Thursday, July 10, 2014

दिनचर्या


जिंदगी के लम्हें, 
छलकते हुए बेबस बीते हैं, 
फिर भी अनुस्मरण भाण्डे, 
जस के तस रीते हैं।    
हमको भी नहीं मालूम, 
गुजरा है वक्त किस तरह,
मलाल दस्तूर बन गया , 
गश खाते है और कश पीते हैं।।    

3 comments:

  1. रीता रहा मन ! जीवन बीता इस तरह !

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  2. जिस तरह शिद्ध हिंदी और उर्दू हर्फ़ के लाजवाब अंदाज पर आपने ये ग़ज़ल तामीर करी है। .......... ये यकीन है हमको की आप जैसे कलमदान ही इस मुल्क के हिन्दू-मुस्लिम एकता के असल नुमाइंदे है।

    सलाम आपको।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।