समझ नही आता कि इसे आत्म-कथा कहूं, लघु कथा कहूं या फिर कोई एक बेसुरा गीत, मगर जीवन सफ़र मे कुछ बातें ऐसी होती रहती है जिनके निष्कर्षों को हम अपने-अपने अन्दाज मे, अपनी-अपनी विश्लेषण शैली मे समायोजित करने की कोशिश मे लगे रहते है। आम दिनचर्या से निकलकर आने वाली कुछ बाते, वारदातें एक ही वक्त मे जहां किसी के लिये कोई मायने नही रखती, वहीं वह किसी दूसरे हेतु अहम सी बन जाती है।
वो शनिवार का दिन था। दिल्ली मे इस खास वार अथवा दिन पर ज्यादातर सरकारी और कुछ अर्ध-सरकारी तथा प्राईवेट संस्थाओं के दफ़्तर बन्द रहते है। मेरा दफ़्तर भी उस दिन आधे दिन के लिये ही खुलता है। अत: श्रीमती जी ने पिछ्ली शाम को ही तय कर लिया था कि दफ़्तर जाते वक्त ही उन्हे मैं रास्ते मे एक परिचित के घर छोडता जाऊ, और फिर दोपहर को लौटते मे पिक-अप भी करता चलू। सुबह नियत समय पर दफ़्तर के लिये निकला, श्रीमती जी साथ थी। ज्यों ही घर-मोहल्ले से निकल मुख्य सडक पर पहुंचे, श्रीमती जी बोली, आज शनिवार की वजह से सडक पर यातायात बहुत कम दीख रहा है, लाओ गाडी मैं चलाऊ? इतने कर्ण-प्रिय सुरीले स्वर मे किये गये आग्रह को भला मैं नजरन्दाज करने की हिमाकत कर भी कैसे सकता था। हां, ये बात और है कि अमूमन अन्य दिनों पर जब पति-पत्नि साथ कही जा रहे हों तो भारी ट्रैफ़िक और आत्म विश्वास की कमी की वजह से वह ड्राइविंग को प्राथमिकता नही देती।
अभी मुश्किल से तीन-चार किलो मीटर ही चले थे कि एक निर्माणाधीन फ़्लाई ओवर की वजह से वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर सडक पर एक तीव्र मोड दिया गया था। सन २००३ की खरीदी हुई गाडी मे पावर स्टेयरिंग नही है। आज के वाहनों की भांति तब के वाहनों मे भी यह सुविधा थी, मगर मुझे बिना पावर स्टेयरिंग वाली गाडी चलाने मे ही ज्यादा शकून मिलता है और साथ ही तब बीस-पच्चीस हजार रुपये बचाने की ललक की वजह से भी मैने पावर स्टेयरिंग वाली गाडी नही खरीदी थी। लेकिन बाद मे मेरी इस कंजूसी भरी गलती का बोध मुझे मेरी श्रीमती जी बीसियों बार करवा चुकी। अत: करीब ३५-४० की गति से ज्यों ही श्रीमती जी ने उस मोड पर गाडी काटी, मेरी रूढिवादिता की पोल खुल गई। हुआ यों कि स्टेयरिंग घुमाते वक्त उस पर दबाब बढने की वजह से स्टेयरिंग पर लगा कवर ही घूम गया था। परिणामस्वरूप कुछ हो जाता किंतु आदतन जब भी ड्राइविंग सीट पर श्रीमती जी होती है, मैं हैंड-ब्रेक पर हाथ जमाये रखता हूं, और यही खूबी उस वक्त भी काम आई। मैने फूर्ति से पूरी ताकत के साथ हैंड-ब्रेक को ऊपर खींच दिया था, और गाडी जहां थी, वहीं थम गई।
मैने श्रीमती जी को धैर्य के साथ गाडी फिर से स्टार्ट करने को कहा, और थोडा पीछे लेकर फिर से मोड काटते वक्त अपना हाथ स्टेयरिंग के अन्दुरूनी हिस्से मे रख गाडी घुमाने मे उनकी मदद की। कुछ दूर और चलकर श्रीमती जी ने गाडी किनारे पर रोक दी। नीले आसमान पर घुमड रही वर्षा की काली बदली मुझे साफ़ दीख रही थी, और फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी। गरज के साथ छींटे पडने शुरु हो गये थे। श्रीमती जी ने अपने चिर-परिचित अन्दाज मे कहना चालू किया; तुम साले गांवो के गवार लोग अपनी आदतों से बाज नही आओगे। जब मालूम था कि यह कवर इतने साल पुराना हो गया है, बेकार हो गया है, तो अब तक उतार फेंक क्यों नही दिया इसे…….! और फिर वह स्टेयरिंग से उतारने के लिये कवर को नोचने लगी। कवर कातर नजरों से मुझे देख रहा था, उसे भी इस बात का अह्सास हो चला था कि ज्वालामुखी से निकलता तेज लावा आज उसे घर से बेघर करके ही दम लेगा। श्रीमती जी उसे लगातार नोचे ही जा रही थी, एक आखिरी प्रयास के तौर पर उसने विनती भरे स्वर मे मुझसे कहा, बाबू जी, मैं पिछ्ले छह साल से आपकी सेवा…. आप कुछ कीजिये। मुझे तो मानों सांप सूघ गया था, शब्द थे कि मुंह से निकल ही नही रहे थे, मैं जब तक श्रीमती जी को हाथ से धैर्य बरतने का ईशारा करता कि तभी मानो आसमान मे घिर आये बादल छंट चुके थे, हवा की मन्द बयार चल निकली थी, बेबस और लाचार कवर श्रीमती जी के हाथो में झूल रहा था। श्रीमती जी ने अपनी सीट से उठकर, मेरे ऊपर झुकते हुए मेरे बगल वाली खिड्की का शीशा उतारा और उस कवर को हवा मे लहराते हुए दूर फेंक दिया था। कवर सीधा जाकर सडक किनारे खडे एक पेड की टहनी पर जा लट्का था।
मैं एक टक उसे निहारता रहा था, जब तक कि श्रीमती जी ने पुन: गाडी स्टार्ट कर आगे न बढा ली। अगले ही दिन स्टेयरिंग ने एक नया कवर भी पा लिया था, और स्टेयरिंग ’बूढी घोडी लाल लगाम’ वाली कहावत चरितार्थ करने लगा था। तब से आज तक जब भी कभी उस सडक से होकर गुजरता हूं, नजर स्वत:ही पेड पर लटक रहे स्टेयरिंग कवर पर चली जाती है, जब कभी उससे नजरें चुराने की कोशिश करता हू, तो भारी-भरकम स्वर मे एक गम्भीर आवाज मेरे कानों से टकराती है, मानों कवर कह रहा हो कि बाबूजी, चिन्ता मत करो, आपका भी वक्त आ रहा है पेड से……….! चलती गाडी की खिड्कियों से अन्दर आती ये आवाज इतनी जोरों से मेरे कानों मे गूंजती है कि कई बार मेरे दोनो हाथ स्टेयरिंग छोड मेरे कानो को बन्द करने को स्वत: चले जाते है, और मैं जोर से चीख पडता हूं, मगर मेरी वह चीख कोई नही सुन पाता, और रह-रह कर मुझे अपनी श्रीमती जी के वे शब्द याद आते है; ”जब मालूम था कि यह कवर इतने साल पुराना हो गया है, बेकार हो गया है, तो अब तक उतार फेंक क्यों नही दिया इसे…….!” साइड मीरर पर उभरती मेरी सुर्ख आंखो की तस्वीरें मेरी बेबसी पर मुस्कुरा भर देती है।
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वो शनिवार का दिन था। दिल्ली मे इस खास वार अथवा दिन पर ज्यादातर सरकारी और कुछ अर्ध-सरकारी तथा प्राईवेट संस्थाओं के दफ़्तर बन्द रहते है। मेरा दफ़्तर भी उस दिन आधे दिन के लिये ही खुलता है। अत: श्रीमती जी ने पिछ्ली शाम को ही तय कर लिया था कि दफ़्तर जाते वक्त ही उन्हे मैं रास्ते मे एक परिचित के घर छोडता जाऊ, और फिर दोपहर को लौटते मे पिक-अप भी करता चलू। सुबह नियत समय पर दफ़्तर के लिये निकला, श्रीमती जी साथ थी। ज्यों ही घर-मोहल्ले से निकल मुख्य सडक पर पहुंचे, श्रीमती जी बोली, आज शनिवार की वजह से सडक पर यातायात बहुत कम दीख रहा है, लाओ गाडी मैं चलाऊ? इतने कर्ण-प्रिय सुरीले स्वर मे किये गये आग्रह को भला मैं नजरन्दाज करने की हिमाकत कर भी कैसे सकता था। हां, ये बात और है कि अमूमन अन्य दिनों पर जब पति-पत्नि साथ कही जा रहे हों तो भारी ट्रैफ़िक और आत्म विश्वास की कमी की वजह से वह ड्राइविंग को प्राथमिकता नही देती।
अभी मुश्किल से तीन-चार किलो मीटर ही चले थे कि एक निर्माणाधीन फ़्लाई ओवर की वजह से वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर सडक पर एक तीव्र मोड दिया गया था। सन २००३ की खरीदी हुई गाडी मे पावर स्टेयरिंग नही है। आज के वाहनों की भांति तब के वाहनों मे भी यह सुविधा थी, मगर मुझे बिना पावर स्टेयरिंग वाली गाडी चलाने मे ही ज्यादा शकून मिलता है और साथ ही तब बीस-पच्चीस हजार रुपये बचाने की ललक की वजह से भी मैने पावर स्टेयरिंग वाली गाडी नही खरीदी थी। लेकिन बाद मे मेरी इस कंजूसी भरी गलती का बोध मुझे मेरी श्रीमती जी बीसियों बार करवा चुकी। अत: करीब ३५-४० की गति से ज्यों ही श्रीमती जी ने उस मोड पर गाडी काटी, मेरी रूढिवादिता की पोल खुल गई। हुआ यों कि स्टेयरिंग घुमाते वक्त उस पर दबाब बढने की वजह से स्टेयरिंग पर लगा कवर ही घूम गया था। परिणामस्वरूप कुछ हो जाता किंतु आदतन जब भी ड्राइविंग सीट पर श्रीमती जी होती है, मैं हैंड-ब्रेक पर हाथ जमाये रखता हूं, और यही खूबी उस वक्त भी काम आई। मैने फूर्ति से पूरी ताकत के साथ हैंड-ब्रेक को ऊपर खींच दिया था, और गाडी जहां थी, वहीं थम गई।
मैने श्रीमती जी को धैर्य के साथ गाडी फिर से स्टार्ट करने को कहा, और थोडा पीछे लेकर फिर से मोड काटते वक्त अपना हाथ स्टेयरिंग के अन्दुरूनी हिस्से मे रख गाडी घुमाने मे उनकी मदद की। कुछ दूर और चलकर श्रीमती जी ने गाडी किनारे पर रोक दी। नीले आसमान पर घुमड रही वर्षा की काली बदली मुझे साफ़ दीख रही थी, और फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी। गरज के साथ छींटे पडने शुरु हो गये थे। श्रीमती जी ने अपने चिर-परिचित अन्दाज मे कहना चालू किया; तुम साले गांवो के गवार लोग अपनी आदतों से बाज नही आओगे। जब मालूम था कि यह कवर इतने साल पुराना हो गया है, बेकार हो गया है, तो अब तक उतार फेंक क्यों नही दिया इसे…….! और फिर वह स्टेयरिंग से उतारने के लिये कवर को नोचने लगी। कवर कातर नजरों से मुझे देख रहा था, उसे भी इस बात का अह्सास हो चला था कि ज्वालामुखी से निकलता तेज लावा आज उसे घर से बेघर करके ही दम लेगा। श्रीमती जी उसे लगातार नोचे ही जा रही थी, एक आखिरी प्रयास के तौर पर उसने विनती भरे स्वर मे मुझसे कहा, बाबू जी, मैं पिछ्ले छह साल से आपकी सेवा…. आप कुछ कीजिये। मुझे तो मानों सांप सूघ गया था, शब्द थे कि मुंह से निकल ही नही रहे थे, मैं जब तक श्रीमती जी को हाथ से धैर्य बरतने का ईशारा करता कि तभी मानो आसमान मे घिर आये बादल छंट चुके थे, हवा की मन्द बयार चल निकली थी, बेबस और लाचार कवर श्रीमती जी के हाथो में झूल रहा था। श्रीमती जी ने अपनी सीट से उठकर, मेरे ऊपर झुकते हुए मेरे बगल वाली खिड्की का शीशा उतारा और उस कवर को हवा मे लहराते हुए दूर फेंक दिया था। कवर सीधा जाकर सडक किनारे खडे एक पेड की टहनी पर जा लट्का था।
मैं एक टक उसे निहारता रहा था, जब तक कि श्रीमती जी ने पुन: गाडी स्टार्ट कर आगे न बढा ली। अगले ही दिन स्टेयरिंग ने एक नया कवर भी पा लिया था, और स्टेयरिंग ’बूढी घोडी लाल लगाम’ वाली कहावत चरितार्थ करने लगा था। तब से आज तक जब भी कभी उस सडक से होकर गुजरता हूं, नजर स्वत:ही पेड पर लटक रहे स्टेयरिंग कवर पर चली जाती है, जब कभी उससे नजरें चुराने की कोशिश करता हू, तो भारी-भरकम स्वर मे एक गम्भीर आवाज मेरे कानों से टकराती है, मानों कवर कह रहा हो कि बाबूजी, चिन्ता मत करो, आपका भी वक्त आ रहा है पेड से……….! चलती गाडी की खिड्कियों से अन्दर आती ये आवाज इतनी जोरों से मेरे कानों मे गूंजती है कि कई बार मेरे दोनो हाथ स्टेयरिंग छोड मेरे कानो को बन्द करने को स्वत: चले जाते है, और मैं जोर से चीख पडता हूं, मगर मेरी वह चीख कोई नही सुन पाता, और रह-रह कर मुझे अपनी श्रीमती जी के वे शब्द याद आते है; ”जब मालूम था कि यह कवर इतने साल पुराना हो गया है, बेकार हो गया है, तो अब तक उतार फेंक क्यों नही दिया इसे…….!” साइड मीरर पर उभरती मेरी सुर्ख आंखो की तस्वीरें मेरी बेबसी पर मुस्कुरा भर देती है।
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साइड मीरर पर उभरती मेरी सुर्ख आंखो की तस्वीरें मेरी बेबसी पर मुस्कुरा भर देती है।
ReplyDeleteशुक्र है कि आप सलामत हैं ।
सादर !
ReplyDeleteआपने तो इस घटना के माध्यम से पूरे जीवन की कहानी बयान कर दी |
इतना मार्मिक वर्णन तो वही कर सकता है जो जीवन के हर रूप का ह्रदय से साक्षात्कार करता हो | अदभुत !
रत्नेश त्रिपाठी
मैं सोच रहा था क्या लिखूं तभी ऊपर आये "रत्नेश त्रिपाठी जी" के कमेन्ट ने मेरा काम आसान कर दिया
ReplyDeleteउनकी कही बात को ही मेरा कमेन्ट मानियेगा
ek chhoti si ghatna ke madhyam se jeevan ki ek badi sachchai samne laaye hain aap...
ReplyDeleteपहले तो भगवान का धन्यावाद जो आप की बुद्धिमता ने आप दोनों की रक्षा की।
ReplyDeleteखुशकिसमत रहे आप कि आपके किए की सजा कबर को भुगतनी पड़ी।
इसमें सारा दोश आपका ही है क्योंकि जान है तो जहान है। बैसे भी मुखर देभक्तों की संख्या बहुत कम है।
आगे के लिए साबधानी बरतें जी अपने लिए नहीं तो देश के लिए।
बहुत सुंदर जनाब बच गये, बहुत सुंदर लिखा आप ने
ReplyDeleteअच्छा ही हुआ कोई दुर्घटना नहीं हुई ।
ReplyDeleteमार्मिक !
ReplyDeleteगीता का संदेश दे दिया कवर के बहाने..
ReplyDeleteआप इसे जीवन कथा कहिये...इस घटना के माध्यम से आपके संवेदनशील मन का भी पता चलता है और धैर्य का भी.....अगर ये हादसा यानि कि मोड़ पर....हैण्ड ब्रेक लगाने की ज़रूरत पड़ गयी...तो हमारे साथ क्या हुआ होता भगवान ही मालिक है.... वैसे भी अब तो ड्राइविंग छोड़ ही दी है :) :)
ReplyDeleteमजेदार आपबीती ....!खुदा का शुक्र है बच गए उनके हाथों अक्सीडेंट से और उनके मुष्टिका प्रहार से भी !
ReplyDeleteये घटना नही .. जीवन का सार है ... पुराने तो सब हो रहे हैं ....
ReplyDeleteएक दिन समय निकाल कर कवर को नीचे उतार कहीं नज़र से दूर डालना ही होगा
ReplyDeleteमैं जोर से चीख पडता हूं, मगर मेरी वह चीख कोई नही सुन पाता,
ReplyDeleteaaj kal sab behre ho gaye hai..
koi kisi ki nahi suntaa
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसंस्मरण में वहुत खूबसूरती से घटनाओं का वर्णन किया है....
ReplyDeleteमेरी हौसला अफज़ाई के लिए आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteबहुत ही खूब वर्णन किया आपने अपनी आप बीती का , बहुत प्रेरणादायक ।
ReplyDeleteजब मालूम था कि यह कवर इतने साल पुराना हो गया है, बेकार हो गया है, तो अब तक उतार फेंक क्यों नही दिया इसे……
ReplyDeleteआपकी बेबसी को समझ सकते हैं । सभी पुरानी चीज़ें क्या भला फेंकी जा सकती हैं ?
अथ श्री गोदियाल कथा ।
ReplyDeleteआप अब भी मिरर का प्रयोग करते हैँ ?
रोचक ।
रोचक संस्मरण है।
ReplyDeleteuparvaale kaa shukra hai aap baal-baal bache....bahut hi maarmik varnan.......laghukatha bhi...aatmkathaa bhi......shaayed jeevan ki sachhai ko ukerati kavita bhi...vaah....bahut badhiya.
ReplyDelete"बाबूजी, चिन्ता मत करो, आपका भी वक्त आ रहा है"
ReplyDeleteसंभल के रहियेगा
परमात्मा का धन्यवाद कि कोई दुर्घटना नही हुई।
पेड पर लटके स्टेयरिंग कवर की फोटो भी लगा देते तो, मजा आ जाता
प्रणाम
अच्छा है, पुराना केवल कवर ही दिखायी पड़ा । इस विस्फोट में नीचे पड़े रहना ही ठीक ।
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