मिलता है कंप्यूटर खोल टिपियाने बैठ जाता हूँ ! इस टिपियाने और ब्लॉग जगत का विचरण करने का भी अपना ही अलग मजा है ! यहाँ जो दो बाते मेरे मन को अक्सर बहुत उद्वेलित करती है, वह मैं आज आप लोगो को बताना चाहता हूँ ;
१.बी. एस पाबला साहब का
प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा
जिसमे जब कभी इस किस्म की हेडिंग पाबला साहब ने लिखी होती है कि " हरिभूमि में विस्फोट " तो मुह से तुरंत निकलता है ' हे राम !, सत्यानाश हो इन आतंकवादियों का !
२. मोडरेशन लगे किसी ब्लॉग पर टिपण्णी करो और उसके तुरंत बाद स्क्रीन पर आपको दिखाई दे कि " आपकी टिपण्णी ब्लॉग मालिक के पास भेज दी गई है, प्रमाणित होने पर दिखने लगेगी " इस चेतावनी को पढ़कर मुझे तो पहले ऐसा महसूस होता है मानो मैंने कोई गुनाह कर दिया हो, दूसरा ऐसे भी लगता है कई बार कि मानो मैं दिल्ली जलबोर्ड के दफ्तर के बाहर अपनी अर्जी लेकर खडा हूँ पानी सप्लाई बहाल करने की प्रार्थना लेकर !


बाई दी वे क्या आपको भी ऐसा कुछ महसूस होता है ?

Saturday, June 12, 2010

ज्वलंत सवाल: क्या भोपाल त्रासदी मसले पर कौंग्रेस ने देश को धोखा दिया है-आपकी क्या राय है ?


ब्लॉगबाणी पर पढने वाले पाठक एवं ब्लॉगर मित्रों, आपसे एक सवाल: देश, काल और परिस्थितियों में घटनाएं और दुर्घटनाये एक अलग विषय है, जिन पर अलग से बहस चल ही रही है, लेकिन भोपाल त्रासदी पर हाल के न्यायिक फैसले के बाद जो बाते एन्डरसन के मामले में सामने आयी है, उससे आपको नहीं लगता कि कौंग्रेस ने भोपाल त्रासदी मामले में देश को धोखा दिया है!

इस विषय पर आपकी क्या राय है ? क्या आप भी सोचते है कि कौंग्रेस ने देश को धोखा दिया है ? 'हाँ' के लिए कृपया ब्लोग्बाणी पर मौजूद ब्लॉगबाणी स्कोर पर "पसंद" का चटका लगाए और 'ना' के लिए "नापसंद" का चटका लगाए !

नोट: मैं उम्मीद करता हूँ कि आप इसे इस तरह कदापि नहीं लेंगे कि मैं अपनी इस पोस्ट को हिट करवाने के लिए यह कर रहा हूँ, बल्कि इस तरह से लेंगे कि इस विषय पर हिन्दी ब्लॉगजगत के ज्यादातर लोगो की राय क्या है!

इस तरह फर्ज अदा करते मंत्रालय !


जितनी सरकारी रकम खर्च करके सम्बद्ध मंत्रालयों द्वारा अपने चेहते अखबारों की इस विज्ञापन के द्वारा आर्थिक मदद की जाती है, उतने धन से या यूं कहूँ कि सिर्फ एक दिन के विज्ञापन पर खर्च की गई रकम से शायद दस हजार बाल मजदूरों का जीवन संवर जाता ! इस विज्ञापन से आप किस तबके के लोगों को जागरूक कर रहे है ? जो अखबार पढ़ना जानता ही नहीं, या फिर जिसके पास अखबार खरीदकर पढने की औकात नहीं ! क्या शोषणकर्ता वर्ग इन विज्ञापनों को महत्व देता है ?

Tuesday, June 8, 2010

भ्रष्ट राजनीति और रसूकदारों की रखैल बनकर रह गई है, हमारी यह न्याय व्यवस्था !

शुरू करने से पहले एक छोटी सी पहेली ; "यू मस्ट ब्रिंग दी चेंज" (You must bring the change !)
यह महान वाक्य किसने कहा ?
अगर न मालूम हो तो आप इसका उत्तर लेख के नीचे देख सकते है ।


किस तरह हमारी न्यायिक व्यवस्था की खामियों को अपने फायदे का हथियार बना ये न्यायतंत्र के खिलाड़ी इस कमजोर लोकतांत्रिक ढाँचे की खिल्ली उड़ा सकते है, यह आजकल आ रहे न्यायालयों के भिन्न-भिन्न फैसलों से स्पष्ट है। कम से कम अभी हाल ही में रुचिका-राठौर केस में हरियाणा की एक अदालत का फैसला, व कल ही आया भोपाल त्रासदगी का फैसला तो इसी बात की तरफ इशारा करते है कि हमारी यह न्यायव्यवस्था भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और रसूकदारों की रखैल बन कर रह गई है।

वह त्रासदी दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी थी। हजारों लोग और जानवर इसमें मारे गए। जो इसकी चपेट में आने के बाद भी बच गए, उनके लिए सही दवाओं का इंतजाम अभी तक नहीं हो पाया है। सिर्फ उनके लक्षणों को देखकर उन्हें दवाएं दी जाती हैं। असली मर्ज की दवा उन्हें नहींमिली। यही कारण है कि वे अभी भी गैस के शिकार हैं। और इन फैसलों और न्याय में देरी से यह भी साफ़ तौर पर जाहिर है कि हमारे देश का कमजोर न्याय तंत्र भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। यह स्थिति इससे भी स्पष्ट हो जाती है कि सीबीआई द्वारा आरोप पत्र दाखिल किए गए १०००० के आस-पास मामले अब भी अदालतों में लंबित पड़े हैं! और ऐसा नहीं कि इसके लिए अदालतों के पास वक्तऔर साधनों की कमी हो, बल्कि कुछ बातों में जानबूझकर इन्हें लंबा खीचा जाता है। भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई में वर्षों लग जाते हैं, तथा इस देरी की वजह से बेइमान लोगों को भ्रष्टाचार अपनाने के लिए बढ़ावा मिलता है।

दूसरी तरफ आज सुबह एक और खबर पर नजर गई तो मैं अपनी हंसी नहीं रोक पाया। खबर यह थी कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली में एक डीटीसी कंडक्टर दलबीर सिंह को १९८९ में यात्रियों से डेड रूपये लेकर एक रुपये का टिकिट देने के आरोप में उसकी बर्खास्तगी को उचित ठहराकर उसकी याचिका को खारिज कर दिया। बहुत अच्छी बात है, एक न्यायपूर्ण फैसला है, मगर क्या यह न्यायपूर्ण फैसला सिर्फ एक कंडक्टर को ही बली का बकरा बनाने के लिए है ? क्या हमारे न्याय के ठेकेदार यह देखने की कोशिश करते है कि पिछले साठ सालों में देश में हुए खरबों रूपये के घोटालों में किसी एक राजनेता को सजा दी इन्होने ? क्या यह नैतिक शिक्षा सिर्फ एक निचले तबके के आम नागरिक के लिए ही है ?

हालांकि मैं सिर्फ न्याय व्यवस्था को ही दोष नहीं देना चाहूंगा, क्योंकि इस लोकतांत्रिक ढाँचे के जिन चार स्तंभों पर व्यवस्था टिकी है, उनमे से एक स्तंभ न्याय व्यवस्था है। यदि केवल इसमें ही खामियां होतीं तो सारी व्यवस्था ही सिर्फ एक और ही झुकी होती, मगर ऐसा नहीं है। और यह इसलिए है क्योंकि चारों स्तंभों में ढेरों खामियां हैं, इसीलिए इनमे बैलेंस बना हुआ है। लेकिन इन चारों स्तंभों में से सर्वाधिक जिम्मेदार स्तम्भ न्याय स्तम्भ होता है, क्योंकि जिस दिन लोगो का भरोसा इस स्तम्भ से पूरी तौर से उठ गया उस दिन यह देश पूर्णतया अराजकता के दल-दल में धंस जाएगा। और मुझे यह भी आशंका है जो कुछ चल रहा है, धीरे- धीरे यह न्याय व्यवस्था जिस ओर जा रही है, वह दिन भी ज्यादा दूर नहीं लगता है।

ओर अब ऊपर पूछी गई पहेली का सही जबाब:
बस के कंडक्टर ने !!!!!

Sunday, June 6, 2010

स्टेयरिंग कवर !

समझ नही आता कि इसे आत्म-कथा कहूं, लघु कथा कहूं या फिर कोई एक बेसुरा गीत, मगर जीवन सफ़र मे कुछ बातें ऐसी होती रहती है जिनके निष्कर्षों को हम अपने-अपने अन्दाज मे, अपनी-अपनी विश्लेषण शैली मे समायोजित करने की कोशिश मे लगे रहते है। आम दिनचर्या से निकलकर आने वाली कुछ बाते, वारदातें एक ही वक्त मे जहां किसी के लिये कोई मायने नही रखती, वहीं वह किसी दूसरे हेतु अहम सी बन जाती है।

वो शनिवार का दिन था। दिल्ली मे इस खास वार अथवा दिन पर ज्यादातर सरकारी और कुछ अर्ध-सरकारी तथा प्राईवेट संस्थाओं के दफ़्तर बन्द रहते है। मेरा दफ़्तर भी उस दिन आधे दिन के लिये ही खुलता है। अत: श्रीमती जी ने पिछ्ली शाम को ही तय कर लिया था कि दफ़्तर जाते वक्त ही उन्हे मैं रास्ते मे एक परिचित के घर छोडता जाऊ, और फिर दोपहर को लौटते मे पिक-अप भी करता चलू। सुबह नियत समय पर दफ़्तर के लिये निकला, श्रीमती जी साथ थी। ज्यों ही घर-मोहल्ले से निकल मुख्य सडक पर पहुंचे, श्रीमती जी बोली, आज शनिवार की वजह से सडक पर यातायात बहुत कम दीख रहा है, लाओ गाडी मैं चलाऊ? इतने कर्ण-प्रिय सुरीले स्वर मे किये गये आग्रह को भला मैं नजरन्दाज करने की हिमाकत कर भी कैसे सकता था। हां, ये बात और है कि अमूमन अन्य दिनों पर जब पति-पत्नि साथ कही जा रहे हों तो भारी ट्रैफ़िक और आत्म विश्वास की कमी की वजह से वह ड्राइविंग को प्राथमिकता नही देती।

अभी मुश्किल से तीन-चार किलो मीटर ही चले थे कि एक निर्माणाधीन फ़्लाई ओवर की वजह से वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर सडक पर एक तीव्र मोड दिया गया था। सन २००३ की खरीदी हुई गाडी मे पावर स्टेयरिंग नही है। आज के वाहनों की भांति तब के वाहनों मे भी यह सुविधा थी, मगर मुझे बिना पावर स्टेयरिंग वाली गाडी चलाने मे ही ज्यादा शकून मिलता है और साथ ही तब बीस-पच्चीस हजार रुपये बचाने की ललक की वजह से भी मैने पावर स्टेयरिंग वाली गाडी नही खरीदी थी। लेकिन बाद मे मेरी इस कंजूसी भरी गलती का बोध मुझे मेरी श्रीमती जी बीसियों बार करवा चुकी। अत: करीब ३५-४० की गति से ज्यों ही श्रीमती जी ने उस मोड पर गाडी काटी, मेरी रूढिवादिता की पोल खुल गई। हुआ यों कि स्टेयरिंग घुमाते वक्त उस पर दबाब बढने की वजह से स्टेयरिंग पर लगा कवर ही घूम गया था। परिणामस्वरूप कुछ हो जाता किंतु आदतन जब भी ड्राइविंग सीट पर श्रीमती जी होती है, मैं हैंड-ब्रेक पर हाथ जमाये रखता हूं, और यही खूबी उस वक्त भी काम आई। मैने फूर्ति से पूरी ताकत के साथ हैंड-ब्रेक को ऊपर खींच दिया था, और गाडी जहां थी, वहीं थम गई।

मैने श्रीमती जी को धैर्य के साथ गाडी फिर से स्टार्ट करने को कहा, और थोडा पीछे लेकर फिर से मोड काटते वक्त अपना हाथ स्टेयरिंग के अन्दुरूनी हिस्से मे रख गाडी घुमाने मे उनकी मदद की। कुछ दूर और चलकर श्रीमती जी ने गाडी किनारे पर रोक दी। नीले आसमान पर घुमड रही वर्षा की काली बदली मुझे साफ़ दीख रही थी, और फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी। गरज के साथ छींटे पडने शुरु हो गये थे। श्रीमती जी ने अपने चिर-परिचित अन्दाज मे कहना चालू किया; तुम साले गांवो के गवार लोग अपनी आदतों से बाज नही आओगे। जब मालूम था कि यह कवर इतने साल पुराना हो गया है, बेकार हो गया है, तो अब तक उतार फेंक क्यों नही दिया इसे…….! और फिर वह स्टेयरिंग से उतारने के लिये कवर को नोचने लगी। कवर कातर नजरों से मुझे देख रहा था, उसे भी इस बात का अह्सास हो चला था कि ज्वालामुखी से निकलता तेज लावा आज उसे घर से बेघर करके ही दम लेगा। श्रीमती जी उसे लगातार नोचे ही जा रही थी, एक आखिरी प्रयास के तौर पर उसने विनती भरे स्वर मे मुझसे कहा, बाबू जी, मैं पिछ्ले छह साल से आपकी सेवा…. आप कुछ कीजिये। मुझे तो मानों सांप सूघ गया था, शब्द थे कि मुंह से निकल ही नही रहे थे, मैं जब तक श्रीमती जी को हाथ से धैर्य बरतने का ईशारा करता कि तभी मानो आसमान मे घिर आये बादल छंट चुके थे, हवा की मन्द बयार चल निकली थी, बेबस और लाचार कवर श्रीमती जी के हाथो में झूल रहा था। श्रीमती जी ने अपनी सीट से उठकर, मेरे ऊपर झुकते हुए मेरे बगल वाली खिड्की का शीशा उतारा और उस कवर को हवा मे लहराते हुए दूर फेंक दिया था। कवर सीधा जाकर सडक किनारे खडे एक पेड की टहनी पर जा लट्का था।

मैं एक टक उसे निहारता रहा था, जब तक कि श्रीमती जी ने पुन: गाडी स्टार्ट कर आगे न बढा ली। अगले ही दिन स्टेयरिंग ने एक नया कवर भी पा लिया था, और स्टेयरिंग ’बूढी घोडी लाल लगाम’ वाली कहावत चरितार्थ करने लगा था। तब से आज तक जब भी कभी उस सडक से होकर गुजरता हूं, नजर स्वत:ही पेड पर लटक रहे स्टेयरिंग कवर पर चली जाती है, जब कभी उससे नजरें चुराने की कोशिश करता हू, तो भारी-भरकम स्वर मे एक गम्भीर आवाज मेरे कानों से टकराती है, मानों कवर कह रहा हो कि बाबूजी, चिन्ता मत करो, आपका भी वक्त आ रहा है पेड से……….! चलती गाडी की खिड्कियों से अन्दर आती ये आवाज इतनी जोरों से मेरे कानों मे गूंजती है कि कई बार मेरे दोनो हाथ स्टेयरिंग छोड मेरे कानो को बन्द करने को स्वत: चले जाते है, और मैं जोर से चीख पडता हूं, मगर मेरी वह चीख कोई नही सुन पाता, और रह-रह कर मुझे अपनी श्रीमती जी के वे शब्द याद आते है; ”जब मालूम था कि यह कवर इतने साल पुराना हो गया है, बेकार हो गया है, तो अब तक उतार फेंक क्यों नही दिया इसे…….!” साइड मीरर पर उभरती मेरी सुर्ख आंखो की तस्वीरें मेरी बेबसी पर मुस्कुरा भर देती है।


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सदविचार !

Patience(धैर्य)और Sense(विवेक)एक दूसरे के पूरक है, मगर जहां Patience दिखाने वाला उसे जरूरत से ज्यादा दिखा रहा हो,समझ लीजिये कि उसमे Sense की कमी है! - पी सी गोदियाल

Thursday, June 3, 2010

जमाना !



सर  पे  बाल न हों तो 
फिजूल में कंघे नहीं लेना ,
आईने में उभरते
अपने ही अक्श का संज्ञान 

नंगे नहीं लेना ,
ज़माना सचमुच में 

बहुत खराब हो गया है ,
इसीलिये बेवजह  

किसी से पंगे नहीं लेना।  

Wednesday, June 2, 2010

छि घृणित राजनीति !

अभी कुछ दिनों पहले देश ने वह भयावह मंजर देखा, जब हावडा-कुर्ला लोकमान्य तिलक ज्ञानेश्वरी सुपर डीलक्स एक्सप्रेस, जोकि कलकता से मुंबई जा रही थी, के १३ डिब्बे जगराम से १३५ किलोमीटर दूर सरडीहा और खेमासुली रेलवे स्टेशनों के बीच रेलवे स्टेशनों के बीच तडके १:३० बजे रेल पटरी पर किये गए ब्लास्ट की वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गए, जिसमे १५० से अधिक यात्री मारे गए और करीब २०० से अधिक घायल हुए ! उसी दिन मैंने इस बाबत एक लेख लिखा था जिसमे आशंका जताई थी कि यह सिर्फ नक्सली अथवा माओवादी कृत्य ही नहीं, कुछ और भी हो सकता है, क्योंकि उस घटना के ठीक दो दिन बाद पश्चिम बंगाल में म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव होने वाले थे!

आज एक खबर पर सहसा नजर गई , जिसमे कहा गया है कि माओ-नक्सली प्रवक्ता ने बीबीसी को फोन कर ( भारतीय सेक्युलर मीडिया पर तो उन्हें भी भरोसा नहीं रहा ) बताया कि वह घृणित कृत्य उन्होंने नहीं किया ! कल ही मैंने कहीं पर यह खबर भी पढी थी कि घटना का ठीकरा जिस पीसीपीए के सर फोड़ा जा रहा था, उसने भी अपने को इस घटना को अंजाम देने की बात से इनकार करते हुए अपने को अलग कर लिया ! हालांकि मैं इन वाम विचारधारा के करनी और कथनों को यूँ भी कभी सत्य नहीं मानता, मगर, यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि ये लोग जो कह रहे है वह सत्य है, तो फिर सवाल उठता है कि वह काम किसने किया? क्या पश्चिम बंगाल म्युनिसिपल चुनावों को प्रभावित करने के लिए इस घटना को अंजाम दिया गया ? अगर बात कुछ ऐसी ही है ( जिसकी आशंका ज्यादा प्रतीत होती है ) तो मैं तो कहूँगा कि लानत है ऐसी घृणित, नीच राजनीति पर , जो अपने फायदे के लिए निरीह-निर्दोष नागरिकों की बलि चढ़ा रही है!

Tuesday, June 1, 2010

जवानो के लिए मौत बिछवा रही है सरकार !

ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, माओवादियों और नक्सलियों के देशभर के करीब २० राज्यों में फैलते जा रहे जाल और केंद्र सरकार की इस ओर बरती जा रही बेहद उदासीनता पूर्ण नीति के चलते, आने वाले समय में हमारे सुरक्षा बलों के जवानों के लिए इन राज्यों में किसी भी तरह की आवाजाही न सिर्फ उनकी जान के लिए बल्कि आम नागरिकों के जीवन के लिए भी एक गंभीर ख़तरा बनती जा रही है! सरकार यह भली प्रकार से जानती है कि ये आतंकवादी किसी भी नेक इरादे से शांति वार्ता के लिए कभी भी आगे नहीं आयेंगे! दूसरी तरफ, किसी सैन्य कार्यवाही के लिए इनके मंत्रियों के विवादास्पद और परस्पर विरोधी बयानों की चलते, इन आतंकवादियों को अपनी गुरिल्ला गतिविधियों के लिए संगठित होने और निरंतर तैयारी का मौका मिल रहा है ! यूँ तो बहुत पहले से ही ये आतंकवादी बिहार झारखंड, उड़ीसा, प. बंगाल और छतीसगढ़ के घने जंगलो को जाने वाले सभी तरह के मार्गों पर बारूदी सुरंगे बिछाए रखे है, मगर हाल के लालगढ़ की सुरक्षाबलों की कार्यवाही के अनुभवों के आधार पर अब ये लोग अपनी घात लगा कर हमला करने की किसी भी तैयारी में कोई चूक नाहे होने देना चाहते और उसे और मजबूत करने में जुट गए है ! आपका ध्यान पिछले नवम्बर में माओवादियों की सैन्य शाखा के मुखिया और केन्द्रीय कमेटी के सदस्य कदरी सत्य नारायणराव जो कि कोसा के नाम से ज्यादा कुख्यात है, ने कहा था कि " जिस तरह छोटी-छोटी चींटियाँ किसी सांप पर चारों तरफ से एक साथ हमला करती है, हम भी वही नीति सुरक्षा बलों के खिलाफ अपनाएंगे "! आज इन आतंकवादियों ने अपने विभिन्न माध्यमों के जरिये हर तरह के हथियार इकठ्ठे कर लिए है, और स्थानीय लोगो को अपनी झूठी हमदर्दी का शिकार बनाकर और एक सोची समझी नीति के तहत स्थानीय युवाओं को अपने कैडरों में भर्ती कर उन लोगो का लॉजिस्टिक सहयोग भी प्राप्त कर रहे है, खासकर बस्तर के इलाके में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि जिन स्थानीय आदिवासियों के बच्चे इनके केडर में भर्ती है, वे लोग सुरक्षाबलों के लिए गंभीर चुनौती खडी कर सकते है!

समझ में नहीं आता कि जब यह बात लगभग स्पष्ट है कि इनकी नीयत किसी शांति की नहीं है! ये इस देश में एक नेपाल जैसी अराजकता की स्थिति खडी करने के पक्ष में है , तो फिर इन्हें मोहलत देकर सरकार क्यों इनके जरिये अपने जवानों के लिए ही मौत की सामग्री इकठ्ठा करवा रही है? यदि समस्या का हल सैन्य कार्यवाही ही है तो इसमें देर किस बात की ? और एक बात, यदि सरकार को जल्दी सद्बुद्धि आये और जब सैन्य कार्यवाही करे, तो बांछित परिणाम पाने हेतु सर्वप्रथम कार्यवाही को दिल्ली की उस यूनिवर्सिटी के पास से शुरू किया जाना चाहिए,जहां कि इस "वाद" की जड़ को अपनी कोख में पालने वाली "सरोगेट मदर" निवास करती है!

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।