Wednesday, August 3, 2016

यत्र-तत्र बिखरे मोती

अमानत में खयानत की पगार पाकर खुश है जहां सिरफिरा, 
यूं कि बदस्तूर जिंदगी का बस यही मजा,बाकी सब किरकिरा, 
ज़रा पता तो करो यारों, ये बंदे कश्मीरी सब खैरियत से तो हैं,
बड़े दिनों से घर-आँगन हमारे, कोई पत्थर नहीं आकर गिरा।


कुछ उदास-उदास सा नजर आया इसबार, 
मेरे मोहल्ले की गली मे भरा बारिश का पानी,
यूं कि 
मां-बापों ने मोबाइल  थमा दिये हैं
कागज की नाव बनाने वाले नौनिहालों के हाथों मे


ये नींद भी कमबख्त, माशुका सी बन गई है ,
बुलाते रहो, मगर बेवफा रातभर नहीं आती।


जो 'AAPकी' नीयत साफ होती, तो
साथ आपके जनता, अपने आप होती,
न ही लुच्चे खुद को आमआदमी कहते,
और न ही लफंगौं की मनमानी खाप होती।


खूंटा कहीं कोई उखडा हुआ पाता हूं, अपने दिल के दरीचे मे जब कभी,
समझ जाता हूं, आजाद हो गया तेरा कोई ख्याल, जो मैने बांधे रखा था।


निमन्त्रण दे रहा हूं उनको, 
जिन्हें गुरूर है अपनी बेशुमार दौलत पर,
कभी वक्त निकाल, मेरे साथ चलना,
बादशाहौं का कब्रिस्तान दिखा लाऊगा ।


मौन-सून!

ये सच है, तुम्हारी बेरुखी हमको, मानों कुछ यूं इस कदर भा गई, सावन-भादों, ज्यूं बरसात आई,  गरजी, बरसी और बदली छा गई। मैं तो कर रहा था कबसे तुम...