दिनभर लडते रहे,
बेअक्ल, मैं और मेरी तन्हाई,
बीच बचाव को,
नामुराद अक्ल भी तब आई
जब स़ांंझ ढले,
घरवाली की झाड खाई।
बेअक्ल, मैं और मेरी तन्हाई,
बीच बचाव को,
नामुराद अक्ल भी तब आई
जब स़ांंझ ढले,
घरवाली की झाड खाई।
...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी, हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी, अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहन...