Wednesday, July 8, 2015

व्यापमात्मा !



धूर्त,पतित यह दौर कैंसा, मगज भी घूम जाते है,  
कुटिल बृहत् कामयाबी के शिखर भी चूम जाते है। 
  
मारक जाल बिछाये है, हरतरफ शठ-बहेलियों ने,  
शिकंजे में न जाने कितने, फ़ाख़ता रोज आते है।   

मुक़ाम हासिल न कर पाएं  वो जब माकूल कोई,  
तो नेक,सुजान फिर दिल अपना मग्मूम पाते हैं।
   
'व्यापमात्मा' का पड़ जाए जहां मनहूस साया, 
मुल्क काबिलों के हुनर से महरूम रह जाते है।  

कोई पूछता न हो जिन कुकुरमुत्तों को गाँव में,
शहर आके वे भी 'परचेत' मशरूम कहलाते हैं। 

मगज  = माथा 
फ़ाख़ता = कबूतर 
मग्मूम = दुखी 

इतना क्यों भला????

बडी शिद्दत से उछाला था हमने  दिल अपना उनके घर की तरफ, लगा,जाहिर कर देंगे वो अपनी मर्जी, तड़पकर उछले हुए दिल पर हमारे। रात भर ताकते रहे यही स...